शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

राजेन्द्र वर्मा के दोहे

कृषिप्रधान है देश पर, भूखा मरे किसान।
गाने वाले गा रहे, भारतवर्ष महान।।

सत्तर प्रतिशत देश की,  रोजी कृषि-व्यापार।
दो ही प्रतिशत पर रुकी,  कृषि-विकास-रफ़्तार।।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी चढ़ी,  बदहाली के नाम।
खेती दे पायी नहीं,  लागत का भी दाम।।   

खाने को जुटता नहीं,  देश हुआ बेहाल।
गेहूँ, मक्का, चाय से, उत्पादित एथनॉल।।

नक़दी फ़सलों से हुए, सपने चकनाचूर ।
क़र्ज़ चढ़ा इतना कि अब, मरने को मजबूर ।।

वर्ल्ड बैंक से क़र्ज़ ले, देश हुआ धनवान ।
अजगर भी पाने लगा, सरकारी अनुदान ।।

चूल्हा ठंडा है पड़ा, छोटू भी बीमार।
एम.ए.कर बैठे हुए, पति मेरे बेकार।।

जनगण पर चलते रहे, संकल्पों के तीर।
‘जनगण-मन’ गाता रहा, लालक़िला-प्राचीर।।

गंगा मैली हो गयी, धोते-धोते मैल।
रेती पर प्यासा खड़ा, शंकर जी का बैल।।

इधर चलाये आपने, मदिरालय निर्बाध।
उधर चौगुने बढ़ गये, सामाजिक अपराध।।

सभी व्यक्तियों में बहे, एक रंग का खून।
किन्तु धर्म के नाम पर, अलग-अलग क़ानून।।

बड़ी अदालत ने लिखा, अपना बड़ा कृतित्त्व।
लेकिन कब तय हो सका, राजा का दायित्व?

दो ही शब्दों में बँटा, है  सारा संसार।
हमें मिला कर्तव्य है,  उन्हें मिला अधिकार।।


कटे हाथ करते रहे, सबसे यही सवाल।
क्या दुनिया में ताज की, कोई नहीं मिसाल?

विरुदावलियाँ गा हुए, वे तो मालामाल।
हमने सच को सच कहा, हमें न रोटी-दाल।।

कल भी वे सरकार थे,  हैं अब भी सरकार।
शोषण का उनको मिला, जन्मसिद्ध अधिकार।। 

सागर से मिलकर नदी, खोती है पहचान।
‘कल-कल’ करती है मगर, सागर का गुण-गान।।

फाँके करके जी रहा, दुनिया का मज़दूर।
पूँजीपति का घर मगर, भरने को मजबूर।।

महँगाई इठला रही, बढ़ी पूर्ति से माँग।
घोट रही सत्ता मगर, पूँजी के घर भाँग।।

कर की चोरी कर हुए, पूँजीपति भगवान।
माँग रहा दो रोटियाँ, भूखा हिन्दुस्तान।।

जल-संकट है देश का, जलता हुआ सवाल।
मिनरल वाटर बेचकर, बनिया मालामाल।।

महँगाई का मद्य पी, शीश चढ़ा बाज़ार।
व्यापारिक संकेत पर, नाच रही सरकार।।

आम आदमी की व्यथा, समझेंगे क्या ख़ास?
बैठे हैं पंछी मगर, लगा व्याध से आस।।

टी.वी. की क़िस्मत खुली, व्यापारी के संग।
बिकते हैं बाज़ार में, इन्द्रधनुष के रंग।।

दिन-भर कूड़ा बीनकर, जो है थककर चूर।
क्या वह बच्चा देश की, है आँखों का नूर?

लैला-मजनूँ हो गये, फ़िल्मों से धनवान।
एक इश्क़ होता रहा, लेकिन लहूलुहान।।
-2-

लम्बोदर भी रह गये, विघ्नों से अनजान ।
युद्ध हुआ जब शंभु से, स्वयं गँवायें प्रान ।।

ब्रह्मा ने पहले दिया,  आँख मूँद वरदान ।
फिर वृत्रा के अन्त हित, ली दधीचि की जान ।।

अनबन विश्वामित्र की हुई इन्द्र के साथ ।
नदी कर्मनाशा बही, हुआ त्रिशंकु अनाथ ।।

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख वे, हम ख़ालिस इन्सान।
हम दोनों के बीच में, आड़े है भगवान।।             

आज़ादी अभिव्यक्ति की, मिली सभी को आज।
वैचारिक दुर्गन्ध को, ढोये मगर समाज।।

ऋण की लकुटी टेकता, लोकतंत्र लाचार।
आन-बान के अश्व पर, बैठा भ्रष्टाचार।।  

गिरगिट का तो गुण यही, रहे बदलता रंग।
लेकिन नेता देखकर, गिरगिट भी है दंग।।

नेता-अपराधी करें, नन्दनवन की सैर।
साँप-नेवले का मिटा, जनम-जनम का बैर।।

सत्ता की ख़ातिर गया, मतभेदों को भूल।
कल तक जो प्रतिकूल था, आज हुआ अनुकूल।।

नेता से उम्मीद की, सोची तुमने ख़ूब।
लेकिन क्या उगती कभी, पत्थर पर भी दूब?

औंधे मुँह सोना पड़ा, सहलाता है घाव।
सोने का पानी चढ़ा, चाँदी पूछे भाव।।

दीपक सूना हो गया, बाती जलकर राख।
दुराचार के भाग्य से, लगा अँधेरा पाख।।





प्रेमचन्द के बहाने

गाँधी की टोपी चखे, सिंहासन का स्वाद।
घीसू-माधो से हुई, मधुशाला आबाद।।

पत्थर के सब देवता, पत्थर ही के लोग।
दुखिया को रोटी नहीं, ठाकुरजी को भोग।।

साधनहीनों पर लगी, मौसम की भी घात।
गले लिपटकर श्वान के, हल्कू काटे रात।।

सवा सेर गेहूँ लिया, किया अतिथि सत्कार।
जीवन-भर चुकता किया, फिर भी चढ़ा उधार।।

जब से ग्राम-प्रधान का, घोषित हुआ चुनाव।
जुम्मन-अलगू में ठनी, देखे सारा गाँव।।

बेटों ने दावत रखी, रखा सभी का ध्यान।
बूढ़ी काकी ढूँढती, जूठन में पकवान।।

मेला उजड़ा ईद का, होने को है शाम।
हामिद चिमटे का मगर, चुका न पाया दाम।।

असमय बूढ़े हो गये, ‘होरी’ जैसे लोग
‘दिल्ली’ सोचे, किस तरह, हो इनका उपयोग?

फसलें भी करने लगीं, होरी से तक़रार।
घर वे जा सकती नहीं, जब तक चढ़ा उधार।।

धनिया गोबर को जने, रानी राजकुमार।
संविधान ढोता फिरे, समता का अधिकार।।

धनिया बेबस देखती, होरी तजता प्राण।
पथ्य और औषधि नहीं, होता है गोदान।।

००

कुछ और दोहे


* प्रेम *

प्रियतम जब से हिय बसे, नैन स्वयं है बन्द।
अष्टकमल काया हुई, आत्म हुआ मकरन्द।।

प्रियतम जब से साथ हैं, पुलकित हैं मन-प्राण।
सुख-दुख की तो बात क्या! जीवन-मरण समान।।

हम प्रेमी ऐसे मिले, सुरभित है हर श्वास।
उसमें भी मधुमास है,  मुझमें भी मधुमास।।

दर-दर भटके पीर के, मिटी न हिय की पीर।
अपनायी पर पीर जब, आया हिय को धीर।।

प्रेमपंथ पर पग बढ़ा,  हूँ निर्भय-स्वछन्द।
पग-पग पर मिलने लगा, पीड़ा में आनन्द।।

प्रेम माँगता है सदा, त्याग और बलिदान।
मीराँ को करना पड़ा, प्रेम हेतु विष-पान ।।


* नीति *

बाह्य चक्षुओं से दिखे, संभ्रम सत्य-समान।
जैसे पृथ्वी स्थिर दिखे, दिखे सूर्य गतिमान।।

परहित में झुकते वही, जिनके हिय में प्यार।
जलवाले बादल झुकें, झुकें वृक्ष फलदार।।

झंझा में करते नहीं, जो झुकने का कष्ट।
तने वृक्ष की भाँति वे, हो जाते हैं नष्ट।।

दुनिया में गुनवन्त जन, होते नहीं अनेक।
एक सूर्य, इक चन्द्रमा, ध्रुवतारा भी एक।।

दुनिया दीपक पूजती,  जिससे मिले उजास।
यद्यपि उसके ही तले, अंधकार का वास।।

अपनों से तो जीत भी, लगती जैसे हार।
जीत लिया ख़ुद को अगर, जीत लिया संसार।।

हार-जीत के चक्र में, फँसना है बेकार।
क्रीड़ा का आनंद ही, है जीवन का सार।।

समय बहुत बहुमूल्य है, देखें, व्यर्थ न जाय ।
बीते पल आते नहीं, करिए लाख उपाय।।

अट्टहास करता समय, भूल गया यह बात।
चौबीसों घंटे नहीं, हो सकती है रात।।।

समय अगर प्रतिकूल तो, करिए तनिक विचार।
पतझर के आये बिना, आती नहीं बहार।।

कंचन-मृगया के लिए, दौड़े जब रघुबीर ।
उसी समय लाँघी गयी, जो थी खिंची लकीर।।

बिना विचारे बढ़ गया, यदि मैत्री का हाथ।
देना पड़ता कर्ण को, दुर्योधन का साथ।।

कर्मयोग सिद्धान्त का, है इतना ही सार।
फल पर अपना वश नहीं, कर्मों पर अधिकार।।

सुख-दुख के सरगम ढला, जीवन का संगीत ।
समय सुनाता है सदा, हार-जीत के गीत।। 

अनुशासन से हैं टँगे, सूर्य-चन्द्र आकाश
अनुशासन हो भंग तो, हो पृथ्वी का नाश ।।        

हम प्रायः इस तथ्य पर, करते नहीं विचार।
पूरा हो कर्तव्य तो, मिलता है अधिकार।।




* अध्यात्म *

पंचतत्त्व से है बना, यह अनमोल शरीर।
इसमें हैं बैठा हुआ, पीरों का भी पीर।।

काया माटी-सी चढ़ी,  कुम्भकार के चाक।
गीली मिट्टी घूम-फिर,  हो जाती है ख़ाक।

जीव कभी पाता नहीं, काया में विश्राम।
लेकिन काया के बिना, चले न इसका काम।

अपना होकर भी नहीं, है अपना संसार।
गोमुख बैठा देखता, बही जा रही धार।।

भोर-साँझ होती रही,  जीवन हुआ तमाम।
कंचन काया भी नहीं,  आयी अपने काम।।

मंत्री-संत्री-आमजन, बेग़म और नवाब।
मिट्टी से क्या-क्या बने, कोई नहीं हिसाब।।
 
रंगमंच संसार यह, अभिनेता हम लोग।
किसको कैसी भूमिका, मिलने का संयोग।।

हँसना-रोना झूठ सब, झूठे ये दिन-रात
मगर बेहया मन भला, कब माने यह बात?

अपने भीतर झाँक कर, देखो तो इक बार
अगर बुलावा आ गया, क्या तुम हो तैयार?

इधर उड़ा पंछी, उधर, सभी हो गये दूर।
अपने भी अपने नहीं, दुनिया का दस्तूर।।
  
काया के इस भेद को, जाने विरले लोग।
पाँचों अपने घर चले, टूट गया संयोग।।



* जीवन *

एक दिवस है आदि तो, एक दिवस है अन्त।
दो दिवसों के मध्य में, जीवन भरा अनन्त।।

जीवन पुष्प-समान है, जब से यह आभास।
मेरे अन्तस में बसे,  स्मिति-कौमल्य-सुवास।।

जीवन में भ्रम-झूठ से, जब होता अनुबन्ध।
मृग को भरमाती बहुत, कस्तूरी की गन्ध।।

काम-क्रोध-मद-मोह से, रहिए सदा सचेत।
इन पर वश चलता नहीं, ज्यों मुट्ठी की रेत।।


* रिश्ते *

बच्चों के हित के लिए,  माँ रहती मन-मार।
माँ के चरणों के तले,  दुनिया का सुख-सार।।

खा लेता है भूख भी, पी लेता है प्यास।
पूरा करता है पिता,  घरवालों की आस।।

पानी में चन्दा उगा,  मन में उगा हुलास।
पलक झपकते रच गया,  मन में कोई रास।।

गौने की तिथि आ रही,  जैसे-जैसे पास।
बिटिया के मन गुदगुदी,  अम्मा हुईं उदास।।

बेटी लगती नीम-सी, बेटा लगता आम।
यह मीठी, वह तल्ख़ है, कहता ‘मिट्ठूराम’।।

महानगर भेजे तभी, अपने गाँव प्रणाम।
पत्र लिखे जब जिंदगी, जन्म-मृत्यु के नाम।।

जीते जी बच्चे हुए, पेंशन के हक़दार।
जीवन जैसे हो गया, दफ़्तर का इतवार।।




* देशप्रेम *

जो प्रकाश में रत रहे, ‘भारत’ उसका नाम।
सत्यालोकित जग रहे, है यह उसका  काम।।

पुरखे-पुरखे मिल गये, बना देश सम्पूर्ण।
जैसे आर्यों में यवन, द्रविणों में शक-हूण।।

बूँद-बूँद मिल हम हुए, जल की बहती धार।
अब न विलग होंगे कभी, करिए लाख प्रहार।।

हमने उनके हित किया,  निर्मित प्रेमागार।
वे लेकिन चुनते रहे, नफ़रत की दीवार।।

आपस में हम हिन्दु-सिख, मुसलमान-क्रिस्तान।
दुनियावालों के लिए, हम हैं हिन्दुस्तान।।

एक-एक दुर्योग को,  कर देंगे संयोग।
अपने पर जब आएंगे, हम भारत के लोग।।


* विश्व-बंधुत्व *

क्या मेरा, क्या आपका, जग अपना परिवार!
क्यों न परस्पर हम करें, प्रेमपूर्ण व्यवहार?

सृष्टिनियन्ता एक जब, सब उसकी संतान!
श्वेत-श्याम में फिर भला, क्यों बँटता इंसान?

इंसानों के घर मिले, कई-कई भगवान।
भगवानों के घर मगर, मिला नहीं इंसान।।

चाहे खोले बाइबिल, या गीता, क़ुरआन।
मानवता से है बड़ा, कुछ भी नहीं महान।।

मंदिर-मस्जिद-चर्च या, गुरूद्वारे में देख।
भाषाएँ तो भिन्न हैं, किन्तु एक अभिलेख।।






* प्रकृति *

नभ में दामिनि, श्याम घन, देते यह आभास ।
श्री की वर्षा के लिए, रचा प्रकृति ने रास ।।

टप-टप-टप बूँदें पड़ीं, गर्मी पर प्रतिबन्ध ।
धरती से आने लगी, सोंधेपन की गन्ध ।।

रिमझिम-रिमझिम कर रही, पानी की बौछार ।
जैसे किसी अदृश्य का, बजने लगा सितार ।।

मेघों का पा आवरण, सूरज हुआ प्रसन्न।
देख सकेगा चन्द्र-मुख, रहते हुए प्रछन्न।।

बूँद टँगी आकाश में, लिये इन्द्रधनु-रूप।
कमलपत्र पर जब गिरी, मोती बनी अनूप।।

जब-जब जल-वर्षण करें, पृथ्वी पर सारंग।
मन हल्का-हल्का मन, पुलकित-पुलकित अंग।।
००
तन-मन झंकृत कर रही, सुबह गुनगुनी धूप।
पवन ठिठक कर देखता, उसका कांचन रूप।।

सूर्य स्वयं दुबका पड़ा, घन का कम्बल ओढ़।
जैसे बिस्तर में पड़े, हम घुटनों को मोड़।।

सूरज बाबा खेलते, लुका-छिपी का खेल ।
बूढी अम्मा को हुई, हफ़्ते-भर की जेल ।।

लिए रजाई बर्फ़ की मंदिर करें विचार ।
जाड़े-भर रहते कहाँ, बदरी और केदार ।।
००
स्वागत में ऋतुराज के, बिछा पर्ण-कालीन ।
वन्दन-अभिनन्दन करें, भ्रमर बजाकर बीन ।।

धरती का वैकल्य लख, आ पहुँचा ऋतुराज।
नवकोपल के वस्त्र से, लगा ढाँपने लाज।।

कामदेव का बाण से, आहत अंग-प्रत्यंग ।
महादेव की भी हुई, कठिन तपस्या भंग ।।

खुलने को व्याकुल हुए, लाज-शरम के बन्द ।
ऐसे में कैसे पढ़े, मन संयम के छन्द !
* बारहमासा *
चैत आगमन देखकर, बौराये हैं आम।
महुआ मन कैसे भला, कर पाये विश्राम!

दी हमको बैसाख ने, गेहूँ की सौग़ात।
सोने जैसे दिन लगें, चाँदी जैसी रात।।

आतंकित करने लगी, जेठ माह की धूप।
अग्निपान कर जल गये, नद-नाले-नलकूप।।

आता है आषाढ़ में, रिमझिम करता मेह।
धरती और किसान के, बीच बढ़ाता नेह।।

सावन झूला झूलता, हँसे नीम की डार।
हिय लरजे हर पेंग पर, ख़ुशियाँ हैं अँकवार।।

बहा रहा है जन्म से, भादो मूसलधार।
धान-पान-केला, सभी, प्रकट करें आभार।।

मच्छर-झींगुर क्वांर भर, रहे बजाते गाल।
पितर पक्ष में हो गये, पण्डे मालामाल।।

अफरा-तफरी है मची, कातिक में चहुँ ओर।
खेत और खलिहान में, होती संध्या-भोर।।

गौने के दिन आ गये, अगहन ही के साथ।
विरही दिन विस्मृत हुए, जब हाथों में हाथ।।

पूस निर्दयी आ गया, लगा शीत के पाँव।
आरी बन चलने लगी, पछुआ घर-घर-गाँव।।

पाला पड़ता माघ में, बढ़ती जाती पीर।
मन की खेती जल रही, कैसे धारूँ धीर!

देखो, फागुन आ गया, बैरिन होली-संग।
पिया बसे परदेस में, फीके सारे रंग!  
००





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