मुक्ति और अन्य कहानियाँ
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हाल ही में साहित्य भंडार, 50, जीरो रोड, इलाहाबाद से प्रकाशित होकर मेरी कहानी की पुस्तक आयी है जिसका शीर्षक है- मुक्ति और अन्य कहानियाँ. प्रस्तुत है इसमें से तीन कहानियाँ-
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हाल ही में साहित्य भंडार, 50, जीरो रोड, इलाहाबाद से प्रकाशित होकर मेरी कहानी की पुस्तक आयी है जिसका शीर्षक है- मुक्ति और अन्य कहानियाँ. प्रस्तुत है इसमें से तीन कहानियाँ-
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मुक्ति
शीतला बचपन से
ही मुसीबतें झेल रहे थे। जन्मते ही माँ चल बसी। जन्म से छः महीने पहले पिता
सन्यासी हो चुके थे। घर के नाम पर गांव में दो कच्ची कोठरियां। जमीन-जायदाद के नाम
पर पांच बीघे का एक खेत। पड़ोस की निःसंतान विधवा ब्राह्मणी ने उन्हें
पाला-पोसा।.......दो बरस के हुए थे कि शीतला माता ने वह आशीर्वाद दिया कि बदले में
बायीं आँख छीन ली। ब्राह्मणी को फिर भी तसल्ली थी- ‘माता ने बचवा के परान बचाय दिये!’
साल भर के हुए,
तो लोग उनको ‘सीतला’ कहने लगे। उनके नाम को लेकर किसी को क्या आपत्ति होती? ठीक-ठाक ही था पूरा नाम- ‘पंडित शीतला प्रसाद मिश्र’, लेकिन अनाथ होने के कारण ‘सीतला’ होकर रह गये। वैसे ही, जैसे
चमरही के चिरौंजी, अमरीका या पुत्तन! इनके पूरे नाम कम
लोग ही जानते थे, तत्सम तो शायद ही कोई जानता हो! मरते
दम तक चिरौंजी खुद ही नहीं जान पाये कि उनका नाम चिरंजीवी प्रसाद था। यही हाल
अम्बिका लाल का था जिनका नाम वोटर लिस्ट में ‘अमरीका’ चढ़ा हुआ था। ‘पुत्तन’ यों भी निरर्थक नाम था, भले
ही लिखने में उसे ‘पुत्ती लाल’ कर दिया जाए। ऐसे लोगों को उनके नाम
रखने वाले पंडित का आभारी होना चाहिए, क्योंकि
अधिकतर वे निर्धन, अशिक्षित और असहाय थे और सहानुभूति के
पात्र थे। इन नामों के माध्यम से वे अपनी असहायता टपका कर सहानुभूति बटोर सकते थे, भले ही इस प्रक्रिया में वे उपहास के
पात्र बन जाएं।
चेचक के दाग से सजे चेहरे और उनके काले रंग को तो लोग ‘करिया बाँभन, गोर चमार’ कहकर बर्दाश्त कर लेते, लेकिन उनकी एक आँख न होना बर्दाश्त के
बाहर था। गाँव वालों के लिए वे अपशकुन बन गये। सवेरे-सवेरे घर से बाहर निकलना दूभर
हो गया। जिसके सामने पड़ जाते, वही
मुँह घुमा लेता। मन-ही-मन गालियां देता। कभी-कभी गालियां बुदबुदाहट में भी
होतीं।......कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कह दिया कि आखिर वे सवेरे-सवेरे निकलते ही
क्यों हैं? शौच के लिए निकलना है, तो मुँह-अँधेरे निकलिए या फिर, दिन चढ़े!
चेहरे-मोहरे के तमाशे में शीतला का क्या कसूर, मगर दुनिया के पास इतनी अक्ल कहाँ? फिर भी उन्होंने दुनिया की परवाह करते
हुए अपनी दिनचर्या में परिवर्तन कर लिया। असहायता मनुष्य को क्षमाशील बना देती है।
गाँव के जो लोग शीतला के प्रति सदयभाव, रखते थे, उनमें से एक स्त्री थी- रूपा देवी। वह
भी एक आंखवाली थी। रूपवती होने का प्रश्न ही न था, बात-व्यवहार में भी खासी मर्दाना थी। इसलिए बदनाम थी। उसके बारे में
यह मशहूर था कि उसने अपने पति को मरवा दिया था, क्योंकि
वह रंडियों में दिलचस्पी रखता था और पत्नी, यानी
उसे किसी के हाथों बेच देना चाहता था।.....
जाति से कहारिन और निःसंतान रूपा के तीन भाइयों में से दो को उसके
पति तथा अन्य के मर्डर केस में आजीवन कारावास मिला था, जो अगले वर्ष पूरा हो जाना था। तीसरा
भाई 24-25 साल का बी.ए. तक शिक्षित सुदर्शन युवक
था और रूपा के पास ही रहता था। नौकरी के लिए हाथ-पाँव मार जब वह थक गया, तो तत्कालीन प्रदेष सरकार वाली ‘बहुजन समाजवादी पार्टी’ का कार्यकर्ता बन गया।
रूपा की एक आँख जाने के पीछे दिलचस्प कहानी थी।..... एक रात डकैतों
ने घर पर हमला किया जिसमें उसका पति भी शामिल था। छत पर डाकू इकट्ठे थे और और आँगन
से उतरकर घर में दाखिल होना चाहते थे। लेकिन उसने दिलेरी दिखाते हुए किसी भी डकैत
को नीचे नहीं उतरने दिया। जैसे ही कोई डकैत आँगन की मुंडेर से पाँव लटकाता, वह बल्लम से उसका पैर बेंध देती। काफी
देर तक यह खेल होता रहा।..... आखिर जब डकैतों की माँओं का दूध बेकार जाने लगा, तो उनमें से एक ने रूपा पर टाॅर्च की
तेज रौशनी फेंकी। जब वह चुँधिया गयी, तो
दूसरे डकैत ने कट्टे से फायर कर दिया। कुछ छर्रे उसकी आँख में धॅस गये।
उसने अपनी दायी आँख जरूर गँवायी, लेकिन
डकैतों को घर में नहीं घुसने दिया। कट्टे के फायर की आवाज से गाँव वाले जाग गये और
शोर-शराबा होने के कारण डकैतों को भागना पड़ा। पुलिस की पूछ-ताँछ, गाँव वालों के बयान और मौका मुआइने से
रूपा की बहादुरी की प्रशंसा हुई। थानेदार ने उसे अपनी जेब से एक हजार का इनाम
दिया। इस घटना से रूपा जवार में ‘दबंग औरत’ का दजऱ्ा पा गयी और ‘बेचारी’ होने के अभिशाप से मुक्त हो गयी।
गांव चाहे जितना अषिक्षा का षिकार हो, लेकिन दो-चार बौद्धिक वहां भी मिल जाते हैं। वे रूपादेवी को ‘रुपिया’ और शीतला को ‘राजा साहब’ कहते थे। शीतला और रूपा जब पास खड़े
होते, ख़ास तौर पर रूपा जब शीतला के बायें
होती, तो ये बौद्धक और गांव के दो-चार मसखरों
को इकट्ठा कर कहते- ‘‘कौन ससुर कहता है कि ई दूनौ काने हैं? द्याखौ, दूनौ-के-दूनौ,
दुई-दुई आंखिन ते देखि रहे हैं। हाँ, आंखीं आपस मा दूरि जरूर हंै।......’’ फिर ठहाके लगते। इन ठहाकों को कोई
रोकने वाला न था, क्योंकि इन्हें लगाने वालों को
ग्रामप्रधान- सियाराम मिश्र सहित अनेक बड़े-बूढ़ों का भी आशीर्वाद प्राप्त था।
ठहाकों की गूँज शीतला और रूपा के कानों में शीशा घोल देती। दोनों
दांत पीस कर रह जाते।.... एक-दूसरे का दर्द समझते थे, पर चुप थे। रास्ते में कहीं मिल जाते, तो लगता कि दोनों एक-दूसरे से बहुत कुछ
कहना चाहते हैं, पर बात अभी तक हाल-चाल लेने वाली
सामान्य बातचीत से आगे न बढ़ी थी।
दोनों की आंखों में एकमेक होने का जो स्वप्न पल रहा था, पर वह अभी वाणी से बाहर आने की बाट जोह
रहा था।....उनकी आंखों के तरल भाव हाथों के माध्यम से क्रियान्वित होते-होते रह
जाते। शीतला मन पर नियंत्रण न रख पाते। उनकी आंख से प्रेम छलकने लगता।..... रूपा
की भी यही हालत थी। शीतला के मन की थाह लेती और आनन्दित होती थी। वह उनसे जितना
प्रेम करती थी, उससे अधिक उनका सम्मान।
उनके प्रेम में वासना का तत्व थोड़ा-बहुत भले ही था, तथापि प्रेम उसी पर केन्द्रित न था।
परस्पर सहानुभूति थी और एक-दूसरे के मन को
सहलाने का भाव था। स्त्री-पुरुष के मध्य उपजने वाला सहज यौनाकर्षण अभी तक मर्यादा
में था। पति-पत्नी के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्धों की व्याख्या आसान
नहीं, लेकिन गाँव के सयानों ने इस जटिलता को
झटपट सुलझा लिया था- ‘खग जाने खग ही की भाषा।’ इन सयानों की दृष्टि में दोनों के
सम्बन्धों में खग और खग के बीच का सम्बन्ध ही दिखा, समाज की कुत्सित दृष्टि से मर्माहत पारस्परिक अन्तस्स्पर्ष नहीं
दिखा। घोर सामाजिक उपेक्षा के प्रत्युत्तर का पलता स्वप्न नहीं दिखा।
शीतला के पास पांच बीघा भूमि थी, लेकिन
करने वाले वे अकेले। आधी उपज तो जुताई-बुवाई, खाद-पानी
और कटाई-मड़ाई में चली जाती। खाने-पीने को ही बचता। विवाह हुआ ही न था। नजदीकी
रिश्तेदारों में भी कोई नहीं। अपने ही हाथ खाना बनाना। कभी जब खेती की बुवाई-कटाई
का सीज़न होता, तो रूपा दोपहर का खाना बना देती। पहले
एक गोई बैल थे, बाद में एक ही बचा। एक भैंस भी थी, पर किसी ने उसे ज़हर दे दिया।.... आजकल
नाँद सूनी है। शीतला कहते हैं- ‘‘चलो, अच्छा हुआ, कुछ जंजाल कम हुआ!‘‘...... अब ट्रैक्टर से खेत जुतवाते हैं। बाकी
काम मजदूरी पर। साल-भर के खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने
और कहीं आने-जाने भर का हो जाता है।
तन को पोसने का काम तो ज़मीन कर देती है, लेकिन मन का वे क्या करें? अपमान, तिरस्कार और अकेलापन- तीनों मिलकर शीतला को कभी-कभी आत्महत्या की ओर
ठेलते हैं, पर मन के दर्पण में रूपा का चेहरा
देखते ही उनकी जिजीविषा प्रबल हो उठती है।...... जीवन है, तो जीने का साधन ढूंढ़ना ही पड़ता है।
तत्क्षण वे निश्चय करते हैं कि कल अवश्य ही रूपा से मन की बात कहेंगे, पर वह ‘कल‘ अभी तक नहीं आया।
जवार में तीन-तीन राजनैतिक पार्टियां सक्रिय हैं। गाँव के एक-एक वोटर
पर तीनों दांत गड़ाये हुए हैं। ‘बसपा’ की तो आजकल सरकार ही है। विपक्षी- ‘समाजवादी पार्टी’ जुगाड़ में है कि उसे अगले टर्म में, कैसे भी हो, सत्ता हथियानी ही है! विकास के
बड़े-बड़े वादे कर रखे हैं। ‘भाजपा’ का कमल अवष्य मुरझाया हुआ है, पर उसे आशा है कि गांव के ब्राह्मणों
और अन्य सवर्णोे के हस्तक्षेप से शीघ्र-ही खिलेगा! गांव के लोगों को यह पता है कि
ये पार्टियां बातें चाहे जो करें, पर
बनी एक ही मिट्टी की हैं। इन तीनों की एक ही नीति और चिन्ता है- कैसे जातिवादी
समीकरणों को शक्तिशाली बनाकर सत्ता हथियायी जाए?..... जिस भी टोले में जाइए, नाभदान
से अधिक राजनीति बजबजाती है।
शीतला को राजनीति में दिलचस्पी नहीं, मगर जब तालाब ही गन्दा हो, तो
उसमें रहने वाले जीव कहां जाएं? जब
कोई विकल्प नहीं बचता, तो आदमी नरक में भी स्वर्ग खोजता
है।.....
सजातीय जब बैरी हो जाए, तो
विजातियों की बन आती है। शीतला के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। ‘भाजपा’ समर्थक पंडित सियाराम मिश्र ग्राम प्रधान थे। उनका कुनबा काफी बड़ा
था और दबंग भी। खुली जीप में सवार उनके तीन भाई बंदूक, तमंचा, करौली आदि लेकर खुले आम घूमते थे। इकनाली लाइसंेसी बंदूक भी थी, लेकिन वह केवल दीवाली या शादी-बारात
में ही अपना जलवा दिखा पाती।..... चैथा भाई गाँव के प्राइमरी स्कूल का हेडमास्टर
था। बड़ा बेटा आदित्यशंकर मिश्र भाजपा का स्थानीय नेता था। इस बार वह जिलाध्यक्ष
का उम्मीदवार था। दो बेटे अभी पढ़ाई कर रहे थे- एक एल-एल.बी. कर रहा था और दूसरा
बी.टेक् की तैयारी। दोनों पढ़ने में अच्छे थे, इसलिए
गाँव की राजनीति से दूर थे।.... पांच खेतों में फैली सौ बीघा उपजाऊ जमीन, एक भट्ठा और दशहरी आम के दो बागों के
मालिक- सियाराम के द्वार पर एक जोड़ी पछाईं बैल, दो मुर्रा भैंसे, एक
जर्सी गाय और ‘स्वराज’ ट्रैक्टर शोभायमान थे। ‘हार्वेस्टर‘ बुक कराया जा चुका था- कटाई के सीजन तक
आ जायेगा। पाँचों खेतों में बोरिंग थी। तीन खेत नहर के पास ही थे, जिनमें सिंचाई की सुविधा तब भी मौजूद
होती, जब नहर में पानी न के बराबर होता।
माइनर की पटरी पर ट्रैक्टर लगाकर वे बलपूर्वक पानी निकाल लेते। पतरौल आंखें मूंदे
रहता। गाँव वालों का भी मुंह बन्द रहता- ‘समरथ
को नहिं दोस गुसाईं!’ दबी जुबान से शीतला थोड़ा-बहुत विरोध
करते थे, पर उनके विरोध को कोई ‘नोटिस‘ नहीं लेता था- घर के ही जो ठहरे! रूपा जरूर खुलकर विरोध करती थी, लेकिन माइनर की ‘टेल’ वाले गांवों के असहयोग के कारण कुछ कर न पाती।
आस-पास के दस-बारह गाँवों में सियाराम का कोई जोड़ न था। दूसरी गांव
सभाओं के प्रधान भी उनसे थोड़ा-बहुत दबते थे। दूसरे शब्दों में वे अभी भी वहाँ के
जमींदार थे, भले ही जमींदारी उन्मूलन देष की आजादी
के दो ढाई साल बाद ही समाप्त हो गया था। इसका एक कारण यह भी था कि जमींदारी
उन्मूलन से पूर्व उनके पिता इक्कीस गाँवों के जमीदार थे- दस गाँव आस-पास के और
ग्यारह इधर-उधर के।..... पूरा-का-पूरा खानदान अभी भी खुद को जमींदार ही समझता
था।.... दूसरों से बेगार लेना, मजदूरी
न देना, माँगने पर पिटाई कर देना, इज्जत लूटना, ब्याज पर पैसा देना और बिना फसल कटे
वसूली करना, न अदा करने पर पिटाई करना तथा दोगुनी
राशि का प्रोनोट भरवा लेना,
बैंकों और सहकारी समितियों की ओर अपने
कर्जदारों को न जाने देना,
ग्राम प्रधान के माध्यम से पूरी होने
वाली सरकारी योजनाओं का धन डकार जाना, शिकायत
होने पर तहसीलदार, एस.डी.एम., डी.एम., थानेदार आदि को विश्वास में लेकर शिकायत बन्द करवाकर शिकायतकर्ता की
हड्डी-पसली एक कर देना- जैसे साधारण कार्य उनके व्यावसायिक कौशल का अंग थे। उनकी
ये गतिविधियाँ हिन्दी कमर्शियल फिल्मों से प्रेरित थीं, या कि फिल्में स्वयं उनसे? तय करना मुश्किल था।
सियाराम के दूर के रिश्तेदार हाईकोर्ट में महाधिवक्ता थे। कहने को वे
पुराने कांग्रेसी थे, परन्तु थे पक्के अवसरवादी! पुरखे
कांग्रेसी थे, अगली पीढ़ी जनसंघी बन गयी। जब ‘जनता पार्टी’ बनी, तो वे जनता पार्टी के पदाधिकारी हो गये। इन्दिरा गांधी की हत्या होते
ही, वे पुनः कांग्रेसी हो गये और राजीव
गाँधी की हत्या के बाद भाजपाई हो गये।... आजकल ‘बसपा‘ में हैं।
‘बसपा‘ ने जब से सर्वजन का मुखौटा लगाया है
कांग्रेस, सपा और भाजपा- तीनों चारों खाने चित्त
पड़ी हैं। कहने को तो बसपा दलितों की पार्टी है, लेकिन सवर्णों की ही पैठ
उसमें अधिक है- ठीक वैसे ही,
जैसे गांव की चमरही में भी
ठाकुरों-बाँभनों की अधिक चलती है।
जब ‘बसपा‘ बनी थी, तो उसका चुनाव निशान जंगली हाथी था, जो सूंढ उठाकर चिंघाडता था- ‘‘तिलक, तराजू और तलवार। इनको जूते मारो चार।।’’ लेकिन अब उसकी समझ में आ गया है कि अकेले दलितों द्वारा राज नहीं
किया जा सकता, सवर्णों पर तो बिल्कुल नहीं! इसलिए
हाथी अब ‘नागरिक’ हो गया है। माथे पर तिलक लगाये विनम्रता से सूढ़ लटकाकर संभाषण करने
लगा है- ‘‘हाथी नहीं, गणेष है। ब्रह्मा-विष्णु-महेश है।।’’
आज ‘दलित’ की परिभाषा बदल गयी है। दलित वह है, जो सत्ता से वंचित है। जैसे, एक
कुत्ता, जो न भौंके, न काटे, चुपचाप कोने में पड़ा रहे। पार्टी का कैडर-परसन जब उसे एक लात मारता
है, तब भी उसके मुंह से ‘भौं’ नहीं निकलती। ऐसा दलित ही सत्ता का सच्चा प्रार्थी है। जब वह दाम
चुका देगा तो, ‘प्रार्थी’ से ‘अधिकारी’ बन जायेगा। वोट डालने के लिए तो अन्य
दलित हैं ही, जिन्हें ब्रह्मा ने अपने पैरों से पैदा
किया है।.....सत्ता के इस गणित को ‘बसपा’ जी-जान से पढ़ाने में लगी है।
इसी गणित के तहत सियाराम अपने बेटे को भाजपा का नहीं, बसपा का जिलाध्यक्ष बनाना चाहते हैं।
वे कोमल कमल का फूल छोड़ मजबूत हाथी पकड़ना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें रूपा और
शीतला, दोनों को साधना होगा। रूपा का भाई भी
बसपा की जिलाध्यक्षी का उम्मीदवार है। सियाराम के बेटे- आदित्य और रूपा के भाई-
रामअधार के बीच शीतयुद्ध छिड़ गया है। रामअधार के पास पिछड़े वर्ग और दलितों का
समर्थन है, तो आदित्य के पास सवर्ण की शक्ति और
सम्पन्नता का संबल।
ऊँची जातियों को बसपा में अधिक महत्व दिये जाने वाली बात अभी खुलकर
नहीं की जा रही है, पर कार्यकर्ताओं से भला क्या छुपा है? अब तक जो इतिहास रहा है, वह दलितों को लाभ पहुंचाने तक का रहा
है, लेकिन अब कैडर की ‘अप्रोच’ बदल गयी है। उसका कहना है कि देष को दलित प्रधानमंत्री चाहिये। इसके
लिए ‘बहुजन’ के स्थान पर ‘सर्वजन’ को बिठाना पड़ेगा। राम अधार इसे ‘फ्राॅड’ कहता है, पर उसकी सुनता कौन है? लेकिन
पिछले पाँच सालों में उसने पार्टी में जो प्राण फूँके हैं, उसे कोई कैसे नज़रअन्दाज कर सकता है? इस बार वह जिलाध्यक्षी का उम्मीदवार
है। प्रदेष अध्यक्ष ने उसे ‘रिकमेंड’ भी किया है- देखिए, मैडम
क्या डिसाइड करती हैं?
रूपा के पास भी खासी जायदाद है- पक्का मकान है, अस्सी बीघे की बढि़या खेती है, तीस बीघा खेत और खरीदने जा रही है।
दोनों भाई जेल से छूट कर आने वाले हैं। घर में लाइसेंसी दुनाली है, द्वार पर ट्रैक्टर है, एक जोड़ी बैल और दो-दो दुधार भैंसें
हैं। एक खुटाती है, तो दूसरी उसकी जगह ले लेती है।
मिलने-जुलने वालों की तादाद भी सियाराम के यहाॅ आने-जाने वालों से कम नहीं।
राम अधार कहता है कि “दीदी, आप ‘प्रधानी‘ क्यों नहीं लड़ती? गाॅव तथा दोनों पुरवों के गैर-ब्राह्मण
वोट तो आपको ही मिलेंगे। अगर दलित वोट कुछ कटेंगे, तो शीतला चाचा के कारण ब्राह्मण-वोट भी तो मिलेंगे।”
रूपा बात को हँसकर टाल देती है, पर
उसके मन में जैसे कुछ उमड़ आया- ‘कहाँ निकलेगी
घर-घर वोट माँगने। हाँ, दोनों आँखें होती तो शायद सोचती!.....’
रामअधार समझदार है, वह
अनकहा भी सुन लेता है। वह बात बदल देता है।.....
$ $ $
धान की फसल कट चुकी थी। गेहूँ की बुवाई के लिये शीतला को अपना खेत
जुतवाना था। वह ट्रैक्टर के लिए रूपा के यहाँ जाना ही चाहते थे कि सियाराम उसके
द्वार पर दल-बल के साथ आ धमके। चार चारपाइयाँ पड़ीं- दो घर से निकलीं, दो पड़ोस से आयीं।...... सभी लोग
विराजे। शरबत-चबैना का इन्तजाम हुआ।..... हुक्का-तमाखू करते-करते एक-सवा घंटा समय
व्यतीत हो गया।
शीतला को मालूम था कि सियाराम क्यों आये हैं? वे चाहते हैं कि शीतला रूपा को मना
लें- जिलाध्यक्षी में वह अपने भाई की उम्मीदवारी वापस ले ले। पर, शीतला इसके लिए तैयार नहीं। उनकी दृष्टि में राजनीति साँप-सीढ़ी का खेल है
जिसमें उनकी कोई रुचि नहीं। जहाँ तक रूपा का सवाल है, वह उनके कहे में थोड़े ही है। हाँ, उनका लिहाज जरूर करती है, पर लिहाज तभी तक है, जब तक वे उससे कुछ माँग-जाँच नहीं
करते। यदि याचक बन गये, तो अपनी गरिमा कैसे बचा पायेंगे? याचकता गहने से त्रिलोकपति विष्णुजी भी
‘बावन’ कहलाये।.... गरिमाविहीन मनुष्य क्या है? दो पाया जानवर!
चलते-चलते सियाराम ने पुनः अनुरोध किया। शीतला के आगे हाथ जोड़े। इस
नाटक को सबने देखा, सराहा और शीतला से अपेक्षा की कि वे इस
मिशन को आगे बढ़ायें ताकि ब्राह्मणों की खोयी ताकत लौट सके। परशुरामजी की जै!
सब लोग अभी गली में मुड़ भी न पाये थे कि एक आदमी दौड़ता हुआ आया और
शीतला को सूचना दी कि उनका खेत पंडित जी, यानी
सियाराम ने जुतवा दिया है और उन्हें जुताई देने की जरूरत भी नहीं है!
शीतला मन मार कर रह गये। गाली देने को मुँह खुला-का-खुला रह गया।
गाँव में बात बहुत जल्दी फैलती है, क्योंकि यहाँ दिमाग के खेत खाली पड़े रहते हैं। सचाई हो या अफवाह, कोई भी घोड़ा उनमें सरपट दौड़ाया जा
सकता है। शीतला के खेत जुतने की बात रूपा के कानों तक पहुँची। उसने शीतला को
बुलवाने किसी को भेजा, पर वे तो पहले ही उसके यहाँ के लिये
निकल चुके थे।
रूपा ने शीतला को देखते ही कहा, “सुना, सब बाभन एक हो रहे हैं? कल के दुश्मन सगे बन रहे हैं। क्या आप
में भी दुश्मनों के प्रति प्रेम उमड़ रहा है?”
शीतला को रूपा से ऐसी बातों की उम्मीद न थी। सियाराम के प्रति दुराव
के भाव का तो वे स्वागत करते थे, पर
ब्राह्मणत्व को ललकारा जाना उन्हें अच्छा न लगा। फिर भी, कुछ सोच चुप रहे। मन-ही-मन उबल रहे थे-
‘हाँ ठीक है, रूपा ने उन्हें प्रेम की दृष्टि से
देखा है, तो उन्होंने भी उसे उसी दृष्टि से देखा है। तमाम मौके आये- अकेले में
मिले, लेकिन उन्होंने कोई लाभ नहीं उठाया।
अभिसार का आमंत्रण रूपा की ओर से ही रहा, पर
उन्होंने पहल भी न की। एकाध बार तो रूपा ने ही उनका हाथ भी पकड़ लिया था, पर वे स्वयं ही अलग हो गये थे। .....
रूपा स्वयं उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती थी। ऐसा व्यवहार उनके
लिये अप्रत्याशित था। बिना किसी बात-चीत के, थोड़ी-ही
देर में शीतला वहाँ से चले पड़े। रूपा ने भी रोकने का आग्रह नहीं किया।
शीतला के जाने के बाद रूपा ने मनोमंथन किया। उसे लगा कि उसने अनधिकार
चेष्टा की है। शीतला के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई है। यदि कोई किसी की अनुमति से
ही उसका हित-अहित कर दे, तो भला सम्बन्धित व्यक्ति का क्या दोष
है? दोष तो कर्ता का ही हुआ न!
कोई घंटे-भर बाद रूपा स्वयं शीतला के घर में थी। शीतला से उसने पहले
ही क्षमा मांग ली थी। शीतला के मन का मैल छँट चुका था, परन्तु अभी भी संवादहीनता की स्थिति
बनी हुई थी। दोनों एक-दूसरे को क्षण भर को देखते और अपने षीष झुका लेते।
देर से चुप बैठा राम अधार उकता गया, बोला- “चाचा! आप ब्राह्मण हैं और हम कश्यप। अब
इसको लेकर झगड़ने से क्या होगा? अब
हम एक हैं- न आप अगड़े और न हम पिछड़े! हम दोनों बहुजन हैं, सर्वजन हैं, हम दोनों बाबा साहेब के बताये रास्ते
पर चलेंगे और समाज में जो भी दबे-कुचले लोग हैं, उन्हें ऊपर उठायेंगे और सही मार्ग पर चलायेंगे।.... जब तक हम
जातिविहीन व्यवस्था नहीं बनायेंगे, यह
समाज कोढ़ी-का-कोढ़ी ही रहेगा। क्या आप सामाजिक कोढ़ को नहीं मिटाना चाहते? सियाराम जैसे लोग ही इस समाज के कोढ़
हैं? क्या आप चाहते हैं कि हम अपनी आजादी
खोकर फिर से ‘शम्बूक’ बन जायें। राजा राम से अपनी गर्दन कटवा लें और स्वर्ग में आरक्षण पा
लें! चाचा, हमें आरक्षण नहीं, हक चाहिए!’’
शीतला, राम अधार का मुंह ताकते रह गये। उसकी
बात तो ठीक थी, लेकिन राम को छोड़ बाबा साहेब को पकड़ने
वाली बात गले नहीं उतर रही थी। इससे पहले वे कुछ बोलते, राम अधार ने अपनी बात को आगे बढ़ाया- “आरक्षण तो अब सियाराम जैसे लोग चाह रहे
हैं, क्योंकि उनका बेटा मेरे मुकाबले पिछड़
रहा है। उनको सत्ता में पहला हिस्सा चाहिए, जैसे
अब तक भोज में पाते आये हैं,
क्योंकि वे तो ब्रह्मा के मुख से पैदा
हुए हैं। इसके लिए वे अगर साम, दाम, दण्ड, भेद अपनायेंगे, तो हम भी चुप नहीं बैठने वाले!’’
ब्रह्मा के मुख वाली व्यंग्योक्ति से शीतला का धैर्य टूट गया। रूपा
की ओर मुखातिब हो बोले, ‘‘देखो रूपा! राम अधार बहुत पढ़-लिख गया
है। वह समाज और राजनीति का ज्ञाता हो गया है। यह अच्छी बात है, लेकिन उसे आदमी भी पढ़ना आना चाहिए। यह
ठीक है कि हम ब्राह्मण हैं,
पर इसमें हमारा कसूर है क्या? मैं यह भी मानता हूं कि यदि कोई पिछड़ा
या दलित हैं तो उसमें उसका भी कोई कसूर नहीं है।..... यह अगड़ा-पिछड़ा, या दलित- सब राजनीति का ही हिस्सा है।
जिसके घर में खाने को नहीं,
उसे रोटी देने वाला कोई नहीं, न अगड़ा, न पिछड़ा और न ही दलित! फिर, गाँव
में कितने दलित अब सचमुच दलित हैं? अब
तो उनमें भी ब्राह्मण होने की होड़ मची है। गाँव के ही लखन मास्टर, सीताराम पतरौल, सतरोहन जाटव और षिवषंकर कांस्टेबिल को
देखो! क्या वे सचमुच दलित हैं? सब-के-सब
मोटर साइकिल से चल रहे हैं। घरवालों के नाम सरकारी जमीन का पट्टा कराये हुए हैं।
दूसरी तरफ, बनवारी लाला के लड़कों को देखो। दोनों
एम.ए. किये बैठे हैं, लेकिन नौकरी का कोई ठिकाना नहीं है? चपरासीगिरी भी नहीं मिलती। जहाँ जाते
हैं, वहाँ आरक्षण का बैताल लटका हुआ है। मैं
उनकी तरफदारी नहीं कर रहा,
मगर पुरखों को अगर कोई फायदा मिला है, तो उसे बच्चों से तो मत छीनिए। बाप के
पास कभी मुफ्त की रोटी थी,,
तो क्या आज बच्चे के मुँह से निवाला
छीन लेंगे? यह तो सरासर अन्याय है। अगर कुछ करना
है तो यह करिए कि किसी को मुफ्त की न मिले।” कहते-कहते
शीतला का चेहरा कत्थई हो गया।
राम अधार प्रतिकथन में कुछ कहना चाहता था, पर रूपा ने मामले की नजाकत को समझ उसे
चुप रहने का संकेत किया और उसे अपने साथ ले घर लौट आयी।
सियाराम को जब इन बातों का पता चला तो प्रसन्नता से खिल उठे। निशाना
ठीक लगा था।.... अगले ही दिन वे अकेले ही शीतला के घर पधारे।
हाल-चाल के बाद वे सीधे मतलब की बात पर आ गये-“शीतला! देखो, हम लोग हैं एकै खानदान के। बाँभन और
कुकुर एकै जात के होते हैं। पहले एक-दूसरे पर भौंकेंगे, पर बाद को एक हो जावेंगे। आप उस कहारिन
को तो जाइये भूल! समाज में कितनी बदनामी होती है, पता है? वैसे भी अभी आप उसे जाँघों-तले नहीं ले
पाये। औरत को पहले जाँघों तले दबाइये, फिर
देखिये, उसकी जमीन-जायदाद कैसे आपके कदमों में
गिरती है। लेकिन आप तो ठहरे हरिश्चन्दर की औलाद! धर्मराज के औतार! ‘रूपा जी, रूपा जी’ कहते-फिरते हैं उस छिनाल को।”
सियाराम, शीतला से बड़े हैं। भाई का रिष्ता है।
भले ही चचेरे हैं, लेकिन भाई, भाई होता है। समाज में उनका कितना
मान-सम्मान है! ठीक है, थोड़ा भय दिखाते हैं, लेकिन तुलसी बाबा भी तो कह गये हैं- ‘भय बिनु होय न प्रीति!’ शीतला के मन में उथल-पुथल होने लगी।
शीतला के मन की अस्थिरता भांप सियाराम ने दाँव फेंका- ‘‘देखो भाई! हेड मास्टर कह रहा था कि
उन्हें ‘मिड-डे मील’ के लिए एक आदमी की जरूरत है। पाँच सौ
महीना देंगे। जो बनेगा, उसी में खाना भी हो जायेगा। आजकल
साठ-सत्तर बच्चे हैं।.... आप कहो, तो
हम उन्हें आप के लिए कह दें। हमको भी निष्चिन्ती रहेगी कि बच्चों के खाने-पीने का
मामला है, कोई घर का ही आदमी है।......कोई जल्दी
नहीं, षाम तक सोचकर बता देना!’’
अपना पासा फेंक सियाराम चलते बने। शीतला बेचैन हो उठे।.....कल शाम, रूपा से जो बातचीत हुई थी, वही अभी किसी किनारे नहीं लगी, यह एक नयी मुसीबत! लेकिन इस मुसीबत में
लक्ष्मी जी विराजमान है। लक्ष्मी का ध्यान आते ही शीतला की आँख बन्द हो गयी और वे
जैसे ध्यानावस्था में चले गये।... एक स्वप्न दिखा। वे मिड-डे-मील के इंचार्ज
हैं।.... रसोइया तहरी बना रहा है। बच्चे बार-बार पूछ रहे हैं- ‘‘खाना कब मिलेगा चाचा?’’ वे मुस्कुराकर शीघ्र ही मिलने का
आश्वासन देते हैं। सूखा मुँह लिए बच्वे मुस्कुरा देते हैं।......तहरी तैयार हो
गयी। वे उसे परोस रहे हैं। थाली में तहरी पाकर हर बच्चा उन्हें धन्यवाद दे रहा है।
कुछ बच्चों के माँ-बाप, जो अब दुनिया में नहीं हैं, उन्हें स्वर्ग से आशीष दे रहे
हैं।......अपनी एक आँख का कोटर छिपाने के लिए उन्होंने गमछा इस प्रकार से लपेटा है
जैसे गलती से आँख छिप गयी हो।..... आदित्य का बेटा उन्हें काला चश्मा पहना देता
है।....
स्वप्न में चश्मा पहनते ही उनकी आँख खुल गयी। दरवाजे पर दृष्टि गयी-
राम अधार खड़ा है। शीतला को बुलाने रूपा ने भेजा है। उनके मन में उथल-पुथल मचने
लगी। आज ही निर्णय लेना है- वे रूपा का साथ देते हैं या सियाराम का? आदित्य को बसपा का जिलाध्यक्ष बनवाने
में मदद करते हैं, या राम अधार को बन जाने देते हैं? रूपा को लेकर उन्होंने जो सपना बुना है, उसे वे मूर्त रूप देते हैं या नहीं?
प्रेम की लाज
रखते हैं, या मिड डे मील का इंचार्ज बनकर पाँच सौ
रुपये प्रतिमाह कमाते हैं?
‘पाँच सौ महीना’-
मन-ही-मन कहे गये ये तीन शब्द शीतला के
कानों में अटक-से गये। मन में गणित-सी चल पड़ी- साल में छः हजार! पाँच साल में तीस
हजार! तीस हजार रुपयों की कल्पना से उन्हें रोमांच हो आया।
रूपा का साथ उन्हें अच्छा तो लगता है, पर यह साथ-सम्बन्ध तभी मान्य होगा जब वे विवाह-बन्धन में बंध जाएं!
लेकिन विवाह यदि सजातीय न हो, तो
समाज उसे भला कब स्वीकारता है? दुविधा
की देहरी पर मन ठिठक गया- ‘मान लो, विवाह कर लिया,
तो क्या रूपा उनके घर आकर रहेगी? षायद नहीं! उन्हें ही रूपा के घर में
रहना पड़ेगा। वह मेरी पत्नी नहीं, मैं
उसका पति कहलाउंगा! नहीं, नहीं, यह कैसे सम्भव होगा?...... किसी
तरह यदि उसे अपने घर में रहने को राजी भी कर लिया, तो जब वह यहां रहेगी, तो
उसके दबंग भाई भी यहीं डेरा जमाये रहेंगे। घर तो फिर भी ‘घर’ न
बन सकेगा! वह राजनीति का अखाड़ा बन जायेगा।.... रूपा ब्राह्मणी कहलायेगी? कहीं ऐसा न हो कि वे स्वयं कहार कहलाने
लगें? स्वयं को ‘कहार’ कहे जाने की आशंका मात्र से उनकी विवाह की इच्छा मर गयी। थोड़ी देर
में आने को कह शीतला ने राम अधार को वापस कर दिया।
भविष्य के अंधेरे से बचने के लिए वे अतीत के जुगनू तलाशने लगे। रूपा
का अहसान वे भूले नहीं हैं जिसने उनके मन की व्यथा समझी और उसे कुछ सीमा तक बांटा
भी। मन को उससे जो अवलम्ब मिला है, वह
अन्यत्र कहां?.......वे उस घर को भी नहीं भूले, जिसने उन्हें पाला-पोसा! पर, अब उस घर में कोई नहीं रहा। जिसने
उन्हें पाला था- बाँझ थी, मर भी गयी। पति शहर कमाने गया था, आज तक लौटा नहीं। पता नहीं जीवित भी है
कि नहीं? कच्चा घर था, चार-पाँच बरसातों में हीे भूड़ होकर ढह
गया। पड़ोसियों ने उसे घूर बना लिया।..... सियाराम की आंख उसी घूरे पर है। किसी
नौकर को उस पर बसाना चाहते हैं।......घूरे वाली जमीन से उन्हें जैसे मोह हो आया।
वे उसे सियाराम की नजर से बचा लेना चाहते हैं।.... अचानक रूपा याद आयी।
एक पलड़े में
रूपा और दूसरे में धनलक्ष्मी। शीतला कोई पलड़ा नहीं छोड़ना चाहते।.....वे तराजू ही
ले लेना चाहते हैं।
तीसरा पहर था। षीतला अन्यमनस्क थे। घर से निकल पड़े। किधर जाना है, पता नहीं। बस, चल पड़े।... उन्हें स्वयं आश्चर्य हुआ
कि वे कब और कैसे सियाराम के घर के सामने पहुंच गये!
सियाराम कहीं निकलने वाले थे। घर के बाहर ही मिल गये। सियाराम ने
लपककर शीतला को बैठके में ले गये। बातें शुरू हुईं। थोड़ी देर में शरबत-चबेना आ
गया। शीतला ने शरबत पिया। इधर-उधर की बातों के बाद उन्होंने ‘हाँ’ कह दिया। फिर वहां से चल पड़े। वे जैसे ही वहां से चले, उन्हें लगा कि उन्होंने जल्दबाजी की है, पर एक बार फिर से मामले पर गौर करने के
बाद पाया कि उन्होंने ठीक निर्णय लिया है।
कोई आधे घंटे बाद वे रूपा के घर पहुँचे। रूपा ने औपचारिक स्वागत
किया। उसे पता चल गया है कि शीतला सियाराम के हाथों परास्त हो चुके हैं। जाति, प्रेम से बड़ी हो ही गयी? राजनीति को कूटनीति का मुलम्मा बनते
कहां देर लगती है!
रूपा के मन में हाहाकार मचा है। शीतला को वह बहुत कुछ सुनाना चाहती
है- कुछ अकेले में, कुछ सबके सामने, पर मुंह बन्द किये है।.....शिकायत वहाँ
होती है, जहाँ प्रेम हो। प्रेम का पौधा जब
नोक-झोक की हवा से लहराता है, तो
वह अधिक पल्लवित होता है। लेकिन यहां तो प्रेम के पौधे को जाति की आंधी ने भूलंठित
कर दिया। फिर उसे राजनीति का पाला भी मार गया। अब उसका कोई भविष्य नहीं! मुरझाये
हुए पौधे से माली को सहानुभूति भले हो, पर
वह उससे चिपका नहीं रह सकता। जब उसे लगने लगता है कि पौधा पुनः नहीं हरियायेगा, वह न चाहते हुए भी उसे उखाड़ देता है।
रूपा चुप है। शीतला सामने बैठे हैं, पर वह जैसे अकेलेपन से घिरी हो। वह अपने-आप में खोयी है- ‘कोई शिकवा-गिला ही नहींध्वस्ल का
सिलसिला ही नहीं।’
शीतला चुप्पी से डरने लगे। बोले, “रूपा!
तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ?
मैं तुम्हें भी नहीं छोड़ सकता और
सियाराम को भी नहीं!”
रूपा ने शीतला को कुछ ऐसे देखा, जैसे
उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही हो। फिर नीचे देखने लगी। बोली कुछ नहीं। राम अधार
ने कुछ कहना चाहा, पर उसने उसे संकेत से मना कर दिया।... शीतला
की मन में भी उथल-पुथल थी,
पर राम अधार की उपस्थिति के चलते वे
कुछ नहीं कह पाये।... वातावरण जब अधिक उबाऊ हो गया, तो शीतला अपने घर के लिए निकल पड़े।
अगले दिन वे मिड डे मील के इंचार्ज बन गये। षाम को रूपा से मिलने
गये। रूपा ने उन्हें देखकर अनदेखी करनी चाही, पर
कर न सकी। हम वह कार्य प्रयत्नपूर्वक भी नहीं कर पाते, जो अन्तर्मन से नहीं चाहते। बात-चीत
प्रारम्भ हुई। शीतला ने अपनी गलती मानी, लेकिन
रूपा के साथ होने की बात दुहरायी। रामअधार ने इसे समय के साथ चलने वाली रणनीति समझ
स्वीकार कर लिया।
सियाराम ने किन्तु इसे अन्यथा लिया- ‘‘अभी भी सरउ की खुजली नहीं मिटी है! कुछ तगड़ा इलाज करना पड़ेगा।’’
चार-पाँच दिन बीते। जिलाध्यक्ष का नामांकन हुआ। रामअधार जिलाध्यक्ष
बन गये।..... आदित्य जिला मुख्यालय से ही राजधानी चले गये। घर में खबर भिजवा दी- ‘‘वे विभीषण को पालें,
मेघनाद की
चिन्ता न करें।’’
सियाराम कट कर रह गये।
आठ-दस दिन बीते। रामअधार की मोटर-साइकिल पर शीतला बाजार से वापस लौट
रहे थे कि सामने से एक अनियंत्रित ट्रक ने उन्हें कुचल दिया।
शीतला की अंतिम साँसों में अटके ‘‘सियाराम
तुमने ऐसा.....’’ शब्दों को किसी ने नहीं सुना। राम अधार
ने भी नहीं। वह भी तो खाई में बेहोश पड़ा था।
रूपा खुलकर रो भी नहीं पा रही थी।....
(‘निष्कर्ष’ में प्रकाशित, २०१०)
कल्पवास
‘‘अरे हंसा! ई पांच लीटर तेल कित्ती देर
चली? जब दिन भर जनरेटर चलना है तो काहे नहीं
बीस लीटर एकै साथ डालता!’’
हंसा को जनरेटर में डीजल टोटियाते देख
बैंक-बाबू इलाही ने कहा। इलाही हाल ही में भर्ती हुआ था और घाघ किस्म के बाबुओं का
छोड़ा हुआ कार्य निपटाने बैंक जल्दी आ जाता था।
हंसा की खिसियानी हंसी निकल पड़ी, बोला-
‘‘हमार बस चलै तो हम बीस का, चालीस डाल देई, लेकिन मिलै तो!..’’ उसने जनरेटर चला दिया। सबेरे के साढ़े
आठ बज रहे थे। अभी उसे बैंकिंग हाल, षाखा
प्रबन्धक के चैम्बर और सिस्टम रूम की सफाई करनी थी। सभी जगह झाडू-पोंछा और टायलेट
की धुलाई करते-करते साढे़ नौ तो बजते ही थे। तब तक फील्ड आफिसर, एकाउंटैंट, सिस्टम इंचार्ज और एकाध बाबुओं का आगमन
षुरू हो जाता। षाखा प्रबन्धक तो खैर, आराम
से दस-साढ़े-दस तक आते थे।
हंसा, यानी पचीस वर्शीय नाइन्थ फेल हंसराज
जाटव, यानी पंडितजी का घरेलू नौकर! पंडितजी, अर्थात् पचास वर्शीय पं0 हरिप्रसाद तिवारी, जिनकी बिल्डिंग में बैंक था और उन्हीं
का जनरेटर किराये पर चलता था। जितने रुपये महीने किराया मिलता था, उतने का ही डीजल लग जाता था, दो-ढाई हजार महीना मेंटिनेंस और हजार
रुपये हंसा का वेतन उनकी जेब से जाता था। यह बिल्कुल घाटे का सौदा था, लेकिन बिल्डिंग के किराये से घाटा पूरा
होता था। हालांकि बिल्डिंग का किराया भी कुछ खास न था- पन्द्रह हजार महीना, लेकिन नफा-नुकसान से महत्वपूर्ण
प्रतिश्ठा का प्रश्न था- उनकी बिल्डिंग में कोई दूसरा कैसे जनरेटर लगा सकता था?
हंसा के परिवार में दो प्राणी और थे। पांच वर्षीय बेटी- मुन्नी, और इजाज के अभाव में दमा से जूझती मां!
हंसा को नौकरी से ही फुरसत न थी। वह इसे पंडितजी की कम, बैंक की अधिक समझता था। मन में कहीं आस
पल रही थी कि एक दिन, लालमन की तरह वह भी बैंक में रेगुलर हो
जायेगा। इसलिए वह शाखा प्रबन्धक, फील्ड
आफिसर, एकाउंटैंट, सिस्टम इंजार्ज सहित हर स्टाफ की चाकरी
बजाने दौड़ता रहता था।
लालमन ब्रांच का स्थायी सफाई कर्मचारी था, लेकिन सफाई का कार्य वह हंसा से ही
लेता था। इसके बदले वह उसे पांच सौ रुपये प्रति माह देता था। लालमन से पहले उसके
पड़ोस के गांव के प्रदीप मिश्रा सफाई कर्मचारी थे, लेकिन प्रमोशन पाकर पड़ोस की एक ब्रांच में बाबू हो गये थे। हंसा से
सफाई करवाने की नींव उन्होंने डाली थी।
जब लालमन की भर्ती हुई तो हंसा को लगा कि अब सफाई के काम से उसे
फुरसत मिल जायेगी, क्योंकि लालमन स्वीपर बिरादरी के थे और
वह जाटव! इस लिहाज से वह लालमन से ऊँची जाति का था। लेकिन धन की देवी लक्ष्मी ने
सामाजिक सोपान बदल दिये थे। यहां मनु महाराज की नीति काम न आ रही थी- एक दलित
दूसरे दलित का शोषण कर रहा था।.... धन निर्धन का शोषण कर रहा था।.... बड़ी मछली
छोटी को खा रही थी।
बहरहाल, हजार रुपये पंडितजी से, पांच सौ लालमन से और दो-ढाई सौ स्टाफ
की टिप्स- कुल मिलाकर महीने में सत्रह-साढ़े सत्रह सौ रुपये हंसा के हाथ में आ
जाते थे। बंधे-बंधाये पौने दो हजार रुपये
महीने कम न थे- पर इनमें से चार-पांच सौ
तो वह दारू और बीड़ी को भेंट कर देता।..... पहले वह कभी-कभार होली-दीवाली में
चोरी-चुपके दारू पी लेता था,
लेकिन जब से फील्ड आफिसर ने हफ्ते में
दो बार ब्रांच की कैंटीन में शाम पांच बजे से दारू पार्टी आयोजित करनी षुरू की-
जिसका इंतजाम हंसा के जिम्मे था, तब
से वह भी बोतल में बची हुई व्हिस्की का मजा तीसरे-चैथे लेने लगा। मसालेदार देसी के
मुकाबले यह बहुत हल्की थी,
इसलिए हल्कापन दूर करने के लिए वह
जल्द-ही मधुशाला का परमानेंट ग्राहक बन गया।
बारह सौ रुपये पत्नी के हाथों सौंप वह घरेलू जिम्मेदारियों से मुक्त
हो जाता। हर महीने ‘सैलरी डे’ पर पत्नी झल्लाती- ‘‘तुम यहां क्या सोने आते हो? यह भी बन्द कर दो, तो कौन सा काम तुम्हारे बिना रुक
जायेगा? पांच-छः सौ तो मैं भी दूसरों के घर
मर-मर कमा लेती हूं।’’ जब गुस्सा ठंडाता, तो कहती, ‘‘तुम यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते?... ऐसी नौकरी से क्या फायदा कि घर से दूर भी रहो और भूखे भी मरो!’’
हंसा चुपचाप सुन लेता। सुनने की तो जैसे उसे आदत पड़ गयी हो- घर हो
या बैंक। हर जगह, उसे दूसरी की सुनने का काम था। सवेरे
ही, वह घर से निकल पड़ता।... पत्नी और मां
अवष देखती रह जातीं।...
कभी-कभी वह भी भावुक हो उठता- वह भी मुन्नी के साथ खेले, उससे खूब बातें करे! कितने दिन हो गये
उसे दौड़ते-भागते देखे!.....अम्मा की सेवा तो जैसे उसके भाग्य में है ही
नहीं!....पत्नी का मुस्कुराता चेहरा आंखों में तैरने लगता.... जब ब्याहकर आयी थी, तो बिल्कुल हिरवाइन लगती थी- सांवला
रंग, लेकिन चेहरे पर बड़ी-बड़ी मुस्कुराती
आंखें, गुलाब की पंखुडि़यों जैसे पतले-पतले
होंठ और भरे-भरे गाल! जब हंसती तो गालों में गड्ढे पड़ जाते- बिल्कुल षर्मीला
टैगोर की तरह! बस्ती में कोई भी ऐसी नक्ष-नैन वाली बहू न थी। सास को कितना नाज था
बहू पर- आते ही घर संभाल लिया! बड़ो का लिहाज और छोटों से प्यार! कितनों की तो
नजरें उसे चोरी-चोरी देखती रहतीं और सौन्दर्य-रस पीती रहतीं। कुछ नजरें तो उस पर
घात भी लगाये रहतीं, पर मजाल कि कोई ऐसी-वैसी बात हो
जाए!...... लेकिन आज उसकी हिरवाइन उलझे बालों वाली काली-कलूटी लगती है। चेहरे की
लुनाई न जाने कहां गायब हो गयी? हाथ-पांव
बिल्कुल खरहरा हो गये।.....गरीबी ने सारा आब सोख लिया!
शाखा में कोई चपरासी न था। लालमन से चपरासी का कार्य लिया जाता।
स्वीपर जाति के होने के कारण लोग उसके हाथ का पानी पीना टाल देते थे। यह सेवा भी
हंसा को सम्पन्न करनी पड़ती था। इसके अलावा, लालमन
कक्षा पांच तक ही षिक्षित था। अंगे्रजी उसे छू तक नहीं गयी थी, इसलिए वाउचर छंटवाने, अनस्कैंड सिग्नेचर कार्ड निकलवाने आदि
में भी हंसा को उसकी मदद करनी पड़ती। लालमन यह मदद आदेष देकर लिया करता। इसके लिए
वह हंसा को दूसरे-तीसरे पांच-दस रुपये भी देता। सात हजार तीन सौ प्रति माह वेतन
पाने वाले लालमन के लिए पांच-छः सौ की राषि कोई खास न थी, जबकि हंसा के लिए वह आधी तनख्वाह थी।
नौकरी चीज ही ऐसी होती है। शुरू-शुरू में स्वाभिमान को ठेस पहुंचने
पर कष्ट होता है, किन्तु कष्ट के बदले जब हर महीने
बंधी-बंधाई रकम मिलने लगती है, तो
स्वाभिमान को तिल-तिल मारना तथा दूसरों का शोषण
करना जीवन का अभीष्ट बन जाता है। कैसी विडम्बना है- लक्ष्मी ही हमसे
मनुष्यता छीनती है, फिर भी हम लक्ष्मी की कृपा पाने को
क्या-क्या नहीं करते?
हंसा भी जीवन की इस विडम्बना का स्थाई आनन्द लेना चाहता था।
सोते-जागते उसकी आंखों में एक ही स्वप्न पलता- एक दिन वह बैंक में नौकर हो जायेगा।
फिर सारा दुख-दारिद्रय छू-मन्तर हो जायेगा। वही पत्नी, जो उससे ठीक से बात नहीं करती, उसके लिए पलक-पांवड़े विछाये रहेगी।
अम्मा भी अपने बेटे पर नाज करेंगी। बेटी भी अच्छे स्कूल में पढ़ेगी।..... .नदी से
दूर बस्ती से सटा उसका अपना पक्का घर होगा जिसमें लैटरीन भी होगी- पत्नी और अम्मा
को बाहर जाने की जरूरत न रहेगी!
पिछले तीन वर्षों से हंसा की यही दिनचर्या थी कि वह सवेरे सात बजे घर
से निकल लेता और रात को नौ बजे तक पहुंचता। हल्के-फुल्के बुखार में भी वह नागा न
करता। पिछले साल उसे अवश्य आठ-दस दिनों तक घर पर रहना पड़ा था, जब एक सियार ने उसके एक पैर की पिंडली
का अच्छा-खासा मांस उड़ा ले उड़ा था। अंधेरी रात में करीब नौ बजे जब वह साइकिल से
रेंगते हुए घर लौट रहा था कि दाहिने पैर के पास किसी की आहट हुई। उस समय उसके पास
टार्च भी नहीं थी। लगा कि कोई जानवर है। वह ‘धत्-धत्’ करता रह गया और सियार ने अपना काम दिखा
दिया।
साइकिल से घड़मड़ाकर वह गिर पडा। लंगड़ाते-लंगड़ाते किसी तरह घर
पहुंचा।...... साबुन से घाव धोकर उसने कडुआ तेल लगाया, पर दर्द के मारे वह रात भर कराहता रहा।
सवेरे अस्पताल जाकर एंटी रैबीज का इंजेक्षन लगवाया। मरहम-पट्टी करायी। फिर घर पर
आराम! अगले दिन फिर इंजेक्षन!..... घाव अभी सूखा न था, लेकिन जैसे ही हंसा तनिक चलने-फिरने
लायक हुआ, वह बैंक में हाजिर था। मन में कहीं डर
बैठा हुआ था- किसी और को न रख लिया जाए!
पैर के घाव के कारण हंसा जब बिस्तर पर था तो पत्नी बड़े प्यार से
समझाती- ‘‘यह नौकरी अब तुम छोड़ दो। क्या होता है
हजार रुपल्ली में! मैं भी दूसरों के यहां कहां तक रोज-रोज खटूं? और मिलता भी क्या है- मुष्किल से
पन्द्रह-बीस रुपये या सेर-दो-सेर अनाज! अब तुम यहीं कोई काम-काज ढूूढ़ो। न हो, तो कोई छोटी-मोटी दुकान ही खोल
लो!......सहुआइन के ठाठ नहीं देखते। साहू के मरने के बाद उसने क्या किया? परचून की दूकान खोली। जब देखो, भीड़ लगी रहती है। साहू तो बस नाम के
ही साहू रहे- जिन्दगी भर भगत बने रहे। भजन-कीर्तन करते रहे। अरे, इससे कहीं घर चलता है? अच्छा ही हुआ कि घर की दीवार ढहने से
वे चल बसे और दीवार में गड़ी मोहरे सहुआइन को दे गये।......तुम भी दुकान खोल लो-
बैंक से लोन ले लो, नहीं तो हमारी हंसुली-करधनी बेच दो।
यहां रहोगे, तो मुन्नी और अम्मा की देखभाल तो हो
पायेगी। मुन्नी स्कूल जाने की जिद करती है, लेकिन
नदी-पार उसे कैसे भेजूं? अम्मा की दवाई भी अब डाक्टर हाल बताने
पर नहीं देता, कहता है- मरीज को लेकर आओ!..... लेकिन
तुम तो कुछ सुनते ही नहीं! और कितनी रामायन बांचूं?’’
हंसा ने थोड़ा प्रतिवाद किया- ‘‘सहुआइन
की बात तो तुम करो नहीं। वह ठहरी जवान विधवा! दुकान भी गांव के बीचोबीच! जितने
ग्राहक आते हैं, उनसे ज्यादा उसके रसिया!.... हम यहां
दुकान खोल भी लें, तो वह कौन-सी चलने वाली है? यहां कौन खरीदार बैठा है? सहुआइन की दुकान छोड़ गांव-वाले यहां
सौदा लेने आयेगे? हां, तुम सहुआइन की तरह दुकान चलाओ, तो
और बात है!’’
पत्नी लजाकर बोली- ‘‘धत्!’’ फिर उसने कहा- ‘‘ठीक है, तुम खोलकर तो देखो, न
चलेगी तो तिराहे पर रख लेना। वहां तो पान-बीड़ी की तो दो-तीन गुमटियां हैं।’’
‘‘वहां चोरी करवाने के लिए दुकान रखूं। दिन में तो लोग मौका चूकते नहीं, रात की तो बात ही क्या!’’ हंसा ने प्रस्ताव खारिज करते हुए कहा।
‘‘लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना पड़ेगा! इस तरह कब तक चलेगा?’‘ पल-भर बाद उसकी आंखें चमक उठीं, बोली, ‘‘तुम यह भी कर सकते हो कि सवेरे सामान ले जाओ और षाम को वापस ले आओ।’’ पत्नी की यह बात हंसा को कुछ ठीक लगी, पर चुपचाप लेटा रहा। पत्नी ने जब दुकान
वाली बात पर जोर दिया, तो उसने लेटे-लेटे ही ‘हां-हूं’ की और फिर घर से निकल पड़ा। वह बड़बड़ाती रह गयी।.....ऐसा नहीं कि
उसने मामले पर गंभीरता से विचार न किया हो, लेकिन
पंडितजी की नौकरी छोड़ते न बनती थी। बार-बार यही विचार आता कि एक-न-एक दिन वह बैंक
में रेगुलर हो जायेगा।
पंडितजी ने शाखा प्रबन्धक से हंसा की सिफारिष उसके सामने ही कर दी
थी। भोले हंसा को क्या पता कि सिफारिष दिखाने-भर को थी, अन्दर से तो वे यही चाहते थे कि वह
उनका घरेलू नौकर बना रहे।
पंडितजी क्षेत्र के प्रतिष्ठित और जमीन-जायदाद वाले आदमी थे। सीलिंग
कानून के बावजूद वे तीस एकड़ से भी अधिक भूमि के स्वामी थे। पंपिंग सेट, आटा चक्की, धान मशीन आदि के वे थोक व फुटकर
विक्रता थे। फर्टिलाइजर, पेस्टीसाइट्स आदि की दुकान थी। सारा
कारोबार उनके दोमंजिला कोठी के निचले हिस्से में बनी दो दुकानों में चलता था। व्यापारिक
बुद्धि के साथ वे दुनियादार भी थे- मेहमानों की खातिर में वे जहां कोई कसर न उठा
रखते, वहीं गरीबों के शोषण में भी कोई परहेज न करते।
कभी-कभी उन्हें अपराध-बोध होता, पर
इसका उपचार वे किसी धार्मिक आयोजन से करते अथवा होली-दीवाली गरीबों को पूड़ी-आलू
अथवा चार लड्डुओं के पैकेट बांटकर किया करते थे। इन आयोजनों के पीछे उनका
निःसन्तान होना भी एक कारण था। पंडिताइन की सलाह पर वे पुण्य कमाने का कोई अवसर
हाथ से नहीं जाने देते थे। हर साल रामनवमी को ‘श्रीरामचरित
मानस’ का धुंवाधार अखण्ड पाठ होता। दो-तीन
सालों में श्रीमद्भागवत का सांगीतिक पाठ भी रखवाते जिसमें चढ़ावे की राषि का
आधा-आधा तय रहता। कथावाचक को इसमें कोई आपत्ति न होती, क्योंकि उनके यहां चढ़ावा जमकर आता था-
सौ-डेढ़-सौ आदमी तो सौ के नोट से नीचे चढ़ाते ही न थे। डेढ़-दो-सौ लोग बीस से पचास
तक। रामायण के आयोजन का खर्च वे भागवत से निकाल लेते, पुण्य की कमाई घाते में!
हंसा उनकी भक्ति-भावना का कायल था। अपने शोषण के बावजूद वह पंडितजी
की बड़ाई ही करता। उनके विरुद्ध कुछ कहने का तो सवाल ही न था, वह कुछ सुनने को भी तैयार न होता। ऐसे
स्वामिभक्त सेवक आसानी से मिलते कहां हैं! मिल भी जाएं, तो टिकते कहां हैं? इस कारण तीज-त्योहार सौ-पचास रुपये
इनाम के साथ-साथ पहनने लायक पुराने कपड़े भी हंसा की गोद में गिरने लगे। हंसा की
स्वामिभक्ति और भी निखरने लगी।
इस बार माघ के महीने में कुंभ का योग था। पंडितजी न केवल कुंभ में
गंगास्नान करना चाहते थे, बल्कि महीने भर ‘रामनगरिया’ में कल्पवास भी करना चाहते थे। उनके
साले साहब इस मामले में पर्याप्त अनुभवी थे। वे प्रत्येक वर्श माघ-भर में गंगा
किनारे बसायी गयी ‘रामनगरिया’ में कल्पवास किया करते थे। इसी कल्पवास
के सहारे वे अपनी बहू को जलाने के बावजूद जेल जाने से बचे थे। गंगा मैया ने सारे
पाप धुल दिये थे। पंडितजी अपने साले को बहुत पसन्द नहीं करते थे, पर पंडिताइन के जोर देने पर उन्होंने
साले के साथ कल्पवास के लिए निकल पड़े!
ठंड खूब पड़ रही है, पर
हंसा के पास मतलब-भर का ओढ़ना-बिछौना है। रात में जाड़ा जब ज्यादा दिक करता है, तो वह बीड़ी पीना षुरू कर देता है। दिन
में पहनने को एक स्वेटर है। अब उसे घर वालों की चिन्ता है। पत्नी के पास एक स्वेटर
है- उसी से उसका जाड़ा कटेगा। षाल है, लेकिन
वो कभी-कभार ही ओढ़ती हैं,
कहती है- ‘‘रोज ओढ़ेंगे, तो फट नहीं जायेगी! फिर कहीं आने-जाने
में क्या ओढ़ेंगे?’’ मां के पास बस एक सलूका है- वह भी
पांच-छः साल पुराना। दिन-रात हने रहती है- चीलर पड़ गये हैं, लेकिन जब कभी उसे धुलने की बात करो, तो कहती है, ‘‘अरे! रह्यौ द्यो, चीलरौ रहिहैं और हमहूं रहब।’’ बदबू तो उसे लगती ही नहीं- भले ही दूसरा
उसके पास बैठने से कतराता हो। मुन्नी तो बदबू के मारे उसके पास जाती ही नहीं, वरना वह दादी के पास ही सोती थी। गनीमत
है कि पत्नी ने लड़-झगड़कर पिछले साल एक बड़ी रजाई भरवा ली जिसे तीन लोग आराम से
ओढ़ सकते हैं।
दो दिनों से शीत-लहर चल रही है। घर से खबर आयी है कि ठंड से अम्मा की
तबीयत बिगड़ गयी है। डाक्टर ने भर्ती कराने को कहा है। हंसा ने पंडिताइन से दो सौ
रुपये लेकर घर भिजवा दिये हैं, लेकिन
उसका मन नहीं लग रहा- न बैंक में, न
पंडितजी के यहां! रात को जरा-सी झपकी आयी कि उसे भयानक सपना आया- अम्मा कहीं जा
रही हैं। उनकी बिदाई हो रही है।.....सभी लोग रो रहे हैं। अकेली अम्मा ही खुष हैं।
कुछ बोल तो रही हैं, लेकिन सुनाई कुछ नहीं पड़
रहा।.....हंसा के मुंह से भी आवाज ही नहीं निकल रही।.....रोती हुई पत्नी उससे
लिपटने को थी कि उसकी आंख खुल गयी! सपने के फलितार्थ की आशंका ने आंखों की नींद हर
ली।
सवेरे पंडितजी की गाय की सानी-पानी की। फिर उसे दुहकर घर पहुंचा। मां
अचेत पड़ी थी। कहने-भर को जीवित थी- सांस चलने की धीमी खरखराहट सुनाई देती थी।
हाथ-पांव बिल्कुल ठंडे। आंखें डूबीं-सी। हंसा को देख उनमें जरा-सी चमक आयी, लेकिन हंसा को छोड़ इसे कोई देख न
पाया। पत्नी ने मां को जीप से अस्पताल ले जाने को कहां, पर पड़ोसियों ने डॉक्टर को यही लाने की
सलाह दी। हंसा को भी यही ठीक लगा।....
डॉक्टर आया। दो इंजेक्शन लगाये, कुछ
दवाइयां लिखीं और सौ रुपये लेकर चलता बना।.....चार-पांच दिन कट गये। हंसा की जान
में जान आयी।.....गरीबों का तजुर्बा है कि अगर बूढ़ों का जाड़ा सही-सलामत कट गया, तो समझो उन्हें साल-भर की जिन्दगी मिल
गयी! पति-पत्नी, दोनों को आषा बंध गयी है, अम्मा अब बच जायेंगी।
आज कुछ धूप
निकली है। पछुआ का उत्पात भी कम है। बूढ़ा को थोड़ा आराम मिला- ढाई-तीन बजे आंखें
खोलीं। गरम-गरम खिचड़ी खायी तो चेहरे से मुर्दनी छंट गयी।.....घंटे भर बाद हंसा
बैंक के लिए चलने को हुआ। पत्नी ने रोकने की कोशिष की, पर हंसा नहीं माना।
शाम सात बजे वह बैंक से पंडितजी के यहां आ गया। यहां गौ माता की
सानी-पानी बड़ी बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। रात में भी गाय की रखवाली
करने का काम भी उसी के जिम्मे था। हालांकि जब पंडितजी घर में रहते थे, तो गाय की देखभाल मुंशी के जिम्मे था।
लेकिन आजकल मुंशी तो जैसे हंसा का मालिक बन गया हो। बात-बात पर फरमान जारी करता
है- ‘‘ये करो, वो करो!’’ पंडिताइन भी उसी के सुर में सुर मिलाती
हैं।
मां की दवाइयां उसने कस्बे में आते ही ले लीं, पर अब उन्हें भिजवाने की चिन्ता थी। वह
वापस घर जाने की सोच रहा था कि उसके पड़ोस के गांव के एक सज्जन दिख गये। दौड़कर
उन्हें दवाइयों का लिफाफा पकड़ाया। उनके पैर छूते हुए निवेदन किया कि यह लिफाफा आज
ही उसके घर पहंुचा दें। उन सज्जन ने, ‘‘ठीक
है’’, कहकर लिफाफा ले लिया। हंसा निष्चिंत हो
गया। फिर, पता नहीं किस धुन में वह षराब की दुकान
पर पहुंच गया और कब उसने दो मसालेदार पाउच कड़वी दालमोठ के साथ गटक लिये- पता ही
नहीं चला!
उधर, जिन सज्जन के हाथ उसने मां की दवाई
भिजवायी थी, वे भी पियक्कड़ निकले। मधुपान से
निवृत्त होते-होते उन्हें खासी देर हो गयी। आधे रास्ते में साइकिल भी खराब हो गयी।
अपने ही गांव पहुंचते-पहुंचते उन्हें नौ बज गया- हंसा का गांव तो एक किमी. और आगे
था। सोचा, सबेरे दवाइयां पहुंचा देंगे और
पहुंचाया भी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
पंडितजी की गौमाता का नित्यकर्म करवा हंसा जब घर पहुंचा, तो लाष को बिस्तर से उठाकर जमीन पर रखा
जा रहा था। हंसा की आंखों में यह दृष्य जैसे अटक गया। उसकी समझ में न आ रहा था कि
वह क्या करे! थोड़ी देर में पड़ोस के गिरधारी काका ने उसके कंधे पर हाथ रखा- ‘‘धीरज से काम लो बेटा! यह तो एक दिन सभी
के साथ होना है। जो आया है,
सो जायेगा! अब कफन-दफन का इंतजाम करो।’’
सास की मृत देह से लिपटी रो रही हंसा की पत्नी उसे देख जोर-जोर से
रोने लगी।.....एक स्त्री ने उठकर उसे संभाला। अब हंसा की रुलाई भी फूट पड़ी। वह
बच्चों की तरह धाड़ मारकर रोने लगा।....पड़ोसी कफन लेने चले गये। जब वे लौटे, टिकठी तैयार थी। कंधों पर ही लाष को
मुर्दनिया घाट ले जाकर नदी में विसर्जित कर दिया गया। हंसा ने नाम-मात्र को कंधा
दिया। उसे जैसे कुछ होश न था, मूक
दर्शक बना हुआ था।
हंसा की मां के न रहने की खबर पंडितजी के घर पहुंच गयी। अब वह दस
दिनों तक न आयेगा। पंडिताइन को गाय की चिन्ता थी। मुंषी ने दूध तो निकाल दिया, बाकी काम पड़ा हुआ था। पंडितजी को लेने
जीप जा चुकी थी- आज शाम तक वे आ जायेंगे!
मां को मरे आज पांचवा ही दिन था कि हंसा बैंक में हाजिर था। इलाही
सहित स्टाफ के कई लोगों ने उसे डांटा कि बैंक आने की क्या जरूरत थी? क्या बैंक उसके बिना बन्द हो जायेगा? हंसा को खबर मिली थी कि बड़े साहब का
ट्रांसफर हो गया है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। वे खुद ही यहां से जल्द
जाना चाहते हैं। उनकी जगह कोई शुक्लाजी आने वाले हैं।
जब हंसा का इंटरव्यू हुआ, तब
नये साहब ने चार्ज संभाला ही था। उन्होंने हंसा को दिलासा दिलायी कि वे सिफारिष कर
देंगे। हंसा आश्वस्त था, पर परिणाम निराशाजनक निकला। किसी कश्यप
की नियुक्ति हो गयी। बाद में पता चला कि वह रीजनल आफिस में किसी बाबू का रिश्तेदार
है।
बैंक में नौकरी न लगने से हंसा विक्षिप्त-सा हो गया। बैंक में उसके लायक अब कोई काम नहीं। लालमन की
नौकरी वह करे भी तो किसलिए?
पंडितजी की नौकरी बेगार लगने लगी। वह
तो बैंक से बंधी थी।...जब मूल ही टूट गया, तो
शाखा में क्या धरा है?
पंडितजी के कल्पवास से आने के बाद हंसा जब उनसे मिला था, तो उसकी मां की मृत्यु का समाचार सुन
उनकी आंखों में कोई संवेदना न दिखी। उल्टे पंडिताइन की शिकायत पर उन्होंने हंसा को
डांट पिलायी कि उसने घर का काम ठीक से
क्यों नहीं किया? गाय की सानी-पानी तक दूसरों के नौकर से करानी पड़ी थी!
हंसा चुपचाप पंडितजी की डांट खा रहा था, लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि
कल्पवास पंडितजी का हुआ था या उसका! मन की व्यथा मन में लिए वह पंडितजी के घर से
निकल पड़ा।
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सॉरी पापा!
कान्स्टेबिल, रंजीत सिंह ने अपने बेटे का नाम अमिताभ
रखा। वे अमिताभ बच्चन के फैन थे। उनकी एंग्री एंगमैन वाली फिल्में, जैसे- जंजीर, दीवार, त्रिशूल, लावारिस, काला पत्थर वे कई बार देख चुके थे। अमिताभ ही की तरह वे अपने बेटे को
सुष्ठु, निडर और सफल जीवन जीने वाला वास्तविक
नायक बनाना चाहते थे।
बेटे के जन्म के एक वर्ष के भीतर ही वे पदोन्नत होकर सब-इन्स्पेक्टर
हो गये थे। इससे वे और उनकी पत्नी, दोनों
ही बेटे को अमिताभ जैसा भाग्यशाली भी मानने लगे थे। जिस तरह अमिताभ बच्चन को शार्ट
में ‘अमित’ कहा जाने लगा,
उसी प्रकार रंजीत दम्पत्ति भी बेटे को
अमित कहकर पुकारने लगे।
रंजीत ने इंटर तक रेगुलर पढ़ाई की थी। बी.एस-सी. में नाम लिखाया ही
था कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। वे भी सब इन्स्पेक्टर थे। नौकरी में रहते
उनकी मृत्यु होने के कारण रंजीत को अनुकम्पा के आधार पर कान्स्टेबिल की नौकरी मिल
गयी थी। वे कान्स्टेबिल की नौकरी नहीं करना चाहते थे, लेकिन बी.एस-सी. करने के बाद भी कौन सी
नौकरी धरी थी? इस प्रष्न पर सम्यक् विचार करने के बाद
उन्होंने नौकरी ज्वाइन कर ली। अच्छे कार्य और आचरण के कारण जल्द-ही उनका प्रमोषन
हो गया था। एस.आई. बनते ही वे समाज में सम्मान पाने के अधिकारी हो गये थे। रंजीत
वही थे, लेकिन जब तक वे कांस्टेबिल थे, लोगों की नजरों में उनका कोई स्थान न
था। यह कैसी लोकदृष्टि है जो मनुष्य की प्रतिष्ठा उसके पद और धन से मापती है- उसके
गुणों से नहीं!
नौकरी चाहे जैसी हो, लेकिन
जब बंधी-बंधाई मासिक आमदनी से घर संवरने लगता है, तो पड़ोसी-रिष्तेदार उससे ईर्ष्या करना शुरू कर देते हैं।..... रंजीत
इस ईर्ष्या का आनन्द उठाते और अपनी पत्नी के साथ अमित के आई.ए.एस., आई.पी.एस. या पी.सी.एस होने स्वप्न
संजोते। लेकिन इस स्वप्न को पूरा करने के लिए अमित को लखनउ जैसे महानगर में रहकर
पढ़ाई करना आवष्यक था। अभी वे लखनउ से करीब सौ किमी. दूर गोंडा में पोस्टेड थे।
अमित वहीं आठवीं में था। कहने को वह अंग्रेजी मीडियम स्कूल था, लेकिन जैसा कि कस्बाई स्कूल हुआ करते
हैं- न ही ‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ की भांति कट्टर हिन्दी मीडियम और न ही ‘सेंट फ्रांसिस’ की तरह प्योर इंग्लिष मीडियम, बल्कि मिला-जुला वह मीडियम जो हिन्दी
में होते हुए भी अंग्रेजी का तरफदार था। ऐसे ही स्कूल में अमित स्कूल में फ़स्र्ट
आया था।
लखनउ में अपनी पोस्टिंग मैनेज करने की जोड़-तोड़ कर रंजीत हार चुके
थे। दो लाख रिश्वत देकर पोस्टिंग की संभावना थी, पर वह भी गारंटीड नहीं। यक्षप्रश्न यह था कि दो लाख रुपये कहां से
आएं?
पुलिस में होने और पत्नी के लाख चाहने के बावजूद रंजीत को रिश्वत से
परहेज था। दोस्तों-रिश्तेदारों से उधार आदि से व्यवस्था कर भी लें, तो क्या जरूरी है कि पोस्टिंग हो ही
जाएगी। ऐसे में उधार लेकर रिश्वत देने का रिस्क कौन उठाये? इसलिए खूब सोच-विचार यह तय पाया गया कि
बेटे को लखनऊ में किसी हॉस्टल वाले स्कूल में डाल दिया जाय और उसी तंगी से खर्च
चलाया जाए जैसे लखनऊ में पोस्टिंग के लिए रिश्वत की उधारी चुकायी जा रही हो!
श्रीमती रंजीत के दो-चार दिन रोने-धोने के बाद मास्टर अमित का दाखिला
‘काल्विन तालुकदार्स कालेज’ में नाइन्थ में हॉस्टलर के रूप में करा
दिया गया। पहले तो अमित बहुत खुष हुआ कि वह लखनऊ में रहेगा, लेकिन जब हॉस्टल के डिस्पिलिन से
परिचित हुआ, तो दिनचर्या से बोर हो गयाः
सवेरे छः बजे उठना, फ्रेष
होना, ग्राउंड में एसेम्बल होना, मार्निंग वाक करना और साढ़े सात बजे तक
नाश्ता करके पौने आठ तक असेम्बली हाल में एकट्ठा होना। वहां प्रेयर के बाद आठ से
एक बजे तक के क्लासेज। फिर डेढ़ बजे से ढाई बजे तकं लंच और डेढ़-दो घंटे आराम के
बाद पांच से सात बजे तक आउट-डोर या इन-डोर
गेम्स! सात बजे हल्के नाष्ते के साथ चाय! उसके बाद होमवर्क और छूटा हुआ कार्य या
रिवीजन! सिर चकरा देने वाले अलजे़ब्रा और साइन्स के फारमूले और सोशल साइन्स की
रट्टा मार पढ़ाई! साढ़े आठ बजे- रात का खाना और फिर पढ़ाई! इसी बीच टी.वी. पर
न्यूज वगैरह। ग्यारह बजे बत्तियां बन्द- गो टू बेड! सवेरे छः बजे से फिर वही चकरी!
अमित के गोंडा वाले दोस्तों में से यहां एक भी न था। वहां छोटी जगह
में वह सभी का चहेता था। यहां उसको कोई पूछने वाला नहीं!..... यहां वालों के लिए
वह जैसे पिछड़ा था। साथी बच्चों के मां-बाप या तो बिजनेसमेन थे या फिर मंझोले
सरकारी अधिकारी।..... उनकी नजरों में उसके पिता की कोई हैसियत न थी। गोंडा से लखनऊ
आते-आते उनकी हैसियत कहां खो गयी? यह
अमित की समझ से बाहर था।
यह नया समाजशास्त्र था जिससे उसका परिचय अभी-अभी हुआ था। यह ऐसा विषय
था कि जिसका विद्यार्थी भी वही था और शिक्षक भी वही! बस, अध्याय बदलते रहते थे। नये-नये
अध्यायों के नियमित पाठ से अमित इतना तो समझ गया था कि उसके क्लासमेटों के पिताओं
के आगे रंजीत की कोई हैसियत न थी। एस.आई. जैसी मामूली नौकरी कर वे किसी तरह अपना
घर चलाने वाले जीव थे। ऐसे जीवों की कोई हैसियत नहीं होती, जबकि यह स्कूल ही हैसियतवालों के
बच्चों के लिए खोला गया था।
आजादी के इतने सालों बाद अब जबकि समय बदल चुका था और सरकारी तौर पर
कोई तालुकदार न रह गया था,
फिर भी स्वाधीन भारत के लोकतंत्र में
तंत्र की भूमिका निभाने वाले लोगों ने ही पुराने तालुकदारों की भूमिका हथिया ली
थी।.....अमित किसी तालुकदार का बेटा न था, इसलिए
उसे अपने तथाकथित पिछड़ेपन के साथ ही अपने क्लासमेटों और हाॅस्टलरों के साथ रहने
की मजबूरी थी।
दूसरी समस्या अंग्रेजी मीडियम से पढ़ाई की थी। गोंडा में विषय का पाठ
ही अंग्रेजी में पढ़ाया जाता था- वह भी थोड़ी-बहुत हिन्दी के साथ, पर यहां तो क्लास में कोई हिन्दी बोलता
ही नहीं!........एक बार उसने क्लास में हिन्दी में कुछ पूछ लिया, तो टीचर ने ऐसा लताड़ा कि दुबारा किसी
प्रष्न को पूछने की उसकी हिम्मत ही न पड़ी। किसी विषय से सम्बन्धित सामान्य
जिज्ञासा भी वह टीचर के सामने न रख पाता। जब तक वह अपने सवाल को अंगे्रेजी में
ट्रांसलेट कर टीचर के सामने रख पाता, तब
तक वे ‘ओ.के.’ कहकर आगे बढ़ जाते।..... परिणाम यह हुआ कि वह क्लास में पिछड़ने लगा।
तिमाही परीक्षा में उसके बावन परसेंट नम्बर ही आ सके, जबकि तक उसके नब्बे-पच्चानबे प्रतिशत
आते रहे थे। उसे स्वयं बड़ा दुख हुआ। पढ़ाई में उसने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, फिर भी वह छमाही में फ़स्र्ट डिवीजन न
ला सका। पढ़ाई में पिछड़ने के कारण मां-बाप का प्यार भी जैसे कुछ कम हो गया। रंजीत
की तनी भौंहे देखकर वह उनसे कुछ भी कहने की हिम्मत न जुटा पाता।...... उनके गले
में झूले तो जैसे बरसों पुरानी बात हो।
विंटर वैकेशन में जब अमित घर गया, तो
उसने मां से स्कूल की समस्याओं पर चर्चा की, लेकिन
उसकी मां न तो ऐसे वातावरण से परिचित थी और न ही उच्च शिक्षित कि वे बच्चे की
मनोवैज्ञानिक समस्या पूरी तरह समझ पातीं। जैसे-तैसे हाईस्कूल पास वे कुषल गृहणी
थीं। लखनऊ जैसे महानगर के समाजशास्त्र को भी वे नहीं समझती थीं, इसलिए पहली समस्या पर उन्होंने कोई
विशेष ध्यान न दिया। दूसरी समस्या को वह थोड़ा-बहुत जरूर समझती थीं। उन्होंने अमित
को पापा से बात करने का सुझाव देकर समस्या से छुट्टी पा ली।
अमित रंजीत से अधिक बात नहीं कर पाता था। ‘रिपोर्ट कार्ड’ बाप-बेटे के बीच दूरी बढ़ा रहा था। मां
के प्यार ही से अमित को संतोष करना पड़ता।
एक दिन वह मां की पीठ पर सवार टी.वी. देख रहा था, तो मां ने उसे सामने कर प्यार से
समझाया- ‘‘बेटा! हमें तुमसे बहुत उम्मीदें हैं।
पापा चाहते हैं कि तुम स्कूल में फर्स्ट आओ। तुम्हें एक दिन बहुत बड़ा अफसर बनना
है। तुम खूब मन लगाकर पढ़ाई करो। अरे, अंग्रेजी
में क्या रखा है? बस बोलना शुरू कर दो- कुछ भी गलत-सही,
थोड़े दिन में
बोलना आ जायेगा!’’
अंग्रेजी बोलने की समस्या को हल करने के लिए रंजीत ने अपने लेक्चरर
दोस्त से सलाह ली। लेक्चरर साहब वहीं एक इंटर कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे।
लेक्चरर साहब ने रंजीत को समझाया- बच्चे पर ज्यादा दबाव ठीक नहीं।
उसे आराम से सीखने दो। बदले हुए माहौल में एडजस्ट होने में समय तो लगता ही है। अभी
भाषा की समस्या है, लेकिन जब वह सुलझ जायेगी तो बच्चा विषय
में पारंगत हो जायेगा।..... यह तय हुआ कि अभी एक हफ्ता है स्कूल खुलने में। अमित
को अंग्रेजी बोलना वे सिखायेंगे। लेकिन, उसे
घर पर आना पड़ेगा।
दो ही दिन अमित लेक्चरर साहब के यहां अंग्रेजी सीखने जा पाया था कि
लेक्चरर साहब को वाइरल हो गया।.... अभ्यास छूट गया।... रंजीत खुद उसे अंग्रेजी
बोलना सिखाने लगे।....पर यहां तो मामला उलटा था। रंजीत से अच्छा तो अमित ही
अंग्रेजी बोल लेता था, फिर भी वह अमित को जबरदस्ती सिखलाने की
कोशिष करने लगा। उसे लगता था कि इंटर तक अंग्रेजी पढ़ने के कारण उसका
अंग्रेजी-ज्ञान अमित से अधिक है।
बात बन नहीं रही थी। रंजीत को लेक्चरर साहब की बात याद आ गयी- ‘ऑफिस में लिखने-पढ़ने वाली अंग्रेजी
अलग होती है। उसे तो कोई भी एक-दो महीने में सीख सकता है। यह सब तो अनुवाद की
करामात है। बोलने वाली अंगे्रेजी तो अन्दर से निकलती है, जैसे- अरे के बदले ओह! वाह के बदले
वाउ! हां के बदले या! दोस्तों में नमस्कार के बदले हाय! बड़ों के अभिवादन में गुड
मार्निंग, गुड आफ्टरनून, गुड इविनिंग! बात-बेबात वाउ, ओह, सॉरी, ओ.के., स्योर-स्योर,
ओह नो, हाउ स्टूपिड,
एनी वे, एक्सेलेंट, थैक्स, वेलकम! अंग्रेजी में कुछ भी बोलना शुरू कर दो, फिर वाक्यों के बीच-बीच में आई मीन, यू नो, इट्स नाॅट सो,
लेट् मी प्लीज, लेट् इट बी आदि का फेवीकोल लगाते
रहो।.... लेकिन अनुवाद वाली अंग्रेजी में रवानी कहां से लाओगे?’
यही अनुवाद वाली अंग्रेजी अमित क्लास में बोलता था। जब कभी अनुवाद के
लिए उपयुक्त शब्द न पाता, तो वह उसे हिन्दी में बोल जाता था।
क्लास के अधिकांष बच्चे ऐसा ही करते थे, पर
पता नहीं क्यों, क्लास-टीचर, अमित जैसे ही चार-छः लड़कों को इस पर
अधिक लताड़ता था। शुरू-शुरू में अमित इस भेदभाव पर हैरान होता था, पर धीरे-धीरे इसके मर्म को समझने लगा
था।....वह थी उसके पिता की आर्थिक स्थिति! इसे दूर करना उसके वष में न था। इसलिए
उसने समझौते का सिद्धान्त अपना लिया।
मंथली टेस्ट हुए। अमित ने पहले से अच्छा परफॉर्म किया था। क्लास टीचर
ने भी शाबासी दी। क्लास में उसे आगे की बेंच मिल गयी। अभी तक, वह तीन-चार बेंच पीछे बैठता था। नये
साथी स्टूडेंट पढ़ने में अच्छे थे ही, अंग्रेजी
भी साफ बोलते थे। अमित का मन खिल उठा- स्कूल का माहौल पहले की अपेक्षा अच्छा लगने
लगा था।.....
फाइनल इग्ज़ाम्स पूरे हुए। अमित ने पढ़ाई में जान लड़ा दी थी। पेपर
भी अच्छे हुए थे, पर न जाने कौन सी बात हुई कि उसकी
फस्र्ट डिवीजन न आ सकी- साढ़े सत्तावन परसेंट नम्बर आये थे। टेंथ में एडमीशन तो हो
गया, लेकिन सेक्शन बदल गया था- बी. से सी.।
इस सेक्शन में सभी स्टूडेंट्स सेकेंड या थर्ड डिवीजनर्स ही थे।.... अच्छे साथियों
का साथ छूट गया।
छुट्टियों में अमित घर पहुंचा। उसे देख मां का मन तो खिल गया, पर पिता का मन बैठा हुआ था। वे उसकी
पढ़ाई से संतुष्ट न थे।
इस बीच परिवार में बदलाव आया था। महीने-भर पहले अमित की बहन ने जन्म
लिया था। जब देखो, अमित उसे गोदी में उठाये रहता
था।....पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाए वह बच्ची से खेलने में ही व्यस्त
रहता था। जब तक रंजीत घर में रहते, तभी
तक वह पढ़ता था।
बच्चा जब पढ़ाई में कमजोर हो जाता है, तो पढ़ाई से जी चुराने लगता है- अमित भी इसका अपवाद न था। लेकिन इस
बात की गंभीरता को न उसकी मां समझती थी और न ही रंजीत।
मां बच्ची की तीमारदारी में ही व्यस्त रहती। रंजीत भी जब थाने से
वापस आते, तो अधिक समय बच्ची को खेलाने में लगा
देते। अमित की पढ़ाई की जो दिक्कते थीं, उन
पर वे अपेक्षित ध्यान नहीं दे सके। हां, वे
उसे पढ़ने के लिए समझाते रहते थे। कभी-कभी डांट भी देते।
ऐसी ही किसी डांट का असर था कि अमित स्वयं लेक्चरर साहब से मिलने
गया। उनसे डिटेल में बात-चीत की। अंगे्रेजी बोलने की समस्या थी तो, पर पहले जैसी विकराल न थी। एक साल की
तपस्या के बाद वाचाल अंग्रेजी ने थोड़ी कृपा की थी। अब अमित अपनी बात कह पाने में
असमर्थ नहीं था, फिर भी अभी और परिमार्जन की आवश्यकता
थी।
टी.वी. में इंग्लिष न्यूज चैनल देखने के अलावा लेक्चरर साहब ने
अंग्रेजी अखबार बोलकर पढ़ने की सलाह दी थी- खास तौर पर इडीटोरियल पेज! उसमें ‘लेटर टू इडीटर’ कॉलम होता है जिनमें कुछ पत्रों की
अंग्रेजी हल्की और कुछ की भारी होती है। इन पत्रों को बोल-बोल कर पढ़ना चाहिए।
इससे एक लाभ यह भी है कि हमें पता चल जाता है कि किसी सामयिक विषय पर पाठकों की
क्या प्रतिक्रिया है? इस कॉलम के एक पत्र को अपनी नोटबुक पर
उतारें। फिर देखें कि उनमें से कितने शब्दों के अर्थ हमें नहीं आते हैं? कितने शब्दों की स्पेलिंग नहीं आती है? उन पर लाल निशान लगायें। फिर डिक्शनरी
से उनकी स्पेलिंग व अर्थ लिखें।..... दो-तीन महीने बाद हम इसका असर देख सकते हैं।
घर में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ आने लगा। अमित ने लेक्चरर साहब द्वारा
सुझाये गये अभ्यास किये। महीने भर में उसका सकारात्मक प्रभाव दिखायी देने लगा। वह
रंजीत से अंग्रेजी में बातें करने का प्रयास करता। अपनी मम्मी से तो वह बेहिचक
अंग्रेजी बोलता था। मम्मी उसे देख मुग्ध रह जातीं। रंजीत भी खुष हुए।..... अमित को
नयी स्कूल ड्रेस के साथ-साथ एक ब्रांडेड शर्ट-पैंट भी मिल गयी।
टेन्थ की किताबें थीं ही। हर विषय में कुछ-न-कुछ काम दिया गया था।
अमित ने होमवर्क पूरा किया। रंजीत ने कापियां देखीं। बेटे को गले लगा लिया। आंखों
से आशीष झरने लगा। बेटे ने भी संकल्प दुहराया- कुछ भी हो, फर्स्ट आकर दिखलाना है!
एक-डेढ़ महीना कैसे बीत गया- पता न चला। जुलाई आ धमकी। अमित स्कूल
जाने की तैयारी करने लगा। लखनऊ जाने से पहले वह अपने दोस्तों से मिलने गया। कुछ घर
पर मिलने आये थे। लेकिन अब दोस्ती में पहले वाली बात न रह गयी थी। औपचारिकता-भर
थी। इसके पीछे उनके स्कूलों और पढ़ाई के तौर-तरीकों में अन्तर था।..... अमित की
स्पीकिंग इंग्लिष भी दोस्ती में खटाई का काम कर रही थी।
स्कूल खुल गये थे। रंजीत अमित को भेजने आये। अमित को साथ ले वे
प्रिंसिपल साहब से मिले और उसे पुराने सेक्शन में शिफ्ट करने की रिक्वेस्ट की, पर प्रिंसिपल साहब ने यह कहकर बात
समाप्त कर दी कि जिसके जैसे नम्बर होंगे, उसके
हिसाब से ही सेक्शन मिलेगा- ए., बी.
या सी.! उन्होंने अमित की ओर देखते हुए कहा, ‘‘इफ
यू ब्रिंग फर्स्ट डिवीजन मार्क्स इन हाफ-इयरी एक्जाम, यू विल डेफ्नेट्ली बी शिफ्टेड टू
सेक्शन- बी.’’ अमित ने प्रसन्नता से कहा- ‘‘आइ
शैल ट्राई माइ बेस्ट, सर!’’
रंजीत गोंडा लौट गये। अमित पढ़ाई में जुट गया। लेकिन उसके नए सेक्शन
में कई स्टूडेंट बदमाष थे। वे पढ़ने में उतनी रुचि न लेते, जितनी घूमने-फिरने में। गार्ड को सेट
कर वे ‘इवनिंग शो’ भी देख लेते। संडे को तो दिन में घूमने
की आजादी थी ही, जिसका वे भरपूर लाभ उठाते।......
अमित न चाहते हुए ऐसे दो-तीन लड़कों की संगत में आ गया। पहले तो वह
डरा, लेकिन बाद में उन्हीं के रंग में रँग
गया। आये दिन एडल्ड पिक्चर देखना और बाजार में खाना-पीना होने लगा। वह सिगरेट पीना
भी सीख गया। पढ़ाई की जगह उसे घूमने-फिरने और मौज-मस्ती का चस्का लग गया। पैसों के
मामले में वह पिछड़ा था, लेकिन उसके दोस्तों को तो बस उसकी
कम्पनी चाहिए थी, पैसों की उन्हें कोई कमी थी ही नहीं।
उनके माता-पिता आज के तालुकदार थे ही।
रंजीत जब कभी अमित से मिलने आते, तो
वह कोई-न-कोई बहाना बनाकर जल्द ही उनसे पीछा छुड़ा लेता।.... वे आधे-पौन घंटे में
वे वापस चले जाते।
तिमाही परीक्षा हुई। अमित को तो रिजल्ट पहले ही मालूम था- क्लास टीचर
या रंजीत को रिपोर्ट कार्ड मिलने पर पता चला। इस बार उसे चालीस प्रतिशत नम्बर मिले
थे। कहां उसने साठ प्रतिशत से भी अधिक लाने का वादा किया था!.......क्लास टीचर और
प्रिंसिपल, दोनों ने उसकी काउन्सेलिंग की। रंजीत
को पत्र भी लिखा।
पत्र पाकर रंजीत बौखला उठे। दौड़े हुए लखनउ आये। न चाहते हुए अमित पर
उसके दोस्तों के सामने ही हाथ उठा बैठे। अमित को बहुत बुरा लगा। इतना अपमान उसका
कभी न हुआ था। लेकिन जब उसे अपनी ग़लती का अहसास हुआ, तो उसने पापा से माफ़ी मांगी।
अब समस्या थी कि बदमाष लड़कों से पीछा कैसे छुड़ाया जाए। रंजीत ने
प्रिंसिपल साहब से बात की। उन्होंने सेक्शन चेंज करने की फिर रिक्वेस्ट की, लेकिन यह आसान न था। हां, प्रिंसिपल साहब ने वार्डन को बुलाकर
अमित पर निगाह रखने को कहा। क्लास टीचर को बुलाकर अमित की सीट चेंज करने को कहा।
अब अमित क्लास में अगली बेंच पर बैठता था। बगल में बैठने वाले स्टूडेंट पढ़ाई में
औसत ही थेे। अमित को उनसे कोई लाभ न था, पर
साथ बैठने की मजबूरी थी।
अमित यह समझता तो था कि माता-पिता की उससे क्या अपेक्षाएं हैं? पिता की आर्थिक स्थिति क्या है? अगर वह बदमाष लड़कों का साथ न छोड़ेगा, तो उसका भविष्य निश्चित ही चैपट हो
जायेगा?....लेकिन किसी बात को समझना एक बात है और
उसे व्यवहार में उतारना दूसरी।
किशोर वय में हम रोज कितने ही फैसले करते और बदलते हैं। अमित चाहता
था कि वह नये साथियों से अलग रहे, पर
उनसे एकदम से कैसे अलग रह सकता था? स्कूल
वही था, हॉस्टल वही था और बाकी चीजें भी वही!
जब तक हमारा परिवेष नहीं बदलता, हममें
बदलाव कैसे आयेगा? परिस्थितियों के दुश्चक्र में पड़ना और
उससे पड़े रहना ही तो दुर्भाग्य है!
दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने का एक अवसर आया। अमित बीमार पड़ गया।
उसे मीजिल्स निकल आये थे। कॉलेज प्रशासन ने तुरन्त उसके घर सूचना दी।
रंजीत दौड़े-दौड़े आये। अमित को घर ले गये। पन्द्रह दिनों के आराम और
तीमारदारी से अमित ठीक हो गया, पर
कमजोरी अभी बाकी थी।....डॉक्टर ने स्कूल जाने की परमीशन दे दी थी।
दशहरा की छुट्टियां होने वाली थीं। स्कूल पांच दिन बन्द था। तीन दिन
मिल रहे थे कि स्कूल जाया जा सकता था, लेकिन
यही तय पाया गया कि दशहरा की छुट्टियों के बाद ही अमित स्कूल जाए। बीमारी के कारण
स्कूल से चलते समय वह कुछ किताबें ही ला पाया था। उनके पाठ वह पढ़ चुका था। अन्य
विषयों को वह कवर करना चाहता था, लेकिन
उनकी किताबें नहीं थीं। गोंडाडा में उपलब्ध होतीं तो खरीद ही ली जातीं, पर ऐसा न हो सका। परिणामतः कई विषयों
में उसकी पढ़ाई तीन हफ्ते पिछड़ गयी।
छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला, तो
ही अमित लखनऊ आ सका। दो हफ्ते तो उसे छूटा काम पूरा करने में लग गया। रोज की पढ़ाई
तो करनी ही थी। महीने भर में किसी तरह गाड़ी ढर्रे पर आयी। बदमाष लड़कों से निजात
मिल गयी थी। रंजीत के प्रार्थनापत्र पर उसका हॉस्टल-हाल बदल दिया गया था।
लगातार मेहनत के बावजूद अमित पढ़ाई में अमित पिछड़ गया था- जिन
साथियों से वह हमेशा आगे रहता था, अब
उनसे भी पीछे था।.... धीरे-धीरे उसमें हीनभावना घर कर गयी। मंथली टेस्ट में वह
पचास परसेंट से अधिक न ला सका।
रंजीत बेटे की विवशता समझ चुप रह गये, लेकिन उस पर यह दबाव जरूर बनाया कि फाइनल इक्जाम में वह कम-से-कम
फर्स्ट आये!
अमित पढ़ाई में लग गया। उसने मेहनत में कोई कसर न छोड़ी, लेकिन इग्जाम तक वह तैयारी न कर सका
जिसकी उसने खुद उम्मीद की थी।..... वैसे पेपर अच्छे हुए थे, पर रिजल्ट आने पर पता चला कि वह सेकेंड
डिवीजन ही पास हुआ है।
फर्स्ट इयर में एडमीशन तो हो गया, लेकिन
प्रिंसिपल साहब ने रंजीत को सुझाव दिया कि अगर अमित कालेज में नहीं चल पा रहा, तो वे उसे निकाल लें।
यह सुनते ही रंजीत सकते में आ गये- अब अमित को कहां डालें? एक तो, मुश्किल से कहीं एडमीशन होता है, दूसरे, अन्य जगहों पर यहां के मुकाबले खर्च
अधिक था। उन्होंने अमित को लगभग चेतावनी देते हुए कहा- ‘‘अगर सेकेंड डिवीजन ही लाना है, तो हॉस्टल में रहकर पढ़ने की जरूरत
क्या है? तुम खुद ही सोचो- तुम्हें पढ़-लिख कर
कुछ बनना है, या यूं ही पैसा बरबाद करना हैं?’’ फिर समझाते हुए बोले- ‘‘बेटा! अपने घर की हालत समझो। हमने
तुमसे कुछ सपने पाल रखे हैं। अब तुम बड़े हो गये हो! अपनी जिम्मेदारी समझो, कुछ सोचो!’’
अमित की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था
कि वह क्या करे? सोचते-सोचते वह भावुक हो गया। वह पापा
से कुछ कहना चाहता, पर उसका गला भर आया।.... कुछ कह न सका।
नम आंखों से रंजीत को कालेज कम्पाउंड से बाहर जाते देखता रहा।
हॉस्टल आकर उसने खुद को कमरे में बन्द कर लिया। उस समय उसका रूममेट
भी नहीं था। उसे मां की बहुत याद आयी, पर
तनिक ही देर में उसे मां के चेहरे में रंजीत ही दिखायी पड़ने लगे। मानो कह रहे
हों- ‘बेटा, अगर कुछ बनने का इरादा हो, तो पढ़ने में मन लगाओ, वरना हम लोगों की कमाई बरबाद मत करो!’
अमित को लगा कि उसके मम्मी-पापा, दोनों
ही केवल उसके अच्छे नम्बरों से प्यार करते हैं, उससे
नहीं! अच्छे नम्बर, माने फस्र्ट डिवीजन! नहीं, उससे भी ज्यादा! कहां से लाये वह इतने
नम्बर? क्या वह बुदधू है, इंटेलीजेंट नहीं? क्या उसमें वह कैपेसिटी नहीं कि अच्छे
नम्बर ला सके? वह क्या करे वह कि मम्मी-पापा के सपनों
को पूरा कर सके!.... वह बेचैन हो उठा।
शाम ही से अमित डिस्टर्ब हो गया। खेल-कूद कुछ नहीं।.... खुद को कमरे
में बन्द कर लिया। उसका रूममेट भी आज नहीं है- वह अपने पापा के साथ घर चला गया है-
उसका बर्थ-डे है आज! उसे सेलिब्रेट करने गया है। वह मुझसे कोई तेज है क्या?
नम्बर भी मुझसे
कम ही पाता है। लेकिन कहाँ उसके पापा, और
कहाँ मेरे?
पल भर के लिए अमित को अपने पापा से चिढ़ हो गयी। मम्मी का चेहरा भी
आंखों के सामने घूम गया, पर उनकी आंखों में भी वह प्यार नहीं
दिखा जो पहले था।..... उसे मम्मी-पापा, दोनों
से दुराव हो गया। दुनिया में कोई भी उसके मन की बात समझने वाला नहीं, कोई भी उससे प्यार करने वाला नहीं! कोई
भी उसका दोस्त नहीं!......उसका कोई नहीं!
मायूसी में डूबा थोड़ी देर वह लेटा रहा। फिर उठकर पानी पिया और पढ़ने
लगा। एक घंटा बीता। उसे भूख लग रही थी, लेकिन
उस समय ग्यारह बज रहे थे- डाइनिंग हाल भी बन्द हो चुका था।.....वह फिर पढ़ने में
लग गया। चार-पांच किताबें और नोटबुक उसने एक साथ खोल रखी थीं। लगता था कि जैसे आज
ही वह सारी किताबें पढ़ डालेगा।.....लेकिन यह क्या? उसकी आंख तो एक ही पृष्ठ पर अटक गयी, उसमें जैसे लिखा हो- अमित, कुछ
सोचो! कुछ सोचो!!
रात के एक बजे थे। हॉस्टल गहरी नींद में था, पर अमित की आंखों में नींद न थी। वह
आंखें बन्द किये बिस्तर पर लेटा हुआ था, पर
आराम करने के लिए नहीं।.....उसकी आंखों में एक दुःस्वप्न पल रहा था।
सबेरे छः बजे सभी हॉस्टलर ग्राउंड में असेम्बल हुए। मार्निंग वाक कर
वे वापस कमरों में भी आ गये। नहा-धो
नाश्ता कर असेम्बली हाल में भी वे इकट्ठे होने लगे, लेकिन अमित का कहीं पता नहीं।
क्लास में भी अमित एब्सेंट! क्लास टीचर ने कोई खास ध्यान नहीं दिया।
सोचा, हो सकता है उसकी तबीयत खराब हो गयी हो।
क्लासेज खत्म होने पर सभी हॉस्टलर लंच कर अपने-अपने कमरे में आराम करने लगे।
वार्डेन ने भी अमित का रूम नहीं चेक किया कि वह आखिर अन्दर से बन्द क्यों है? आखि़र, उसने अमित का रूम खटखटाया, पर
कोई उत्तर न मिला। जब उसंने कमरे में झांक कर जायजा लेने की कोशिष की, तो उसकी चीख निकल पड़ी।
अमित के कमरे का दरवाजा तोड़ा गया। अन्दर का दृष्य देख सभी स्तब्ध रह
गये। अमित का शव छत के पंखे से लटक रहा था। चादर का फन्दा बनाकर आत्महत्या की गयी
थी।
मेज पर छोटा-सा पत्र एक मोटी-सी किताब से दबा था- ‘‘सॉरी पापा! मैं आपका सपना नहीं पूरा कर
सका।’’
(‘वर्तमान
साहित्य’ में प्रकाशित)
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