शनिवार, 9 मई 2015

हमारे संस्कार

                                                                                              भारतीय संस्कार
                                                                                                                                                - राजेंद्र वर्मा                                                
मानवीय मूल्यों के पालन में भारत विश्व का गुरु है। इसके पीछे भारतीय संस्कार हैं। ये संस्कार बाल्यकाल से अधिक सम्बन्ध रखते हैं। बाल्यकाल में हम अपने आस-पास से अधिक सीखते हैं। अतः हमारे जीवन में इन संस्कारों का बड़ा महत्व है। अच्छे संस्कारों से मानव महामानव बनता है।
                सभी माता-पिता चाहते हैं, उनकी सन्तान सद्गुणी हो। उसमें श्रम-परिश्रम, त्याग, परोपकार, क्षमा, न्याय के गुण हों। यह तभी संभव है जब बचपन में उसे सुसंस्कार मिलें।     हमारे पूर्वजों ने इसकी व्यवस्था पहले ही की है। जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक संस्कार बनाये। पहले ये सोलह थे, लेकिन अब दस ही का अधिक महत्व है। इनसे हमारी जीवन-शैली औचित्यपूर्ण बनती है। वैज्ञानिक तथा लोकोपयोगी बनती है। इनके नाम हैं- जन्म, नामकरण, अन्नप्रासन, मुंडन, कर्णवेध, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ और अंत्येष्टि।
        1- जन्मः बच्चे का जन्म होना महत्वपूर्ण घटना होती है। इसे मनाया जाना स्वाभाविक है। माता-पिता इसे बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। इससे मानव-जीवन का महत्व समझा जा सकता है। जन्म के महत्व पर चर्चा होती है। मां-बाप या अभिभावक बच्चे के जन्म को सार्थक करने का प्रयत्न करते हैं।
                2- नामकरणः यह भी बड़े महत्व का संस्कार है। नाम का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। कहावत भी है- जैसा नाम, वैसा गुण! मान लीजिए किसी का नाम विजय है। तो उसे अपने नाम से कर्म की प्रेरणा मिलेगी- वह नाम के अनुरूप कार्य करे। अर्थात् कार्य में सफलता प्राप्त करे। कर्णप्रिय तथा सद्गुणयुक्त नाम सभी को अच्छा लगता है। कोई अपने बच्चे का नाम रावण या कंस नहीं रखता। प्रायः राम-कृष्ण अथवा इससे बने नाम सुनायी पड़ते हैं। ऐसे नाम वाले लोगों को दूसरों का सहयोग भी आसानी से मिल जाता है।
        3- अन्नप्रासनः दांत निकलने पर बच्चे को खाना दिया जाता है। कृतज्ञता भाव से अन्न ग्रहण करने हेतु अन्न रूपी देव की पूजा की जाती है। यह संस्कार भोजन की पवित्रता के लिए भी होता है। आगे चलकर इसका अभीश्ट यह होता है कि हम सदैव पवित्र भोजन ग्रहण करें। उसं कृतज्ञता से ग्रहण करें। साथ-ही दूसरों को भोजन कराने के बाद भोजन करें।
        4- मुण्डन या चूड़ाकर्मः जन्म के समय बच्चे के बाल अपवित्र और अस्वास्थ्यकर माने जाते हैं। इसलिए इसका विधान रखा गया है। बच्चे का जब मुण्डन होता है तो उसे सिर हल्का लगने लगता है। इससे उसकी बुद्धि प्रखर होती है और विचार साफ-सुथरे होते हैं।                              
        5- कर्णवेधः कर्णाभूषण धारण करने हेतु यह महत्वपूर्ण संस्कार है। बालिकाओं के लिए तो यह आवश्यक है ही। बचपन में कान कोमल रहते हैं। उन्हें छेदने में अधिक कश्ट नहीं होता। बालकों के कर्णछेदन की लगभग समाप्त हो गयी है। यह संस्कार समारोहपूर्वक होता है। इससे सामाजिकता का प्रसार होता है।
                6- विद्यारम्भः यह सर्वाधिक महत्व का संस्कार है। इसकी सम्पन्नता भी प्रायः समारोह में होती है। इससे बच्चे में स्कूल जाने का उत्साह बना रहता है। पढ़ाई में भी मन लगा रहता है। विद्यार्जन में सुगमता होती है। शिक्षकों में भी अतिरिक्त उदारता रहती है। शिक्षा का महत्व सर्वविदित है। शिक्षित व्यक्ति ही स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।
        7- यज्ञोपवीत या उपनयनः बालक जब किशोर होने को होता है, तब यह संस्कार होता है। इससे उसे जनेऊ धारण कराया जाता है। इससें आत्मनिर्भरता का संकल्प दृढ़ होता है। निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। वह अपने दायित्व का अनुभव करता है। जनेऊ संकल्प-निर्वहन का प्रतीक है।                     
        8- विवाहः किशोर के युवक होने पर यह संस्कार सम्पन्न होता है। परिवार-निर्माण का उत्तरदायित्व भी इसके साथ जोड़ा गया है। वर-वधू अग्नि को साक्षी मान उसके सात फेरे लेते हैं। यह संस्कार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इसमें रिश्तेदार-दोस्त और पड़ोसी, सभी समिम्मलित होते हैं। अतः वर-वधू पर मानसिक दबाव भी रहता है कि वे परस्पर सम्बन्ध निभायें। यह संस्कार आसानी से सम्बन्ध-विछेद नहीं होने देता।
        9- वानप्रस्थः वानप्रस्थ में गृहस्थ अपना दायित्व उत्तराधिकारियों पर डालता है। पहले वानप्रस्थ की अवस्था 50 से 75 वर्श तक मानी जाती थी। पर आजकल यह 60 वर्श के बाद ही आती है। वानप्रस्थ में व्यक्ति सामाजिक सेवा करता है। इससे स्वार्थवृत्ति पर अंकुश लगता है। त्यागवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। परोपकार की भावना बलवती होती है। लोक-कल्याण की भावना फलीभूत होती है।
        10- अन्त्येष्टि: जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निष्चित है। मृत्योपरान्त शव को पारिवारिक परम्परा के अनुसार जलाया या दफ़नाया जाता है। इस कर्म को अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता है। हिन्दुओं में मान्यता है कि मानव सहित प्रत्येक जीव पंचतत्व से बना है। ये पंचतत्व हैं- पृथ्वी, आग, हवा, पानी और आकाष। इसलिए वे षव को लकडि़यों पर रखकर अग्नि को समर्पित कर देते हैं। वह जलकर धुएं के रूप में हवा में एकाकार हो  जाता है।
मृतात्मा की षान्ति हेतु श्राद्ध भी किया जाता है। इसमें अति निर्धन व्यक्तियों को भोजन कराया जाता है। उन्हंे वस्त्रादि का दान भी किया जाता है। ये संस्कार प्रायः हिन्दुओं के होते हैं। सिक्ख व जैन धर्म मानने वाले भी इन्हें मनाते हैं। इन संस्कारों का बड़ा महत्व है। ये मनोवैज्ञानिक रूप से आजीवन कार्य करते रहते हैं। व्यक्ति में सद्गुणों को भरते हैं जिससे वह सार्थक जीवन जीता है।
        मुस्लिमों के संस्कार अलग होते हैं। उनके बालकों की सुन्नत होती है। वे ऐसा स्वास्थ्य कारणों से करते हैं। उनके विवाह की पद्धति भी भिन्न है। वर मेहर की राशि बताता है। इसके आधार पर मौलवी, वधू से उसकी सहमति प्राप्त कर निकाह पढ़ाता है। आजकल लिखित निकाहनामा भी प्रचलन में आ गया है जिसमें मेहर की राशि का उल्लेख रहता है। तलाक की स्थिति में पति को तयशुदा मेहर चुकानी पड़ती है। अन्य कारणों के साथ-साथ इस कारण से तलाक देने पर रोक लगती है।
        ईसाई वर-वधू विवाह हेतु चर्च जाते हैं। पादरी विवाह की रस्म पूरी कराता है। समारोह में परिजन व मित्रगण रहते हैं। सभी दम्पति को अपना आशीष देते हैं। दोस्तों तथा रिश्तेदारों के बीच जब विवाह होता है, तो पति-पत्नी पर दबाव बना रहता है कि वे रिश्ता निभायें।
        मुस्लिम और ईसाई शवों को दफ़नाते हैं। इससे शव मिट्टी में मिल जाता है।  उसको आग से जलाने में जो प्रदूषण होता है, उससे बचत होती है।
        शव दफ़नाने से पूर्व वे अन्तिम नमाज़ या सामूहिक प्रार्थना भी सम्पन्न करवाते हैं। इससे लोगों में आध्यात्मिक भाव प्रबल हो जाता है। क्षमा-त्याग से वे अच्छे चरित्र की प्रेरणा पाते हैं।

गुरुवार, 26 मार्च 2015

एक नवगीत
निर्विकार बैठे

नये-नये राजे-महराजे
घूम रहे ऐंठे.

लोकतंत्र के अभिजन हैं ये
देवों से भी पावन  हैं ये,
सेवक कहलाते-कहलाते
स्वामी बन बैठे.

नयी सदी के नायक हैं ये
छद्मराग के गायक हैं  ये,
लोक जले, तो जले, किन्तु ये
निर्विकार बैठे.

लाज-शरम पी गए घोल कर
आत्मा बेची तोल-तोल कर,
लाख-करोड़ नहीं कुछ इनको

अरबों में पैठे.                 २५ -३-१५ 
कुछ कुण्डलियाँ

कविता- एक
कविता करना कब कठिन, किन्तु कठिन कवि-कर्म
कविता क्रंदन क्रौंच का, करुणा कवि का धर्म
करुणा कवि का धर्म, भावना यदि कल्याणी
हर संचारी भाव, ग्रहण कर लेता वाणी
पुष्ट छंद हैं कूल, नवोरस-प्लावित सरिता
लहर-लहर श्रृंगार, नीति-दर्शन है कविता.
कविता- दो
कविता के प्याऊ लगे, पहुंचे प्यासे पास
काव्य-सरसता के बिना, रही अनबुझी प्यास
रही अनबुझी प्यास, मंच पर बैठे जोकर
पुलकित मंचाध्यक्ष, देख कवयित्री सुन्दर
छाये हों जब मेघ, नहीं दिखता है सविता
हास्य-लास्य के बीच, खो गयी हिंदी कविता.
कविता- तीन
कविता के इस दौर में, छंद हुआ मतिमंद
पड़े हुए हैं पार्श्व में, सुष्ठु सामयिक छंद
सुष्ठु सामयिक छंद हुए कविता से बाहर
कविता है वह आज, चढ़े जो नहीं जुबां पर
धीरे-धीरे सूख गयी गीतों की सरिता
लय-यति-गति, सब त्याग, हो गयी कैसी कविता?


होली- एक
होली में उड़ने लगा, रंग-अबीर-गुलाल
ममता का पानी मिला, घुलने लगा मलाल
घुलने लगा मलाल, प्रेम मन में अंखुवाया
होंठो पर है फाग और पुलकित है काया
मनुज वेश में रति-अनंग कर रहे ठिठोली
पियो प्रेम पीयूष, पिलाने आयी होली.
होली- दो
होली आयी, हो गये बच्चे बड़े सुजान
बूढ़े भी रँग खेलकर, थोड़ा हुए जवान
थोड़ा हुए जवान, पुराने दिन याद आये
सबके सब हैं यार, कौन किसको समझाये
बच्चे, बूढ़े और जवान, सभी की है हमजोली
हृदय-हृदय के तार, मिलाने आयी होली.



शनिवार, 21 मार्च 2015

एक नवगीत 

अच्छे दिन

अच्छे दिन आनेवाले थे,
किन्तु नहीं आये।

एक नया सूरज लाने वालों की भीड़ जुटी
टटके जादूगर के हाथों अपनी बुद्धि लुटी
सूरज तो निकला, पर लाया
डरावने साये।

पहले ही विकलांग सूर्य था, उस पर ग्रहन लगा
कोने में दुबके अंधियारे का सौभाग्य जगा
राहु-केतु, दोनों मिलकर
नवग्रह पर हैं छाये।

वही एक  ललछौंह रौशनी अपने हिस्से है
कंचन बरसाने वाला रवि उनके हिस्से है
नये-नये सूरज  को शायद
हमीं नहीं भाये। 

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

राजेन्द्र वर्मा के ताँके

1
पौ फट रही,
गुलाबी होते जाते
उषा के गाल।
सरका मुख-पट
झाँकने लगा सूर्य।




2
दूब नटनी
शीश पर सँभाले
ओस की बूँद।
मचल उठी हवा,
बिखर गया मोती।


3
साँझ हो रही,
समाता जाता सूर्य
सिन्धु के अंक।
घुल रही वारुणी
सागर के जल में।


4
कूप-तड़ाग
खिसियाते बेचारे,
जीव बेहाल।
पोखर-दिल फटा,
कहाँ हो तुम,  मेघ!
                                                                                   
5
कब बीतेंगे
ये लपट के दिन,
छायेंगे मेघ?
पहनेगी धरती
बूँदों की पैजनिया!



6
बादल घिरे
झूम उठा मयूर
लगा नाचने।
खोज रही मयूरी
कहाँ है रे, तू पिउ!


7
भरा हुआ था
कितने ही भावों से
मेघों का मन।
डोल गयी पुरवा
छलक पड़े नैन।
8
आषाढ़ लगा,
गिर पड़ा दौंगड़ा
थैंक्स राजेन्द्र!
प्यास बुझने लगी,
जिउ जुड़ाने लगा।


9
घन बरसे
तन-मन सरसे
पेड़ नहाये,
छके पोखर-ताल
धरा हुई निहाल।


10
मेघ झरते
रिमझिम-रिमझिम्
एक लय में।
बज रहा सितार,
मुग्ध रविशंकर।

11
छायी बदली
भर लायी गगरी
पनिहारिन।
लगी बाँटने हवा
बरखा की पातियाँ ।


12
काले बादल
आँज  रहे काजल
नभ-नैनों में।
सजने लगी देखो,
बरखा की पालकी!

                                               
13
बादल कवि
आकाश काव्यमंच
गर्जन काव्य,
पावस संयोजक
धरती रसस्नात।

14
बारिस थमी,
बूँदें टँगी नभ में
चमका सूर्य।
धरा निहारे नभ
इन्द्रधनु लेकर।


15
खिला आकाश,
खिल उठा चन्द्रमा
खिले तारे भी।
खिल उठी धरती
नहा के चाँदनी में।



16
नक्षत्र खिले,
विस्फारित आंखों से
देखे आकाश-
कैसी शस्य-श्यामला
सुप्त सुन्दरी धरा।
17
किसने छापे
धरती के पृष्ठों पे
तांके-ही-तांके!
पढ़ने बैठी ऋतु
पृष्ठ पलटे हवा।


18
खिला कमल,
अँगड़ाता भँवरा
छेड़े ग़ज़ल।
चलो, यार! फिर से
हो जाएं एकमेक।
                       


19
ताल किनारे
फुदक रहा मेढक
मगन मन।
देख रहा बगुलाः
साँप लगाये घात।
20
चकित घाटी,
पर्वत से  झरना
फूट ही पड़ा।
झर-झर झरने,
शीतलता भरने ।


21
सरिता चली
सागर से मिलने
छूटा मायका,
दुखी पिता पर्वत
रोता भ्रात झरना



22
हवा ठिठकी,
थपकी देती मौज
सोये समुद्र।
छुई-मुई हो रही
गजगामिनी नदी।

23
समुद्र चौंका:
पानी की एक बूँद
पत्थर पर!
खिंचवा ली वापस
भेजी बड़ी लहर।


24
काहे का बड़ा,
बुझा न पाता प्यास
सागर खारा!
ऊपर से खींचता
नदी का मीठा पानी।



25
पवन नाचा,
गा उठा नरकुल
बँसवार भी।
बज रही बाँसुरी,
तुम भी सुनो, कृष्ण !
26
हवा ने छेड़ा,
कसमसाने लगा
हरसिंगार।
भू पे झरने लगी
चाँदनी-ही-चाँदनी!


27
लुटाता रहा
रात भर चाँदनी 
हरसिंगार।
सोयी जो अमावस,
न जगी, तो न जगी।



28
बाज़ न आती
लगाती रहती है
यहाँ-की-वहाँ !
ये आखि़र हवा है
या चुगलखोरिनी!
29
बरसे नहीं
घुमड़ते ही रहे
मेघ-सांसद,
कहने को जलद,
पर पूरे चुगद।

30
जाड़े की भोर,
टहल रही धूप
मुंडेर पर।
आँगन जो उतरे,
सेंक लूँ मैं भी देह!



31
नयी कोंपलें
एक-एक फुनगी
कल्पद्रुम-सी !
नवल हुई काया,
प्रिय! वसन्त आया।
32
क्यों बे बसन्त!
कहाँ रह गया था
अब तलक?
कित्ते दिन हो गये
पतझर को आये!


33
फूल मगन
रस चूसे तितली
मुस्काये डाली,
बिगड़ गया स्वाद
गुर्रायी मधुमक्खी!


34
महक रहा
डाली से लगा फूल
हँस-हँस के!
सहम गयी डाली,
बढ़ा निर्दय हाथ।

35
महकता था  
बगीची में गुलाब
कि बढ़ा हाथ!
बन गयी दुश्मन
अपनी ही ख़ुशबू।


36
टूट के गिरी
एक और पंखुरी
फूल बेबस।
भौंरा भी लौट गया
गुनगुन करता।


37
पथ सुरम्य
द्रुमों ने सजाये हैं
वन्दनवार!
पथिक! ठहर जा,
तनिक देख तो ले!


38
छोटा है अभी,
पर बड़ा व्याकुल
आम का पेड़,
जल्दी-से आये बौर,
महके पोर-पोर!

39
प्रेम-बन्धन
देखे न लोकलाज
कसता जाता!
पेड़ से लिपटी है
लता मुस्कुराती है।


40
काट रही है
सूरज का चक्कर
कब से धरा!
लेकिन सूरज है
कि लिफ़्ट न मारता।


41
चोंच मारती
दर्पण पे चिड़ियाः
टुक-टुक टुक्!
उत्तर भी टुक-टुक्
उड़ी घबराकर!


42
कभी द्रुत में,
कभी विलम्बित में
गाये चिड़िया।
कभी तो एकल ही,
कभी जुगलबन्दी!


43
कोयल कूकी
गा उठा पात-पात
अमराई का।
कौआ भी झूम उठा
भूला है काँव-काँव !
44
कुचली गयी,
पर लिपट गयी
पैरों से दूब!
चला जा रहा राही
अपनी ही धुन में।


45
अकेला ही था,
झूमता रहता था
नन्हा पादप।
किसकी नज़र लगी,
खड़े-ही सूख गया!



46
वृक्ष देवता!
तुम कितने दानी?
सर्वस देतेः
फूल-फल-टहनी,
पत्रों की छाँह घनी।
47
‘‘दुनियावालो!
मुझको भी जीने दो,’’
पेड़ ने कहा।
सुनता नहीं कोई,
सभी हुए बहरे!


48
कब चेतोगे?
कटते जाते पेड़
दिन-पे-दिन!
बनती जाती पृथ्वी
पुनः आग का गोला!

           
                                                                       
49
पंछी चहके
महकी अमराई
बौराये आम।
मास भी न बीता था
कटने लगे पेड़।



50
उगने लगे
कंक्रीट के जंगल,
धरा चिन्तितः
उगी है बोनसाई
कहां जाए चिड़िया!