विकल्प
(लघुकथाएं)
0
राजेन्द्र वर्मा
आई.एस.बी.एन-
संस्करण-
प्रकाशक-
मुद्रक-
मूल्य-
निवेदन
लघुकथा, ‘लघु’
और ‘कथा’- दो शब्दों से बनी है। आशय
स्पष्ट है- कथा तो है, पर लघु, तथापि
इसका अर्थ यह नहीं कि वह कोई ‘छोटी कहानी’ है। कहानी जैसा आनन्द देने वाली लघुकथा शिल्पगत ठाठ में वह कहानी से पृथक
है। कहानी जहां परिवेश और पात्रों के विवरणों की मांग करती है, लघुकथा वहीं संक्षेप में पात्र-परिवेश से परिचय कराती है। दोनों के
रचना-विधान इस प्रकार भिन्न हैं- कथावस्तु के प्रस्तुतीकरण की शैलियां भिन्न हैं।
कहानी में विमर्श के लिए जहां पर्याप्त
स्थान रहता है, लघुकथा इसका भार नहीं वहन कर सकती। विमर्श वह
अपने भीतर समेटे रहती है। जिस प्रकार कविता की एक लयात्मक पंक्ति में भाव-विषेश की
सघनता रहती है, उसी प्रकार लघुकथा वृहद किन्तु एकनिष्ठ भाव
समाये रहती है।....जब कोई नवीन कथ्य, टटकी मितभाषिता लिये
मारक व्यंग्य अथवा मार्मिकता के साथ प्रस्तुत होता है, तो
लघुकथा का जन्म होता है। यह उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है कि उसका आकार क्या हो?
वह आधे पृष्ठ से लेकर दो पृष्ठों तक हो सकती है। कहानी यों भी
अंग्रेज़ी की ‘शार्ट स्टोरी’ ही है। अब
लघुकथा को अंग्रेजी में क्या कहा जाए- ए वेरी शार्ट स्टोरी?
कहानी में जहाँ पात्र और परिवेश सम्बन्धी
विवरणों के विस्तार की गुंज़ाइश रहती है, लघुकथा में वे संक्षिप्ततः
वर्णित होते है- एक या दो वाक्यों में। कभी-कभी कथोपकथन के माध्यम से लघुकथा एक-दो
वाक्यों में ही अपनी बात पूरी कर देती है। वह पात्र एवं परिवेश पर अलग से कुछ भी
नहीं कहती। उसे जो भी कहना होता है, वह पात्रों के कथोपकथन
से ही पूरा करना होता है। उदाहरण के लिए, राजेन्द्र नागर ‘निरन्तर’ की ‘त्योहार’ नामक पांच शब्दीय एक पात्रीय कथन से बनी निम्नलिखित लघुकथा-
‘‘माँ !... रोटी! आज क्या है?’’
इसमें शीर्षक अपनी वह
भूमिका निभा रहा है जिसकी अपेक्षा अन्य लघुकथाओं में नहीं रहती। इसके विपरीत, कहानी
कथोपकथन से प्रारम्भ होकर भी पात्र और परिवेश को पृथक से खोलती है।
सामान्यतः लघुकथा का आकार एक-दो
पृष्ठीय होता है। पात्रों की बहुलता का भार भी वह नहीं उठा सकती। लम्बे-लम्बे
कथोपकथन इस विधा के लिए अनुपयुक्त हैं। वैचारिकता का प्रदर्शन भी इसके लिए व्यर्थ
है। विमर्श की उपस्थिति पानी में घुली शकर की भांति हो, तो
रचना की मिठास के साथ-साथ उसकी उपयोगिता बढ़ जायेगी। इसी प्रकार परिवेश की भिन्नता
भी वह नहीं वहन कर सकती। कथाकार की उपस्थिति को कदापि नहीं। लघुकथा में ‘मैं’ नरेटर न होकर अनिवार्यतः पात्र के रूप में आता
है।
जिस प्रकार गीत का एक
केन्द्रीय भाव होता है, उसी प्रकार लघुकथा मानवीय उदात्ता
अथवा दुर्बलता के पहलू विशेष को उद्घाटित करती है। कभी-कभी यह उद्घाटन के साथ-साथ
मूल्य की स्थापना भी करती है। यह स्थापना इसका प्राणतत्व है। यदि यह न हुई तो
लघुकथा घटना मात्र का विवरण होकर रह जायेगी। उद्घाटन एकबिन्दुता लिये होना चाहिए।
कहानी अथवा उपन्यास की भांति किसी पात्र के समग्र व्यक्तित्व को समेटना लघुकथा से
अपेक्षित नहीं है। एकबिन्दुता की टेक्नीक से लघुकथा में मानवीय चरित्र का खुलासा
अथवा किसी उदात्त भाव की स्थापना आसानी से की जा सकती है। क्षमाँ और त्याग- दो ऐसी
बातें हैं कि जिनसे मानवी चरित्र में उच्चता आती है। मितभाषिता से सम्पन्न लघुकथा
छोटी-सी घटना के माध्यम से यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न करती है।
लघुकथा के कथ्य को तीन भागों में
बांटा जा सकता है- प्रारम्भ, विस्तार और समापन। तीनों अलग-अलग
पैराग्राफ़ में हों- आवष्यक नहीं। कभी प्रस्तावना और विस्तार एक साथ प्रस्तुत होते
हैं, तो कभी विस्तार और समापन एक साथ। इसकी प्रस्तुति के
सम्बन्ध में कोई सिद्धान्त निश्चित नहीं किया जा सकता, पर
विभिन्न ठाठ की चार-छः लघुकथाओं के पाठ से मस्तिष्क में सिद्धान्त उभरने लगते हैं।
प्रारम्भ के लिए विषयवस्तु का चुनाव
महत्वपूर्ण होता है। यदि लघुकथा का प्रारम्भ पात्र या परिवेश के वर्णन से हो रहा
है, तो अधिक सतर्कता की आवष्यकता होती है। अनिश्चय-बोध विषय के प्रवेश-द्वार
को खुलने नहीं देता। संवाद शैली से प्रारम्भ होने वाली रचना पाठक को सहज ही
आकर्षित कर लेती है।
विस्तार में घटना का वर्णन इस प्रकार
होना चाहिए कि तथ्य परत-दर-परत खुलता जाए, पर युगीन सन्दर्भ पाठक के
मनोविज्ञान की परिधि में रहे। स्वाभाविकता और विष्वसनीयता विवरण को पाठकीय बनाती
है। कथ्य का वर्णन अभिधा में हो तो बहुत अच्छा, पर उसका
निहितार्थ कथा के साथ-साथ चलते रहना चाहिए। इसी प्रकार वर्णन यदि व्यंजना और
लक्षणा के माध्यम से हो रहा हो, तो सम्बन्धित बिम्ब-प्रतीक
मूल कथा को खोलने में सहायक होने चाहिए। यथार्थ और आदर्श का द्वन्द्व अप्रत्यक्ष
रूप से रहने पर ही रचना में कला की प्रतिष्ठा होती है।
समापन वह बिन्दु है जहाँ रचना पूर्णता
को प्राप्त करती है। यहाँ रचनाकार की प्रतिबद्धता दिखायी देती है। यहां
यथास्थितिवाद से बचने की आवश्यकता है, अन्यथा लघुकथा अपने उद्देश्य
से भटक जायेगी। कथ्य की मांग के अनुसार जिजीविषा, जीवन-संघर्ष
की स्थापना, उदात्ता, मार्मिकता से
उपजी संवेदना अथवा विसंगति या विद्रूपता के प्रति घोर उपेक्षा, तिरस्कार अथवा आक्रोश का शालीन व स्वाभाविक अंकन से लघुकथा जीवन्त हो जाती
है। मात्र यथार्थ के चित्रण से रचना का निर्माण नहीं होता। यथार्थ की भयावहता
चैंकाती ज़रूर है, परन्तु क्या हम मात्र चैंकानेे के लिए
साहित्य रचते हैं? इसलिए लघुकथा में कुछ-न-कुछ संदेश अन्तर्निहित
होना चाहिए जो मानवीय मूल्यों की पक्षधरता करता हो। नायक का नायकत्व यदि हमारे
सामने न आया, तो उसे कोई कैसे नायक मानें?
रचना का अन्त, रचनाकार
की उपस्थिति को किसी भी रूप में नहीं सहन कर सकता। रचनाकार यदि अपनी टिप्पणी के
साथ लघुकथा का समापन करता है तो यह उसकी दुर्बलता मानी जायेगी। साथ ही, लघुकथा अपनी संपे्रशण की तीव्रता को खो देगी। रचनाकार की टिप्पणी बिल्कुल
उसी तरह है जैसे कोई बात-चीत में श्रोता पर भरोसा न करे और उससे पूछने के अन्दाज़
में कहे- ‘‘समझ गये न!’’ दिन भर में हम
अनेक ऐसी घटनाओं से रूबरू होते हैं जो हमारे मानस को कहीं-न-कहीं झकझोर देती है।
घटना भले ही अप्रिय हो, उसमें नायक या नायिका अनुपस्थित हो,
पर उसके देखे जाने में कुछ-न-कुछ हमारे मन में घटित होता है। इस घटित
होने को कथा रूप में ढालना ही लघुकथा है। आवष्यक नहीं कि उसमें कोई स्पश्ट सन्देश हो।
बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उसमें कोई-न-कोई सन्देश होगा ही! स्पश्ट सन्देष, उपदेश बनकर लघुकथा को बोझिल बना देगा। महत्वपूर्ण यह है कि लघुकथा अपने
संप्रेशण में कितनी तीव्र है? संप्रेशण की तीव्रता लघुकथा की
सफलता का मानक है। हम बातें चाहे जितनी कर लें, पर उनसे यदि
कोई ऐसी बात न निकली जो मर्म को भेद सके, तो सारी बातें
व्यर्थ हैं!
भाषा
की दृष्टि से भी लघुकथा व्यंग्यधर्मी या मार्मिक होने की मांग करती है। भाशा में
अलंकार के प्रयोग से उसकी धार मर जाती है। भाशा का अलंकरण कविता की वस्तु है। इसी
प्रकार पुरानी घिसी-पिटी या बिखरी हुई भाषा का प्रयोग लघुकथा को आकर्षक नहीं बना
सकती।...‘एक बार की बात है’, या ‘बच्चो!,
भाइयो!, दोस्तो! आओ, मैं
आपको एक कि़स्सा सुनाता हूं’ जैसे वाक्यों से लघुकथा का
प्रारम्भ पाठक को बोर कर देगा। छोटे वाक्य, यदि आवश्यक परिवेश
निर्मित करने में सहायक हो, तो ही प्रयुक्त होने चाहिए। अन्यथा,
वे लघुकथा को अनावश्यक विस्तार दे देंगे।
छोटे-छोटे वाक्य कहानी अथवा, उपन्यास के लिए उपयुक्त हैं। उनसे विस्तृत परिवेश निर्मित
होता है। लघुकथा में संक्षिप्त परिवेश की आवश्यकता होती है। इसलिए दो-तीन छोटे
वाक्यों को मिलाकर लघुकथा की रचना होनी चाहिए। ‘डायरेक्ट
स्पीच’ की तुलना में ‘इनडायरेक्ट स्पीच’
लघुकथा के लिए अधिक सटीक है।
इन विधानों से यदि उसका प्रारम्भ हो, तो
प्रभाव बढ़ जाता है। ऐसे प्रारम्भ में भाशा की कसावट का भी परिचय मिल जाता है।
पाठक को भरोसा हो जाता है कि वह भाशा के स्तर पर ठगा नहीं जा रहा।.... उदाहरण के
लिए अपनी ही एक लघुकथा- ‘टाफियां’ का
प्रारम्भ उद्धृत कर रहा हूं। मान लीजिए उसका प्रारम्भ हो- एक आदमी था जिसका नाम
था- रामदीन। वह पेशे से नाई था। उसने कुर्ता पहन रखा था। कुर्ते की जे़ब में
टाफि़यां थीं। उसका एक बेटा था जिसका नाम था- छोटू। उसकी अवस्था पांच वर्ष की थी।
रामदीन ने अपने कुर्ते की ज़ेब से छोटू को देने के लिए टाफि़यां निकालीं। लेकिन
छोटू टाफि़यां लेने को लिए नहीं दौड़ा।
आठ वाक्यों से प्रारम्भ होने वाली
लघुकथा को यदि निम्नलिखित एक ही संयुक्त वाक्य से प्रारम्भ किया जाए, तो
कैसा रहे? देखें- रामदीन नाई ने कुर्ते की जे़ब से बड़े ठाठ
से टाफियां निकालीं, पर उसका पांच वर्षीय छोटू उन्हें लेने
के लिए नहीं दौड़ा।
आप पायेंगे कि भाषा की दृश्टि से
लघुकथा का प्रारम्भ संक्षिप्त होने के बावजूद आकर्षक हो गया है। आवश्यकता तो रचना
के हर वाक्य में कसावट की होती है, पर कथ्य की मांग अथवा रचनाकार
की भाषा पर ढीली पकड़ ऐसा नहीं करने देती। फिर, भाषा तो विचार
की संवाहिका है। मात्र भाषा से कोई रचना नहीं बनती। फिर भी किसी भी रचना के लिए
प्रारम्भ और समाप्ति में उसकी भूमिका का महत्व अपने स्थान पर है।
लघुकथा यों तो लोककथाओं, बोधकथाओं
या आख्यानों के रूप में उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत, पंचतंत्र,
हितोपदेश, अरेबियन नाइट्स आदि में विद्यमान है,
किन्तु विधा के रूप में इसको प्रतिष्ठा तब मिली, जब युगीन
विसंगतियों ने कथाकारों को इतना उद्वेलित कर दिया कि वे राजनैतिक और सामाजिक
छल-प्रपंच के विरुद्ध लिखने को विवश हो गये। आज जीवन का कोई भी प्रसंग नहीं है जो
लघुकथा का वर्ण्य विषय न हो।
समयाभाव के चलते पाठक आज छोटी रचना
चाहता है। उपन्यास का स्थान चार-पांच पृष्ठ की कहानी ने ले लिया और कहानी का स्थान
लघुकथा ने! आख़िर लघुकथा में कहानी के तत्व होते ही हैं! शायद यही कारण है कि हर
पत्रिका आज लघुकथाएँ छाप रही है- वह चाहे ‘हंस’-‘कथादेश’ हो अथवा सैकड़ों
की तादाद में छपने वाली मासिक-त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाएं या दैनिकों के विशेषांक!
हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रचुर मात्रा में लघुकथाएं लिखी जा
रही हैं।
जहाँ तक मेरी लघुकथाओं का प्रश्न है, मैं
निवेदन करना चाहता हूँ कि किसी सिद्धान्त जान लेना आसान है, पर
उसे व्यवहार में उतारना कठिन। फिर भी आशान्वित हूँ कि आप रचनाओं के पाठ से निराश न होंगे। लघुकथाओं
का यह दूसरा संग्रह है जिसमें 50 लघुकथाएँ हैं। अधिकांश रचनाएँ
किसी-न-किसी पत्र-पत्रिका में छप चुकी हैं- मैं उनके संपादकों का आभार व्यक्त करता
हूँ । दस-बारह रचनाएँ पूर्व प्रकाशित संग्रह- ‘अभिमन्यु की जीत’ में से दी गयी हैं ताकि उनका आस्वाद भी पाठक यहाँ उठा सकें। आपकी
प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
3/29
विकास नगर
- राजेन्द्र वर्मा
लखनऊ 226 022
क्रम
1 बेटा
2 बेटी
3 प्रतीक्षा
4 सवेरा
5 मैकू
6 धनिया
7 आश्रय
8 एक उदास रात
9 ज्योतिषी
10 शनि
का बल
11 साँप
और आदमी
12
घोड़ा, घास और आदमी
13
क्षतिपूर्ति
14
दुश्यन्त के वारिस
15
भिखारी
16 शहीद
और कवि
17 नं 1090
18
देवी-जागरण
19
भक्त और भगवान
20
परिचय
21
महापात्र
22
फोटो
23
प्रायश्चित
24
प्रार्थना
25
नपुंसक
26
चक्रव्यूह
27
पुरस्कार
28
अपना-घर
29
तरक़ीब
30
सन्तान
31
फ़ैसला
32
विकल्प
33
बिमली
34
जुर्माना
35
दौड़
36 कला
का मोल
37 शुद्धि
38
नेता की आत्मा
39
वृक्षारोपण
40
उपचार
41
रहस्य
42
साधना
43
श्राद्ध
44 चोर
45 सूई
और तलवार
46 एक बूँद
47
कयामत
48
भविष्य-निधि
49
निस्पन्दन
50
टाफि़यां
बेटा
तीन सालों बाद प्रभात
जब अमेरिका से लौटा,
तो उसके साथ नवविवाहिता पत्नी थी। आते ही दोनों माँ से मिलने
वृद्धाश्रम गये।...
जब वह
अमेरिका जाने लगा था,
तो माँ को उसे वृद्धाश्रम में डालना पड़ा था। पिताजी पहले ही दुनिया
से विदा ले चुके थे। घर में कोई और था नहीं।...
उस समय माँ की तबीयत
ख़राब चल रही थी। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था।....आश्रम ने प्रभात से सम्पर्क
करने का कई बार प्रयास किया था, पर सफलता न मिली थी।... यह
तो अच्छा हुआ कि वह स्वयं ही आ गया था।
माँ को नामी डाक्टर को
दिखाया गया। प्रारम्भिक दवाइयों के बाद उसने कई जाँचें लिखी थीं। कुछ जाँचें हो
गयी थीं, कुछ बाक़ी थीं। डॉक्टर ने कहा कि दवाइयों से पहले
कुछ आराम हो जाए, फिर बाक़ी जाँचें करवायी जायेंगी।....
अगले दिन
उसने फ़्लैट खरीदा।... फ़्लैट का क़ब्ज़ा मिलने में कोई एक हफ़्ता लगना था। बिजली
का काम और पुताई चल रही थी। तब तक उसने होटल में रहने का निर्णय किया।
कल फ़्लैट का क़ब्ज़ा
मिलने वाला था। दिन भर आज वह उसी में लगा रहा। होटल लौटते-लौटते रात के दस बज गये।
खाते-पीते और सोते-सोते बारह बज गये।
रात के दो बजे होंगे कि
प्रभात के मोबाइल पर काल आयी। वह सोया पड़ा था। पत्नी ने काल अटेंड की- आश्रम से
फोन था; माँ की तबीयत बिगड़ गयी थी।.... उसने प्रभात को
जगाया, पर सुषुप्ति में उसने अपेक्षित ध्यान न दिया। ‘‘सवेरे चलेंगे!’’ कहकर वह फिर निद्रा की गोद में चला
गया।
पत्नी के मन में था कि
अभी चला जाए। प्रभात को जगाने की उसने एक-दो बार कोशिश भी की, पर वह न जगा।.... थोड़ी देर तक जगने के बाद वह भी सो गयी।... सवेरे के छः बजे
थे कि मोबाइल बज उठा।.... आश्रम से ही काल थी। दुखद सूचना थी।
पति-पत्नी
तुरन्त आश्रम पहुँचे। पत्नी की माँ बचपन में ही नहीं रही थी। सोचती थी- प्रभात की माँ
में अपनी माँ तलाश लेगी,
पर यहाँ तो आते ही मामला उलट गया- जैसे ही उसके पैर आश्रम में पड़े, माँ न रही। वह स्वयं को अपराधबोध से ग्रसित पाती।
दाह-संस्कार के अगले
दिन बाद प्रभात ने आश्रम के मैनेजर से बात की। अगले दिन एक वृद्धा को वह अपने साथ लिवाने
पहुँचा, जो उसकी माँ की अन्तरंग थी। उसका पति संन्यासी हो चुका था और कोई अता-पता
न था। बच्चे हुए न थे।
आश्रम से निकलते समय वह
अन्य वृद्धाओं से गले मिलती और रोती जाती थी। अपना भाग्य सराहते हुए प्रभात पर आशीष
उड़ेलती जाती। आश्रम के लोगों ने ऐसा दृष्य पहली बार देखा था। पिछले बीस सालों में
अब तक केवल चार माँएँ घर लौट पायी थीं। यह
अकेली ऐसी स्त्री थी जो बिना माँ बने ही ‘बेटे’ के साथ घर जा रही थी।
पत्नी को माँ मिल गयी
थी और पति को नयी माँ !... दोनों के मुखमंडल मानवीयता की आभा से दमक रहे थे।
बेटी
मंजू की बड़ी चाहत थी
कि उसे बेटा हो,
लेकिन हुई बेटी। बेटी के जन्म की सूचना पर पति का भी चेहरा उतर गया
था, पर उसने स्वयं को संयत किया और प्रसन्न दिखते हुए मंजू
के पास पहुंचा।
माँ बनकर भी पत्नी के
चेहरे पर प्रसन्नता न थी। पति ने उसे समझाया- ‘‘बेटी तो
लक्ष्मी का रूप होती है!.....उदास क्यों हो रही हो?’’ पर,
वह रुआंसी हो गयी। सोच में थी- जब अस्पताल से घर वापस जायेगी,
तो घरवाले, पड़ोसी और फ्रेंड्स को क्या मुंह
दिखायेगी? उसने स्वयं ही कह रखा था कि पति अपने पिता के पहली
संतान हैं, उसका भाई भी अपने माता-पिता की पहली संतान है। इस
लिहाज से उसे बेटा ही होना चाहिए।..... डाक्टर ने अल्ट्रासाउंड के लिए मना किया था,
नहीं तो वह चुपचाप करा ही लेती- पता चल जाता, लड़का
है या लड़की! पति ने भी जांच में कोई रुचि नहीं दिखायी थी- ‘अरे
जो भी हो, है तो अपना ही!’.....सासु माँ
ज़रूर चाहती थीं कि बेटा हो, जबकि ससुर ने उन्हें डांट दिया
था- ‘‘स्त्री होकर स्त्री की दुश्मन हो? सभी अगर बेटा चाहेंगे, तो बेटी कहां से आयेगी?
तुम भी तो किसी की बेटी हो? शर्म नहीं आती-
बेटे-बेटी में भेद करते?’’ ऐसे पति और ससुर को पाकर मंजू
अपना भाग्य सराहने लगी थी, पर पता नहीं क्यों उसके भी मन में
बेटे की चाहत बनी हुई थी।
नहाने के बाद पाउडर
लगाये नन्हीं बेटी जब नये कपड़ों में रोती हुई मंजू की गोद में आयी, तो वह खिल उठी थी!
अस्पताल से छुट्टी हुई।
मां-बेटी, दोनों घर आ गयीं।.....बच्चे के जन्म के बाद के वे सभी कार्यक्रम आयोजित
किये गये जो बेटे के जन्म होने पर होते हैं। ‘अन्नप्राशन’
में तो उतनी भीड़ न इकट्ठी की गयी थी, पर ‘मुंडन’ में तो ऐसी भीड़ और शानदार पार्टी कि पूछो
मत! रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने चुटकी भी ली- ऐसी पार्टी तो शादी-विवाह पर ही
होती है!
मंजू चाहती थी कि वह
फिर गर्भवती हो- शायद बेटे की इच्छा अभी भी मन के किसी कोने में दबी हुई थी। पति
ने भी सोचा- चलो, एक
बच्चा और सही!
दो महीनों बाद मंजू
गर्भवती थी। उसे पूरा विश्वास था कि इस बार बेटा होगा। हुआ भी। घरवालों के चेहरे
खिल गये। मंजू की ख़ुशी का ठिकाना न था।
समय पर बेटी कालेज गयी
और ग्रेजुएशन कर कम्पटीशन की तैयारी करने लगी। बेटा भी इंजीनियरिंग कर रहा था।
दोनों को नौकरियां मिलीं। बेटी पी.सी.एस. में सेलेक्ट हो गयी थी और प्रशिक्षण पर
चली गयी। बेटे को भी नौकरी मिल गयी थी- यू.के. की किसी कम्पनी में इंजीनियरिंग की।
कम्पनी ने बेटे की
पोस्टिंग यू.के. में कर दी। एक-दो बार तो वह इंडिया आया, पर
बाद में मैरेज कर वहीं सेटेल हो गया। मोबाइल पर कुछ दिनों तक घर वालों से बात-चीत
होती रही, पर बाद में कोई संपर्क न रह गया। कम्पनी के लोकल आफिस
में पता किया गया- पता चला, साहबजादे ने कम्पनी ही छोड़ दी है! नयी कम्पनी कौन-सी
है? मालूम नहीं! वहां के एच.आर. डिपार्टमेंट से पूछ-तांछ
करने का प्रयास किया गया, पर सब व्यर्थ!
जिस बेटे के लिए वह
परेशान थी, वह तो तोताचश्म निकला। संयोग की बात, प्रशिक्षण के बाद बेटी की पोस्टिंग शहर में ही एस.डी.एम. के रूप में हो
गयी।
सरकारी बंगले
में शिफ़्ट होने के लिए मंजू घर से निकल जब लाल बत्ती वाली गाड़ी में बैठी, तो
वह बेटे को भूल चुकी थी।
प्रतीक्षा
बमुश्किल साल बीता
होगा कि गोलू के पापा को दूसरा हार्ट अटैक पड़ा।.....पी.जी.आई में भर्ती हुए।
आई.सी.यू. में तीन दिन रहने के बाद प्राइवेट वार्ड में शिफ़्ट हो गये। दो दिनों
बाद डॉक्टर ने घर जाने की सलाह दे दी। घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि फिर से
दौरा पड़ गया।
डॉक्टर हैरान थे- सब
कुछ तो नार्मल था! तुरन्त आई.सी.यू. में भर्ती किया।.....चौबीस घंटे बाद वे फिर
प्राइवेट रूम में थे। डॉक्टरों के हिसाब से अब वे ख़तरे से बाहर थे।
अगले दिन जब फिर तबीयत
बिगड़ी, तो उन्होंने आई.सी.यू. में जाने से मना कर दिया।
डाॅक्टर ने कहा कि ओपेन सर्जरी कर देते हैं, सब ठीक हो
जायेगा, पर उन्होंने मना कर दिया।
बेटे को ख़बर दी
गयी- वह कैलीफ़ोर्निया में था। अब तक
हाल-चाल का लेन-देन हो रहा था।
बेटे ने आने का
कार्यक्रम बना लिया। कल दोपहर तक दिल्ली आना पक्का हो गया। उसके बाद तो एक-डेढ़
घंटा बहुत था- फ़्लाइट से आने के लिए।
अगले दिन की दोपहर!
पी.जी.आई. में पापा बेटे के आने की राह देख रहे हैं। पत्नी से पूछते हैं- ‘‘वह आ भी रहा है कि तुम यों ही
मुझे बहलाने के लिए.....’’, उनका गला रूँध गया। आँखें छलछला
आयीं।
‘‘नहीं, वह दिल्ली में है, आ रहा है। अभी-अभी बात हुई है!’’,
पत्नी ने पति को मोबाइल दिखाते हुए ढांढस बँधाया।
‘‘शायद, हमसे ही कोई चूक हो गयी- गोलू के लालन-पालन में, वरना.....’’,
उनकी आंखें फिर छलछला उठीं। स्मृति में अतीत ठहर-सा गया।.....गोलू
ने बी.काम. करने के बाद एम.बी.ए. करने की इच्छा जतायी थी। इकलौता बेटा होने के
कारण माँ-बाप का दुलारा था ही, पढ़ने में भी अच्छा था।
बंगलौर स्थित एक प्रतिष्ठित कालेज से गोलू को एम.बी.ए. करा दिया। फ़ाइनल इग्ज़ाम
से पहले ही ‘कैम्पस सेलेक्षन’ हुआ था-
मल्टीनेशनल कम्पनी ने बीस लाख पर उसका प्लेसमेंट किया। कालेज में इतना महँगा प्लेसमेंट
पहली बार हुआ था।...कालेज के प्रिंसिपल से लेकर दोस्त-रिश्तेदार और मम्मी-पापा,
सभी प्रसन्नता से भर उठे थे!
तीन घंटे बीत गये। गोलू
का कहीं पता नहीं, जबकि दो-ढाई घंटे में ही आने को कहा था।
गोलू की कम्पनी का एक आफि़स
दिल्ली में भी है। वह यहां का ‘कंट्री हेड’ है। उसके यहां आने के उपलक्ष्य में स्टाफ़ ने एक ‘वेलकम
मीटिंग’ रख दी थी। मीटिंग में पहुंचते ही उसने मम्मी को
मोबाइल कर दिया था। क्या पता था कि मीटिंग में इतनी देर हो जायेगी कि फ़्लाइट ही
छूट जायेगी!
जल्दी-जल्दी एयरपोर्ट
पहुंचा, पर तब तक बोर्डिंग क्लोज हो गयी. आतंकवादी
गतिविधियों के कारण ‘चेक-इन’ में काफ़ी
देर लग गयी। उसने लाख चाहा कि बोर्डिंग हो जाए, पर न हो सकी।
अगली फ़्लाइट डेढ़ घंटे बाद थी।....मम्मी के मोबाइल पर उसने वस्तुस्थिति बतला दी।
एयरपोर्ट पर इधर-उधर
टहलता गोलू अचानक असहज हो उठा। उसने मम्मी को मोबाइल लगाया, पर
लगा नहीं। दो मिनट बाद उसने फिर कॉल किया, पर इस बार भी कोई
उत्तर नहीं! आधे घंटे में उसने कोई पांच-छः बार मोबाइल लगाया होगा, पर सब व्यर्थ!
किसी अनहोनी की आशंका
से वह बेचैन हो उठा। उसने मम्मी को एक बार फिर मोबाइल लगाया, पर इस बार भी कोई उत्तर नहीं!
उधर अस्पताल में फ़ाइनल
बिल बनवाने और लाश गाड़ी बुलवाने का इन्तज़ाम हो रहा है।
सवेरा
नशे में धुत्त हंसा
बैंक की लान में या उसकी बाउंड्री से सटी नाली में पड़ा मिलता, जहां
पिछले पांच सालों से वह जनरेटर चलाने से लेकर चपरासी का काम किया करता था। उम्मीद
थी कि रेगुलर हो जायेगा, पर न हो सका. वह विक्षिप्त-सा हो
गया।
एक दिन अचानक
वह गायब हो गया। उसकी पत्नी एक-दो बार बैंक में पता लगाने आयी, पर
उसका पता तो उसी के पास था। लोगों ने मान लिया था कि वह शराब के नशे में या तो रेल
के नीचे आ गया होगा, या फिर किसी नदी-ताल में डूब गया होगा। लेकिन
उसकी पत्नी यह मानने को तैयार न थी कि हंसा आत्महत्या करेगा।
क़रीब दो
महीने बाद एक शाम वह बैंक बाबू इलाही के क्वार्टर पर प्रकट हो गया। अपने गायब रहने
के बारे में इधर-उधर की बातें करने के बाद इलाही से उसने परचून का खोका डालने के
लिए पांच हजार रुपये उधार मांगे। इलाही उसे तीन हज़ार रुपये इस शर्त पर देने को
राज़ी हो गया कि वह शराब को हाथ न लगाये! फिर कहा- ‘‘मैं जानता हूं कि तुम
वादा करके भी शराब नही छोड़ेगे, क्योंकि तुम शराब को नहीं पी
रहे, बल्कि वह तुम्हें पी रही है। उस दिन की सोचो हंसा! जब
तुम यह दुनिया छोड़ शराब की किसी खाली बोतल की तरह सड़क पर लुढ़के पड़े होगे। तब
तुम्हारा घर कौन संभालेगा?.... अच्छा बताओ हंसा, तुम अपनी माँ की इज़्ज़त करते थे कि नहीं? अगर वाकई
इज़्ज़त करते थे, तो तुम शराब को छोड़कर माँ को सच्ची
श्रद्धांजलि दो!’’
सौदा कठिन
सौदा था,
फिर भी हंसा ने शर्त मान ली। इलाही की बातें उसके दिल पर चोट के
साथ-साथ मरहम भी पहुंचा रही थी। ऐसी चोट और मरहम जिसे हम अपनों में तलाशते हैं और
अक्सर मायूस होते हैं।.....वह इलाही के पैरों पर गिर पड़ा- ‘‘हमको माफ़ कर दो इलाही बाबू! अब हम शराब को कभी हाथ नहीं लगायेंगे!’’
उसके मानस में वह संध्या कौंध गयी जब वह माँ की दवा पड़ोस के गांव
के आदमी के हाथ भिजवायी थी, और स्वयं रात भर ठेके पर पड़ा
रहा था।.....माँ को दवाई समय पर न मिल सकी और अगले दिन वह चल बसी थी।....उसका
अपराधी मन बार-बार यही दुहराता- ‘समय पर दवाई मिल जाती,
तो माँ ज़रूर बच जाती!’
देर रात वह
घर पहुंचा। पत्नी आश्चर्यचकित, क्रोधित भी! पर दो ही पलों में उसका क्रोध आंखों से
पानी बन बहने लगा।..... महीनों गायब रहने के बारे में पत्नी ने जब पूछा, तो
वह इधर-उधर की बातें कर असली बात टाल गया। पत्नी ने भी जि़द नहीं की। खाना-पीना
हुआ. दोनों बिस्तर पर आ गए. हंसा ने उसके बालों में उंगलियां फेरते हुए उसने परचून
की दुकान खोलने की चर्चा की। इलाही से तीन हज़ार रुपये मिलने की भी बात कही. फिर उसकी
आंखों में झांकने लगा।
पत्नी समझ
गयी कि तीन हज़ार में दुकान तो नहीं खुलने वाली, उसे गहने बेचने
पड़ेंगे। फिर चिन्तातुर हुई- ‘गहने बेचकर भी अगर दुकान न
खुली, तो क्या होगा?’ हंसा ने ताड़
लिया कि वह गहनों को लेकर असमंजस में है। कहा-‘‘अगर तुम्हें
भरोसा न हो, तो रहने दो। कोई और रास्ता निकालूंगा लेकिन अब
उस रास्ते पर नहीं चलना चाहता जिसे मैं छोड़ आया हूं।’’
पत्नी ने
अनुमान लगाया कि हंसा शायद आपराधिक जीवन जीने लगा था और उससे किसी प्रकार छुटकारा
पा घर लौटा है। अगर वह गहनों का मोह करती है तो पति फिर अंधे कुंए में गिर सकता
है।....
आशंका ने मोह
पर विजय पायी। ज़मीन में रोपी बक्सिया को खोद उसमें से उसने हंसुली और करधनी
निकाली और हंसा के सामने रख दी।
मैकू
मैकू मेहनती मजदूर था, पर शराब
का लती। गांव से सटे शराब के ठेके पर वह शाम ढलते-ढलते रोज ही दिन भर की कमाई
लुटाने पहुंच जाता। पत्नी और किशोर वय का उसका बेटा घर में उसकी राह देखते रहते और
जब वे रुखी-सूखी खा लेट रहते, तब मैकू आता और गर्म-गर्म रोटियों के लिए
गालियों पर उतर आता। यह उसका रोज़ का कार्य
था.
घर की हालत देख बेटे का
मन पढ़ाई में न लगा और उसने पढ़ाई छोड़ मजदूरी करनी शुरू कर दी। घर की आर्थिक दशा
सुधरी, पर बेटे को एक ही फि़क्ऱ थी- पिता की षराब कैसे छूटे?
मां-बेटे, दोनों समझा-बुझा और लड़-झगड़ कर हार
चुके थे। माँ की सहमति से बेटे ने एक योजना बनायी।
अगली शाम मैकू जब ठेके
पर पहुंचा, तो उसके होश उड़ गये। दोनों मां-बेटे वहां मौजू़द
थे। दोनों ने कहा- ‘‘हम भी पियेंगे!’’
मैकू हक्का-बक्का रह
गया। कुछ कहते न बना- किसी तरह उन्हें लेकर घर लौटा। घर पहुंचकर मैकू ने पत्नी को
पीटना चाहा, पर बेटा बीच में आ गया। मैकू ने उसे भी मारने के
लिए हाथ उठाया, पर उसने हाथ पकड़ लिया। बेटा जवान हो चुका
था- इसका अन्दाज़ा मैकू को आज हुआ। जवान बेटे पर हाथ उठाने की उसकी हिम्मत न रही।
शराब न मिलने से वह
बेचैन था। गु़स्से के मारे उसने खाना भी न खाया था। ठेके पर चाट वग़ैरह चुस्की के
साथ खा लेता था- आज उसका भी मौक़ा न लगा था!.....पत्नी और बेटे से सार्वजनिक रूप
से हारा वह भीतर से घायल महसूस कर रहा था।...... गु़स्सा अभी भी सिर पर सवार था.
बेटा पास ही सोया हुआ था। पहले तो उसे इतनी गुस्सा आयी कि सोते हुए बेटे की पिटाई
कर दे, पर क्षण-भर में ही उसका हृदय उसे धिक्कारने लगा- शराब
की ख़ातिर बेटे को मारेगे?
आंखों में पाश्चाताप के
आंसू आ गये।.....वह सोने की कोशिश करने लगा, पर भूख के मारे
नींद न पड़ी। अचानक वह उठा, पानी पिया और ठेके की ओर चल पड़ा,
लेकिन जब वहां पहुंचा, तो देखा कि ठेका कब का
बन्द हो चुका है। बुझे मन से वापस लौटा।......रास्ते में एक मकान से कुछ आवाजें आ
रही थीं। वह कान लगा सुनने लगा- ‘‘कल हम जनी भी ठेके पर
जायेंगी!’’ यह किसी स्त्री की आवाज़ थी। तभी एक लड़के की
आवाज़ भी सुनायी दी- ‘‘ठेकेदार की बेटी भी हमारे साथ है।
देखते हैं, गांव में
अब कैसे शराब बिकती है?’’
बातें सुनकर मैकू के तो
जैसे होश उड़ गये। वह दबे पांवों घर आया। चुपचाप बिस्तर पर पड़ गया, पर आँखों में नींद न थी. आंखों के सामने बेटे का तमतमाया हुआ चेहरा और
कानों में शराब के ठेके के उखड़ने की आवाजे़ं! वह देर तक करवटें बदलता रहा और सोचता-विचारता
रहा।...अंततः उसने शराब न पीने की क़सम खायी। उसके बाद कब उसकी आंख लग गयी- पता न
चला!
अगले दिन नये मैकू का
जन्म हुआ। शराबी मैकू कब का ख़त्म हो चुका था।
धनिया
धनिया के ग़रीब
मां-बाप बचपन में ही गुज़र गये थे। बड़ा भाई बाप और भौजाई माँ थी। भाई भट्टे पर
मज़दूरी करता और भाभी घर का काम-काज संभालतीं। साथ-ही, गांव के समृद्ध घरों में
घरेलू काम कर चार पैसे भी कमातीं।
कक्षा आठ में
पढ़ने वाली धनिया तेज़ थी,
पर घर का माहौल ऐसा था कि पढ़ाई बाधित होती थी। घर के नाम पर गांव
की परती में पड़ी झोपड़ी थी। उसी में खाना-पीना, रहना-सोना
और पढ़ना। कुछ-न-कुछ काम भी करना पड़ता। भाभी जब कहीं काम करने जातीं, तो धनिया को खाना भी बनाना पड़ता। कभी-कभी स्कूल गोल हो जाता। टीचर उसे
डांटते-समझाते- बेटा! सरस्वती की कृपा सब पर नहीं होती। पढ़ाई पर ध्यान दो,
तुमसे बहुत उम्मीदें हैं! टीचर की प्यार भरी डांट से धनिया फूली न
समाती। भाभी को सब बताती। साक्षर भाभी पारिवारिक कारणों से खु़द पढ़ न पायी थी,
पर चाहती थी कि धनिया पढ़े।
धनिया का भाई- काला
अक्षर, भैंस बराबर! स्कूल का मुंह भी न देखा! स्कूल जाता,
तो पेट कैसे भरता? जब से जानने वाला हुआ- ख़ुद
को भट्टे पर पाया। पिता भी भट्टे पर थे और कहीं दूर से भागकर आये थे। पता नहीं
मजदूरी के कारण या किसी और कारण? वह आज तक न जान पाया! लोगों
से सुना था कि गांव में किसी दबंग को मारा था और गिरफ़्तारी से बचने के लिए वहां से
भाग निकला था! जिसको मारा था, उससे गांव-जवार वाले ऊबे थे और पुलिस को गवाही न
मिलने के कारण मामला ठंडा पड़ गया था।
जब बाप यहाँ आया, तब वह माँ के पेट
में था.....वह सात साल का रहा होगा कि पिताजी ज़हरीली शराब का शिकार हो गए। फिर साल
भर में माँ भी चल बसी। उसे टी.बी. थी, इलाज की व्यवस्था न थी।
घिसट-घिसट कर जीने से उसका मर जाना ही ठीक था। वह मरी न थी, जीवन
के अभिशाप से मुक्त हुई थी।.... तब से अपनी जि़न्दगी का पालनहार वह ख़ुद था। मेहनत
से घबराता न था, ईमानदार था, क़द-काठी
भी अच्छी थी- इसलिए भट्टा-मालिक का प्रिय मजदूर था। हाल ही में वह मेट बना दिया
गया था- मज़दूरों का सुपरवाइज़र!
उसे धनिया के विवाह की
चिन्ता थी। एक-दो जगह रिश्ता भी देख रखा था। धनिया अभी पढ़ना चाहती थी। भाई भी
पढ़ाई में बाधा नहीं था, यदि कोई बाधा थी, तो वह थी- उनकी ग़रीबी! वह यदि धनिया को आगे पढ़ाता, तो उसके लिए वर कहाँ से लाता? पढ़ी-लिखी लड़की के
लिए पढ़ा-लिखा वर चाहिए! पढ़े-लिखे वर के लिए दहेज भी चाहिए- कहां से लाये वह दहेज?
इसलिए चलन के हिसाब से लड़की की शादी किसी कम-पढ़े लड़के से करना ही
उचित था और वह भी जल्दी! वरना, कम पढ़ा-लिखा लड़का कहीं
हुनरदार निकल गया, तो उसके भी भाव नहीं मिलेंगे!.......यही
सोच भाई ने एक राजमिस्त्री लड़के से धनिया के रिश्ते की ठानी। भाभी भी रिश्ते को
लेकर आश्वस्त थीं। लड़के के घर में सभी थे- मां, बाप,
छोटा भाई और बहन! बाप-बेटे, दोनों कमाते थे।
घर भी दो कमरों का बना था- पक्की दीवारें और टीन की छत! दहेज के नाम पर कोई मांग
नहीं थी- जो इच्छा हो और जितना आसानी से हो जाए- लड़की पढ़ी-लिखी होनी चाहिए,
सो थी! ऐसा रिश्ता मिलना मुश्किल था।
धनिया आठवीं में फर्स्ट
डिवीज़न पास हुई थी। स्कालरशिप मिलती थी. स्कूल की ओर से जब उसका सम्मान किया गया
और उसे जब ग्यारह सौ रुपये का लिफाफा दिया गया, तो जैसे उसके
पंख लग गये। उन दिनों स्कूल में एक ही न्यूज़ छायी रहती थी- कल्पना चावला
अन्तरिक्ष में जाने वाली पहली भारतीय महिला! अपनी कल्पना में धनिया स्वयं को
कल्पना चावला समझे हुई थी।....न कल्पना सही, तो कुछ और,
लेकिन जि़न्दगी यूं ही नहीं गंवा देनी है- किसी मजदूर की मजदूरनी
बनकर!
धनिया को जब पता चला कि
उसकी शादी तय हो रही है, तो वह भाभी से लड़ने लगी- वह क्या
बोझ है उन पर? उसे शादी-वादी नहीं करनी! अभी उसे पढ़ना है,
कुछ बनना है, देश-दुनिया के लिए कुछ करना है!
वह कोई मादा-भर नहीं है, वह भी इन्सान है। पढ़-लिखकर कुछ
बनना चाहती है।
भाभी के माध्यम से भाई तक उसके मन की
बात पहुंची। भाई-भाभी में नोंक-झोंक हुई, लेकिन जीत धनिया की हुई।
आश्रय
बेटे को पढ़ाने में
घर तक गिरवी हो गया। बेटी की शादी में सारे जे़वर बिक ही गये थे। उम्मीद थी कि जब
बेटे की नौकरी लग जायेगी,
तो सारा दुख-दारिद्रय दूर हो जायेगा, लेकिन
होनी कुछ और थी।
बेटे की नौकरी लगी,
लेकिन मर्चेंट नेवी में। उसको ज्वाइन किये मुष्किल से अभी दो महीने
हुए थे कि रोड एक्सीडेंट में माँ चल बसी।
कार वाले की कोई ग़लती
न थी। शाम हो रही थी, अभी अच्छी-खासी रौषनी थी, कार की हेड लाइट भी नहीं जली थी, पर आंखों में माड़ा
होने के कारण थोड़ी ही दूर पर उन्हें कार दिखायी न पड़ी। सिर में चोट लगने के कारण
मौके़ पर ही मृत्यु हो गयी थी।
बेटे को ख़बर देने का
प्रयास किया गया, पर सफलता न मिली। उस समय वह जहाज पर था। ‘सेल’ कर रहा था। मोबाईल के लिए वांछित सिगनल नहीं
था। जहाज के कैप्टन का आफिषियल नम्बर था, पर वह तो सेटेलाइट
से सम्पर्क में था। लगभग चौबीस घंटे बाद, दाह-संस्कार कर
दिया गया।
एक महीने बाद ख़बर की
जा सकी। बेटा घर आया, लेकिन भीगी आंखों से माँ की फोटो पर
माला चढ़ाकर वापस चला गया। छः महीने बाद दुबारा आया। तब दरिद्रता तो कुछ दूर हुई,
पर माँ के बिना उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। पिता ने सुझाव दिया
कि यही कोई नौकरी कर लो, लेकिन पुरानी नौकरी के लिए लिये गये
कर्ज़ को उतारना की समस्या थी।
कुछ दिनों की विकलता के
बाद बेटा फिर ‘सेल’ पर चला गया । पिता-पुत्र,
दोनों में अपराध-बोध था, यदि माँ के कैटरेक्ट
का आपरेशन हो जाता, तो दुर्घटना टल सकती थी, पर सारी समस्याओं की जड़ में पैसा था। अब जबकि बेटा कमाने लगा था, तो ख़ुशियों के दिन लौटने के बजाए दुर्दिन में बदल गये थे।
माँ की मृत्यु के बाद
बेटी कुछ दिनों तक घर पर रही, लेकिन बेटी का अपना घर था- पति,
देवर और बीमार सासु माँ ! वह गर्भवती भी थी, इसलिए
उसकी स्वयं देखभाल की ज़रूरत थी ।
उसके जाने के बाद पिता
अकले रह गये। घर काटने को दौड़ता था। खाना बनाने का अभ्यास नहीं था। कभी खिचड़ी,
कभी दलिया, कभी पराठा-दही! इसी से गुज़र हो
रहा था। कभी किसी दोस्त के घर या बाज़ार से कुछ खा-पी लौटते । डायबिटीज़ भी थी,
पर वह माँ की चेतावनी और अनुषासित खान-पान से नियंत्रण में थी। अब
अकेले पड़ जाने के कारण खाना-पीना वक़्त-बेवक़्त होने लगा।....थोड़े ही दिनों में
बीमार पड़ गये।
बीमार का इलाज न हो,
तो वह मुत्युषैय्या पर पहुंच जाता है। यही हाल पिता का था। बेटी को
ख़बर मिली। वह दौड़ी-दौड़ी आयी और लाख मना करने के बावजू़द अपने साथ ले गयी।
दस-बारह दिन तो वे बेटी-दामाद के घर रहे, पर न जाने क्या बात
हुई कि वापस आ गये। कुछ दिनों तक घर में रहे, पर बाद में कहाँ
चले गये- कुछ पता नहीं!
बेटा जब घर लौटा,
तो ताला पड़ा था। पड़ोसियों ने बताया कि कुछ दिन पहले पिताजी मानसिक
चिकित्सालय के जनरल वार्ड में देखे गये थे। बेटे ने जब वहां पता किया, तो पता चला कि दो दिन पहले वे रात में अचानक कहीं चले गये! बेटे ने उन्हें
बहुत ढूढ़ने की कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। निराश हो घर
लौट रहा था कि उनकी नज़र चिकित्सालय के पास चैराहे पर लगे ‘आश्रय’
के विज्ञापन पर पड़ी।
पता नहीं क्या सोच उसने
‘आश्रय’ की और अपनी मोटरसाइकिल मोड़
दी!
वहाँ पहुँचकर वह अवाक्
रह गया। पिताजी वहां बरामदे में बैठे हुए थे। अपने साथियों से बता रहे थे- कैसे वे
अस्पताल से यहाँ पहुँचे थे! वे कोई पागल थोड़े ही थे- वे तो अवसाद में आ गये थे,
लेकिन डाक्टरों को क्या कहें? वे तो बिजली का शाक
लगाने वाले थे कि किसी तरह वहाँ से निकल भागे! हालांकि वह कुछ बहकी-बहकी बातें कह
रहे थे, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता था कि वे होशोहवाश में न
थे!
‘आश्रय’ से पिता को लेकर वह घर आ चुका था। बहन को बुलाना संभव न था- उसकी डिलीवरी
ड्यू थी।
मुंबई स्थित एक शिपिंग
इंस्टीट्यूट में तीस हज़ार की नौकरी तलाशने के बाद आज वह पिता को लेकर मुंबई जा
रहा था।
एक उदास रात
वह दिसम्बर 1999
की उदास रात थी। आतंकवादियों ने अपने बन्दी साथियों को छुड़ाने के लिए इंडियन
एयरलाइन्स की बस को बन्दी बना लिया था।
क्या राश्ट्पति,
क्या उपराश्ट्पति, क्या पक्ष और क्या विपक्ष!
हर कैडर का हर नेता राश्ट्ीय तौर पर उदास था।....... सिंहासनानन्द जी का मुख-कमल
भी मुरझाया हुआ था। ऐसे अवसर पर परम्परा के अनुरूप वे मौन थे। मैंने चुप्पी तोड़ी-
‘‘भगवन! आप को व्यवस्था के नियामकों में से एक हैं।
भविश्य-द्रश्टा भी हैं। कृपा कर बताइए कि यवन आतंकियों के चंगुल से हमारी एयर-बस
कब मुक्त होगी?’’
तब उन्होंने आध्यात्मिक
छटा बिखेरता हुआ यह दोहा पढ़ा-
प्रभु-प्रेरित
प्रभुता प्रखर, प्रभुता-प्रेरित पीर।
पीड़ा-प्रेरित
प्रार्थना, प्रगटत प्रणव-प्रवीर।।
फिर उसका अर्थ भी
स्पश्ट किया- ‘‘जब-जब भी भगवान की प्रभुता प्रखर होती है, तब-तब
उनसे प्रेरणा पाकर पीड़ा जन्म लेती है। पीड़ा से प्रार्थना जन्मती है। तदुपरान्त
किसी परमवीर का अभ्युदय होता है, ताकि पीड़ा का अन्त हो।’’
‘‘किन्तु यह तो
श्रीकृश्ण ने पांच हजार वर्श पहले ही गीता में कह दिया था- यदा-यदाहि धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारत! आप यह बतलाइए कि एयरबस कब मुक्त होगी?’’
‘‘धैर्य! धैर्य!! यह
धैर्य की घड़ी है। यह हमारे और आतंकियों के धैर्य की परीक्षा है। हमारा हाईकमान
नख-षिख चिन्तातुर है। वह राश्ट्ीय हितों के सम्मुख अपने घुटने कभी नहीं टेकेगा!
किन्तु मानवतावादी दृश्टिकोण भी विचारणीय है।....मेरी दृश्टि कल के सूर्य पर है।
वह अपने साथ मुक्ति की किरणें अवष्य लायेगा।’’
‘‘लेकिन मैं जो देख रहा
हूं, उसका क्या होगा?’’
‘‘आप क्या देख रहे हैं?’’
उन्होंने प्रतिप्रष्न किया।
‘‘मैं देख रहा हूं कि
मिलेनियम के स्वागत हेतु दीवानों का धीरज टूट रहा है। उनके हृदय के प्रांगण में
सिमटी हुई उत्सवधर्मिता बाहर निकलने को छटपटा रही है। नये मिलिनियम, नये वर्श की तैयारियां व्यर्थ जा रही हैं। करोड़ों की हानि होने को है।
हमारी संस्कृति की कोख में पल रहा पष्चिमी संस्कृति का षिषु अत्यन्त उदास है। वह
कैसे जन्म लेगा? इससे तो अच्छा होता कि उसकी भ्रूण-हत्या ही
हो जाती! चांद-सितारों के विहंसने के उपरान्त भी पड़ोसी देषों का चेहरा लटका हुआ
है। आप उनके लिए कुछ करें भगवन!’’
‘‘हां, ठीक है, कठिन परिस्थिति के दौर से हम गुज़र रहे हैं,
पर निर्णायक स्थिति में पहुंचने में थोड़ा विलम्ब हो ही जाता है। आप
कल के सूरज की प्रतीक्षा कीजिए।’’ यह कहकर वे पलायन कर गये।
अगले दिवस वे स्वयं
मेरे यहां पधारे और अपने तेजोमय ललाट को उन्नत कर बोले, ‘‘लो,
हमने उदासी को देषनिकाला दे दिया है। बन्धक बनाये गये लोगों को वापस
लाया जा रहा है। अब तो आप मुस्कुराइए!’’
‘‘तो क्या आतंकवादियों
को ससम्मान मुक्त कर दिया गया? क्या उनके सम्मुख घुटने टेक
दिये गये? क्या राश्ट्ीय अस्मिता को लुट जाने दिया?’’
‘‘और कोई अहिंसात्मक
मार्ग नहीं था।’’ उन्होंने कहा। अपनी ही बात सुन संभवतः
उन्हें षर्म आ गयी। लेकिन वे अविलम्ब संभले और एक आवष्यक कार्य बताकर चले गये। मैं
उनका जाना देखता रहा।
कोई पांच-छः घंटे बाद
लोग हठपूर्वक मिठाइयां खा-खिलाकर मूर्खता-सनी प्रसन्नता बिखेर रहे थे। वातावरण में
दीपावली के बम फूटने का उल्लास था। नवयुवक-नवयुवतियों के चेहरों पर ऐसा उल्लास था,
जो मिलेनियम के आने पर होना चाहिए। बाज़ार सज गये थे। टी.वी.चैनल
कमर कस चुके थे। फि़ल्म स्टार्स अपने मेक-अप में व्यस्त थे। अभी उन्हें लोकलुभावन
हास्य-लास्य अभिनय करना था। खिलंदड़ों की मुस्कान उनके चेहरों पर ऐसे सुषोभित थी
जैसे उनका मन कोई पढ़ ही नहीं सकता था।
हो-हल्ला सजा हुआ था।
रंगीनयां षवाब पर थीं। एक देश में सारा विष्व समाया हुआ था। भारत और इंडिया,
दोनों ग्लोबल हो रहे थे। पुराने ख़याल के बूढ़े, बीमार, भिखारी, ग़रीब
रिक्षेवाले, दिहाड़ी पूरी कर लौट रहे मजदूर, मदिरालय से खदेड़े गये षराबी इस हल्ले-गुल्ले के आनन्द से वंचित थे। मैं
देषवासियों और नेतृत्व के आचरण से निराश था।
इस हो-हल्ले से अलग कुछ
आत्माएं उंचाई पर अवस्थित थीं। उनके मुंह लटके हुए थे। मैंने उनसे पूछा- ‘‘क्या आप लोग न्यू मिलेनियम सेलिब्रेट नहीं कर रहे? आपको
देषवासियों के मुक्त होने की कोई प्रसन्नता नहीं? कैसे
संवेदनाविहीन हैं आप सब?’’
मेरे बहुत कहने पर वे
लोग दुखी मन से बोले, ‘‘श्रीमन्! हमारे भाग्य में हंसना नहीं
लिखा है। हम केवल रो सकते हैं। हम करगिल के षहीद है न!’’
ज्योतिषी
बड़ी-बड़ी बातें करने
वाला ज्योतिशी राज-दरबार पहुंचा। अपने बारे में भी उसने खूब बढ़ा-चढ़ाकर बताया।
किसी का मस्तक देख वह उसके मन में हो रही उथल-पुथल के बारे में उसके कान में
बताता। भविश्य सुनने वाला चकित रह जाता। फिर वह कोई-न-कोई उपाय सुझाता जो जिज्ञासु
की मनोकामना पूर्ण होने के लिए आवष्यक होती। कई दरबारियों पर उसने यह सूत्र
आज़माया। इस युक्ति से उसने दरबारियों पर रंग जमाँ लिया। दरबारी भी प्रसन्न!
ज्योतिशी महामंत्री के कान में राजा बनने का उपाय बताया। महामंत्री के मन में लालच
आ गया। ज्योतिशी ने उसे कुछ उलूल-जुलूल टोटके बताये और धन ऐंठने की जुगत बना ली।
राजा बुद्धिमान था,
वह इस ढोंग में विष्वास नहीं करता था। वह लेकिन यह सब तमाषा चुपचाप
देख रहा था। उसने ज्योतिशी को पास बुलाया, पूछा- ‘‘आपको अपना भविश्य ज्ञात है?’’
‘‘अवष्य!’’
‘‘घर से
निकलते समय आपने अपना भविश्य बांचा था? कैसा है आपका दिन?’’
‘‘मेरा आज
का दिन उज्ज्वल है। मुझको सहस्र स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त होने का योग है!’’
‘‘आज आप
अपने घर वापस जा सकेंगेे?’’
‘‘अवष्य!’’
‘‘एक बार
फिर अपना भविश्य देख लीजिए, कहीं कोई चूक तो नहीं?’’
‘‘नहीं!
मैं आज सहस्र स्वर्ण मुद्राएं लेकर अपने घर अवष्य लौटूंगा।’’
राजा ने ज्योतिशी को
आजीवन कारावास में डलवा दिया। सिपाही जब उसे ले जा रहे थे, तो
वह अपनी रिहाई के लिए गिड़गिड़ा रहा था- ‘‘मुझे छोड़ दीजिए,
महाराज! अब मैं आपके राज्य में कभी पैर नहीं रक्खूंगा! यह
ज्योतिश-कर्म भी त्याग दूंगा!’’
लेकिन, राजा ने एक न सुनी, कहा- ‘‘मुझे
खेद है कि तुम्हें कै़द में डालना पड़ रहा है, क्योंकि तुम
झूठे, कामचोर और, मक्कार हो!। ये
दुर्गुण तो तुम पाले ही हुए हो, उनका प्रचार कर अपराध भी
किया है। इसलिए तुम्हें मुक्त नहीं किया जा सकता। तुम निर्दाेश नहीं हो, हमारी भोली-भाली प्रजा को भविश्य का भय या लोभ दिखाकर अपनी स्वार्थपूर्ति
करना चाहते थे।’’ फिर कहा, ‘‘तुम्हें
यदि यह ज्ञात होता कि आज मेरी उम्रकै़द होने वाली है, तो तुम
हमारे दरबार में आते?
शनि का बल
चकबन्दी अदालत में
लगे मुकदमे में आज पेषी थी। वकील साहब के कहने के अनुसार, वह
ग्यारह बजे अदालत पहुंच गया, पर उस समय तक न वकील साहब अपने
तखत पर थे और न ही जज साहब आये थे। वकील साहब का मुंषी ज़रूर आ गया था। उसने बताया
कि वकील साहब देर से आयेंगे। फिर सुझाव दिया- ‘‘जाइए,
थोड़ा घूम-फिर लीजिए, बारह बजे तक आइए!’’
समय काटने के लिए वह
सड़क पर टहलने लगा। चाय-पानी और सिगरेट-पानमसाला की गुमटियां मुष्तैदी के साथ डटी
हुई थीं। पूड़ी-छोले वाला ठेला अभी-अभी आया था। लइया-चना और फल वाले ठेले भी पहुंच
रहे थे।......उसने भूख महसूस की। दो पूडि़यां खाकर चाय पी। फिर सिगरेट सुलगाकर वह
इधर-उधर लोगों की आमदरफ़्त का जायज़ा लेने लगा।
एक-चैथाई सड़क को
पालीथीन से घेरकर दुकान सजाये एक ज्योतिशी ने ‘आसान षिकार’
समझ उसे संकेत से बुलाया। ज्योतिशी के मुंह में पान-मसाला भरा था।
दुकान में ऐंठे हुए जनेउ, नकली रत्न और तांबें वाली
अंगूठियां, चन्दन की खडि़यां, और तांबे
के छोटे-छोटे पत्र सजे थे जिन पर हनुमान, षंकर-पार्वती,
गणेष, काली माता, वैश्णव
माता, बालाजी आदि की मूर्तियां खुदी थीं। बरसाती के एक
हिस्से पर षनि महाराज का छत्र और लोहे के छल्ले सजाये हुए थे। इनके आगे हनुमान
चालीसा, दुर्गा चालीसा, राम चालीसा,
आरती-संग्रह, वैश्णोदेवी के भजन आदि कितबियां
सजी हुई थीं।
ज्योतिशी ने उसे अपनी
दुकान के सामने बैठने को कहा, पर वह खड़ा रहा। दुकानदार ने
पीछे मुंह घुमाकर पान-मसाला थूका, और लगभग डांटते हुए कहा- ‘‘बैठा जा! तेरा षनी आजकल बहुत उधम मचाये हुए है। षान्त करा दूं? सब बिगड़े काम बन जायेंगे। ला, एक सौ एक रुपये निकाल!’’
‘‘लेकिन मेरे पास तो एक
सौ एक नहीं हैं’’ आदमी बोला।
‘‘कोई बात नहीं,
कितने हैं? चल इक्यावन निकाल!’’
‘‘मेरे पास इक्यावन भी
नहीं हैं!’’
‘‘फिर कितने हैं?
इक्कीस तो होंगे? चल इक्कीस निकाल!’’
‘‘मेरे पास बीस का नोट
है। इसमें से भी मुझे पन्द्रह का बस का टिकट भी लेना है। पांच रुपये में षनि
महाराज की पूजा हो सकती हो तो करा दीजिए महाराज!’’
ज्योतिशी तंग आ चुका
था। हाथ जोड़ बोला- ’’जा, मेरे बाप,
जा! पांच रुपये की चाय मेरी तरफ़ से पी लेना! जब पूजा के लिए तेरे
पास ग्यारह रुपये भी नहीं हैं, तो षनी तेरा क्या बिगाड ल़ेगा?’’
सांप और आदमी
आदमी ने भूतल से
जोड़-तोड़ की सीढ़ी लगायी और विधान-भवन की आठ-मंजि़ली बिल्डिंग के सातवें तल पर
पहुंचा। वहां से आठवी मंजि़ल के लिए वह हांफते हुए एक-एक सीढ़ी चढ़ने लगा। सोचता
था कि लोग जब यह समझेंगे कि वह भूतल से एक-एक सीढ़ी चढकर यहां तक पहुंचा है, तो वे
उसके परिश्रम,
धैर्य और कर्मठ व्यक्तित्व का लोहा मानेंगे और वह कोई सम्मानित पद
पा जायेगा।...
पर उसका सोच एकांगी
सिद्ध हुआ। जैसे ही उसने आठवीं मंजि़ल पर पैर रखा, एक पालतू
सांप ने उसे डसा और वह सीधे भूतल पर औंधे मुंह गिरा। यह तो कहिए कि उसकी कि़स्मत
अच्छी थी कि सांप ने उसे डसने के पहले कइयों को डसा था, इसलिए
वह बेहोश होकर ही रह गया। दिव्यलोक नहीं पहुंचा।
भूतल पर, वह जहां गिरा था, वहां मुलायम घास वाली कल्याणकारी
भूमि थी। भूमि में पुराना गड्ढा था। उसमें उससे भी पुराना सांप रहा करता था।
दुर्योग से वह सांप के आवास के पास ही गिरा था। उसके गिरने की आवाज़ सुन सांप
ग़ुस्से से फुफकारते हुए बाहर निकला। उसे देख वह डरा, पर
भागा नहीं, क्योंकि उसमें भागने की ताव ही कहां थी? पड़ा-पड़ा वह उसके डसने की प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन सांप ने डसने के बज़ाए
उससे मानवीय संवेदना प्रकट की।
आदमी ने उसके अच्छे संस्कारों की
प्रशंसा करते हुए उससे पूछा कि वह भूतल पर क्यों जमाँ हुआ है, आठवीं
मंजि़ल पर क्यों नहीं चला जाता?
उसने बताया कि अब वहां
जाने में उसकी कोई रुचि नहीं है। पहले कभी थी, पर उसके
साथियों ने उसका पत्ता साफ़ कर दिया। अब उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही। अलबत्ता,
वह साथियों को सबक़ ज़रूर सिखाना चाहता है, अगर
मौक़ा लगे तो!.....उसने इच्छा प्रकट की कि यदि उसे कोई कैलाश पर्वत का रास्ता बता
दे, तो वह अवश्य वहां जाना चाहता है। वह अपने इष्टदेव- शंकरजी
की गर्दन और बांहों में लिपटकर अपना जीवन धन्य करना चाहता है।.....यहां आदमियों की
संगत में रहते-रहते उसके शरीर में आदमी का ज़हर भर गया है। इस कारण वह अपनी जाति
से भी निकाल दिया गया है। उसकी जाति वालों को डर है कि कहीं उसने उन्हें ग़लती से
काट लिया, तो वे मर जायेंगे।
आदमी को उस पर तरस आया।
उसने उसे कैलाश जाने वाले एक जत्थे के साथ कर दिया।.....
संयोग से आदमी को भी
साल भर बाद कैलाश पर्वत पर जाने का अवसर मिला। कैलाश पर्वत पर पैर रखते ही आदमी को
वही विधानसभा वाला सांप मिला। आदमी ने जब उसका हाल पूछा, तो
वह रुआंसा हो गया। बोला- ‘‘यहां से तो वहीं अच्छा था! शंकरजी
के ख़ास ठिकाने में उसको ही प्रवेश मिलेगा जिसने अपने दांत तुड़वा रखे हैं।... मैं विकलांग होने की शर्त पर प्रवेश
नहीं चाहता।’’
‘‘अगर काम बन रहा हो,
तो विकलांग होने में क्या हर्ज़ है? ख़ास-ख़ास ठिकानों पर विकलांग ही
बैठे हैं।’’
‘‘क्षमाँ करें, यह आदमियों का चरित्र है! मुझे आदमी नहीं बनना। मुझे सांप होने पर गर्व
है।’’ इतना कहकर वह अपने बिल में घुस गया।
घोड़ा, घास
और आदमी
धर्मरथ में जुते
घोडा़ंे मंे से एक घोड़ा अचानक उदात्त हो उठा।...... उसने हरी घास छोड़ दी।.....
अब वह भूसे और खली पर रहता। चने मिलने का प्रष्न ही नहीं था। वे जब आदमी को पूरे
नहीं पड़ते थे,
तो घोड़े को कैसे मिलते?
घोड़ा दुबला होता जा रहा था, फिर
भी अपने निर्णय से वह टस-से-मस न हुआ। घास लहलहा रही थी। हवा के संग-संग झूम रही
थी। वह घोड़े को ऐसे देखती जैसे उस पर व्यंग्य करना चाहती हो। कभी-कभी घोड़े को
लगता कि घास उसे चिढ़ा रही है, पर वह सोचता- ‘घास ऐसा क्यों करेगी? उसके कल्याण के लिए ही तो उसने
उसे छोड़ा है!’
हाल ही में उसे पता चला
था कि उसके पुरखों ने महाभारत का युद्ध लड़ा था। उसके मन में बार-बार यह विचार आता
कि हो-न-हो, उन्होंने अर्जुन का रथ भी जोता हो!......तब से
वह जंगली से ‘नागरिक’ हो गया था और
धर्म के रथ मंे सहर्श जुत गया था।......
उसका रथी राज्याश्रय
प्राप्त हट्टा-कट्टा मांसाहारी नौजवान था और देखने में श्रीकृश्ण की तरह सुदर्षन
था।.... घोड़ा कल्पना करता कि उसका रथी श्रीकृश्ण हैं और वह अर्जुन के रथ में जुता
हुआ है।.... वह धर्मयुद्ध के लिए निकला है। रथी जब उसे रथ से अलग करता तो वह रथी
से हिनहिनाकर पूछता- किसी जन्म में आप श्रीकृश्ण तो नहीं थे? पर दुर्भाग्य! रथी और घोड़े की भाशाएं अलग-अलग थीं। संवाद में भाशा बाधा
बनी हुई थी।
घोड़ा हिनहिनाता. तो
रथी समझता कि वह भूखा है! उसके खाने-पीने की व्यवस्था करवा देता। खा-पी लेने के
बाद भी घोड़ा प्रष्न पूछने के लिए हिनहिनाता। रथी समझता कि घोड़ा अभी भी भूखा है!
वह उसके अतिरिक्त खाने-पीने की व्यवस्था करवाता, पर घोड़ा
भूसे-खली को ज़मीन पर गिरा देता। कभी-कभी रौंद भी देता।......इस पर रथी ख़ूब
ग़ुस्साता और घोड़े पर चाबुक बरसाता।रथ के दूसरे घोड़ांे को यह दृष्य देख हंसी
आती। वे अपने साथी को समझाते, पर व्यर्थ।.....
सांड़, भैंसे, बकरे वग़ैरह जो घोड़े के लंगोटिया यार थे, अपने-अपने
क्षेत्रों की घास चर रहे थे। घोड़े ने उनसे भी घास छुड़वाने कोषिश की, पर नाक़ाम रहा। मौक़ा पा वे घोड़े के क्षेत्र की घास पर मुंह मार लेते।
घास की दिनोदिन बढ़ती
ऐंठ घोड़े को चिढ़ाती थी, फिर भी उसने अपनी हालत को क़ाबू
में रखा। वह जल्दबाजी में कोई क़दम नहीं उठाना चाहता था। एक पुराने मित्र से उसने
सलाह ली। उसकी सलाह पर घोड़े ने घास के रक्षार्थ वनान्दोलन भी चलाया, पर विफल रहा। सांड़, भैंसे आदि तो पहले ही उसके साथ
न थे, उसकी अपनी औलादें भी आन्दोलन को पीछे खींचती थीं। केवल
गधे उसके साथ थे।..... घोड़ा गधों को लेकर क्या करता?
हताश घोड़ा आत्महत्या
की सोच रहा था कि जंगल में चुनावों की घोशणा हुई। घोड़े ने भी कि़स्मत आज़मायी।
उदात्त विचारों के चलते वह सफल भी हुआ, किन्तु गोलबन्दी में
असफल होने से वह राजा बनते-बनते रह गया। राजा तो वही होता है जो घोड़े और घास में
सामंजस्य बनाये रख सके।....घोड़े को कौन समझाये?
उधर घोड़े के क्षेत्र
वाली घास पहले तो ऐंठती-इतराती रही, फिर पीली पड़ने
लगी।..... उसकी नयी पीढ़ी भी अपने जीवन की सार्थकता को लेकर व्याकुल रहने लगी-
पुरानी पीढ़ी उसके सिर पर लदी हुई थी! नयी पीढ़ी को आगे बढ़ने का पूरा अवसर नहीं
मिल रहा था। फिर भी उपलब्ध अवसर का उपयोग कर नयी पीढ़ी घोड़े को आकर्शित करती,
उसे ललकारती; लेकिन घोड़ा अपने सिद्धान्त से न
डिगा, तो न डिगा।
परेषान घास ने आदमी से
सलाह ली। आदमी पंचाट के लिए सहमत हो गया। उसने घास और घोड़े की बैठक बुलायी। दोनों
के पक्ष सुने। घास ने अपनी कि़स्मत का रोना रोते हुए उस क्षण को कोसा जब उसने
घोड़े से यारी करने का प्रस्ताव किया था।.....घोड़े ने भी अपना पक्ष रखा। उदात्तता
से विवश घोड़ा अपने निर्णय पर अटल था। कई दौर गहन विचार-विमर्ष चला।.......पंचाट
फ़ेल हो गया।
घोड़े पर फ़ब्तियां
कसने के साथ-साथ घास अन्य जानवरों, विषेशतः गधों को आकर्शित
करने लगी। गधों ने भी घोड़े का साथ देने से मना कर दिया।.....घोड़ा अपनी उपेक्षा
के बौखलाने लगा। उसकी औलादें तो पहले ही विद्रोह पर उतारू थीं।..... दोस्तों ने कब
का साथ छोड़ दिया था।
घोड़े ने अचानक उदात्ता
त्याग दी और ख़ानदान सहित घास पर हमला बोल दिया। जंगल में मंगल होने लगा।......
आदमी ने भी चैन की सांस ली।
क्षतिपूर्ति
जंगल में लोकतंत्र
बहाल हो चुका था। बहुमत से प्रस्ताव पारित हुआ कि राजाधिराज षेर के भोजन हेतु उनके
सम्मुख प्रतिदिन एक जानवर स्वेच्छा से स्वयं को प्रस्तुत करेगा, ताकि
हिंसा पर आवष्यक नियंत्रण रखा जा सके।
एक दिन जब खरगोश की
बारी आयी, तो वह जानबूझ कर देर से पहुंचा।
- क्यों बे खरगोष! इतनी
देर लगा दी?
- महाराज! रास्ते
में.....बिल्कुल आप ही जैसा राजा मिल गया था....किसी तरह बच कर आया हूं।....
देरी के लिए क्षमाँ चाहता हूं।
- अच्छा, मेरे रहते कोई और जंगल का राजा! चल, दिखा तो!
- चलिए महाराज!
दोनों ख़ुषी-ख़ुषी चल पड़े।........थोड़ी
ही देर में वे कुंए के पास पहुंचे। वहां एक कमंडलु डोर में बंधा पड़ा था। षेर को
आता देख एक संन्यासी अपना कमंडलु वहीं छोड़ भाग खड़ा हुआ था।
भूखा षेर बार-बार होंठ चाट रहा था। कुंए
के पास पहुंचकर बोला- दिखा,
कहा है दूसरा राजा?
खरगोश ने उसे कुंए के भीतर झांकने को
कहा। लेकिन षेर ने कहा- पहले तू मुझे पानी पिला, फिर मैं उससे लडूंगा!
खरगोश ने कुंए में से किसी तरह पानी
खींचा और षेर के पास ले जाकर कहा- पानी, महाराज!
- हां, पानी तो पियूंगा ही, पहले तुझे खा तो लूं!- षेर ने
कुटिलता से कहा- अबे! तू समझता क्या है- कुंए में गिराकर मुझे वैसे ही मार देगा,
जैसे तेरे बाप ने मेरे भाई को मारा था! - यह कहते हुए उसने खरगोश को
अपने पंजों में दबोच लिया।
दुश्यन्त के वारिस
परिवर्तनकामी आन्दोलन
के आवेग में आकर एक बेरोज़गार, लेकिन उत्साही नेता ने, जो दुश्यन्त की शायरी
में यक़ीन रखता था, तबीयत से पत्थर उछाला। आकाश में छेद तो
नहीं हुआ, अलबत्ता पत्थर एक रिक्शेवाले के सिर पर वापस आ
गिरा, जो किसी आन्दोलनकारी को धरने पर बिठाने जा रहा था।
पत्थर पूरी तबीयत से गिरा था, इसलिए
रिक्शेवाले का सिर फट गया।......प्राण आकाश में चला गया। पोस्ट-मार्टम के लिए शव धरती पर पड़ा रह गया।
लाश सड़कर जब गन्ध मचाने लगी, तब कहीं उसे दाह नसीब हुआ।
पत्थर उछालने वाले नेता की पकड़ हुई।
पूछा गया- पत्थर क्यों उछाला? उसने सफ़ाई दी- दुश्यन्त ने कहा था,
इसलिए उछाला। तबीयत से उछाला! अब अगर आकाश में सूराख नहीं हुआ,
तो वह कैसे दोषी हुआ? उसने शायर के कहने पर
ऐसा किया। शायर ने पत्थर उछालने के लिए
उत्तेजित किया। इसलिए दोषी वह नहीं, शायर है। उसके शे’र ने
उकसाया। आप चाहें तो शे’र सुन लीजिए-
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता?
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!
इसलिए दुश्यन्त दोषी
है। मुक़दमाँ उस पर चलाया जाए!
नेता छूट गया। दुश्यन्त की खोज हुई।
पता चला- वे तो काफ़ी पहले मर चुके हैं, लेकिन उनके वारिस देश के कोने-कोने में
हैं. पुलिस ने देश के कोने-कोने से उनके वारिसों को ढूंढ़ निकाला- बयान दर्ज किये।
लेकिन सभी ने दुश्यन्त का वारिस होना इन्कार किया, बोले- वे दुश्यन्त के ‘फ़ालोअर’ ज़रूर हैं, उनके
वारिस नहीं। बल्कि वे उनके उस विचार से भी सहमत नहीं कि परिवर्तन के लिए पत्थर
उछाला जाए! पत्थर उछालने में हिंसा है। वे हिंसा के समर्थक नहीं हैं। वे अहिंसा के
माध्यम से परिवर्तन के पक्षधर हैं। वे गांधीवादी हैं, भगतसिंह
या सुभाषवादी नहीं!
मृतक के आश्रितों ने सरकार से मुआवजे
की मांग की। लेकिन सरकार ने मुआवजा देने से इन्कार कर दिया, बोली-
यह कोई दैवी आपदा नहीं है। दंगे के कारण हुई मौत भी नहीं है। आपसी हिंसा के मामले
में मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। यह भी बोली- पत्थर उछालने वाले नेता या
दुश्यन्त के वारिसों से मुआवजा लिया जाना चाहिए।
मुआवजा दिलाने के लिए आन्दोलन हुआ।
सरकार ने आन्दोलन कुचला।.... फिर आन्दोलन हुआ। सरकार ने फिर कुचला। दो वर्षों के
बाद आन्दोलन ठप्प पड़ गया।
आन्दोलन ठप्प पड़ने के एक साल बाद
मृतक के आश्रितों और पत्थर उछालने वाले नेता के बीच सुलह हो गयी। सुलह कराने वाले
दुश्यन्त के तथाकथित वारिस अब चैन से हैं। वे सरकारी भजन-मंडली में सम्मिलित हो
गये हैं। वे अब पत्थर उछालने वाला शे’र ‘साये
में धूप’ से निकालने का आन्दोलन चला रहे हैं। साहित्यिक
आन्दोलन चलाने के कारण उन्हें तरह-तरह की सरकारी और ग़ैर-सरकारी सुविधाएं प्राप्त
हो रही हैं।.....आखि़र वे साहित्यकार हैं और साहित्यकार का कार्य है- समाज को दिशा
देना, पत्थर उछालना या उछलवाना नहीं!
अब कोई साहित्यकार
पत्थर उछालने की बात नहीं करता। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि जैसे कीचड़ साफ करने के
लिए कीचड़ में उतरना पड़ता है, वैसे ही सरकार की साफ-सफाई के लिए सरकार
में रहना ज़रूरी है।.....संयोग से आन्दोलनकारियों को चुनाओं में सफलता मिली. उनकी
सरकार भी बन गयी.
यथास्थितिवाद भकभकाकर जाज्वल्यमान हो
गया है। दुश्यन्त के वारिस कोरस गा रहे हैं-
सिर्फ़ हंगामाँ खड़ा करना
मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश
है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
सरकार भी चैन से है।
भिखारी
नींद तीनों की आंखों
में नहीं थी- न पात्रों की,
न रचनाकार की और न ही समीक्षक की!
पात्रों की आंखों में
एक ही प्रष्न था कि आखि़र किसकी भलाई के लिए उन्हें नग्न किया जा रहा है?
रचनाकार की आंखों में
मार्केटिंग लायक़ चरित्र तैरते तो थे, पर उसकी पकड़ में नहीं आ आते
थे; फिसल-फिसल जाते थे। फिर भी वह कब हिम्मत हारने वाला था?
उसने अगर कलम पकड़ ली, तो उसे तो लिखना ही था-
कहानी, कविता या कुछ भी?
समीक्षक की आंख में
एक कांटा-सा गड़ा था कि उसके वक्तव्यों की परवाह किये बग़ैर रचनाकार पिले पड़े थे
और दिन-पर-दिन किताबों का अम्बार लगता जा रहा था।
प्रकाषक की कोई
जवाबदेही थी नहीं,
क्योंकि वह लेखकों से पैसे लेकर किताबें छापता था। सरकारी पदधारक
लेखक की किताब वह मुफ़्त छापता था, क्योंकि उन्हें वे आसानी
से सरकारी खरीद में लगवा लेता था या यूं कहिए कि लेखक स्वयं लगवा देता था।
कोई अगर चैन से सो
रहा था,
तो वह था- पाठक! अपनी भूमिका से उसने पहले ही किनारा कर लिया था।
‘जो दे,
उसका भला; जो न दे, उसका
भी भला’ की द्वार-द्वार पर गुहार लगाने वाला भिखारी बिल्कुल ‘साहित्य’ लग रहा था।
कवि की
संवेदनशीलता
करगिल विजय अभियान के
उपलक्ष्य में गली-गली कार्यक्रम हो रहे थे। अवसरवादी संस्थाओं और प्रतिश्ठानों के
पदाधिकारियों में देषभक्ति उबाल खाने लगी। आपस में होड़ लग गयी कि षहीदों और उनके
माता-पिता का सम्मान कर पहले कौन झंठा उंचा कर करता है?
ऐसे ही एक समारोह में
मैं बतौर कवि आमंत्रित था। समारोह के मुख्य अतिथि थे- षहीद के पिता। कार्यक्रम में
पहले देषभक्ति से लबरेज़ कविताओं की एक पुस्तिका का विमोचन उन्हें करना था। फिर
काव्य-पाठ का आयोजन था।
स्थानीय कविगण जमे
हुए थे- एक-से-एक काइयां,
मक्कार, मंच लूटने के नाम पर चुटकुला सुनाने
वाले, तालियों के भूखे, पत्रं-पुश्पं
के लिए किसी भी हद तक जाने वाले और ‘कविर्मनीशी परिभू
स्वयंभू’ को अंगूठा दिखाने वाले! श्रोताओं के नाम पर मुहल्ले
के कुछ नादान कि़स्म के कविता-प्रेमी, ठेलुए जिन्हें
टाइम-पास के लिए कुछ-न-कुछ आइटम चाहिए; आयोजकों के परिवार
वाले, उनके दोस्त-व्यवहारी और आमंत्रित कवियों के टुटपंुजिये
दोस्त जो उनके संकेत मात्र पर तालियां पीटते थे और बदले में गुटखा, पान-मसाला, सिगरेट, चाय और
कभी-कभी दारू का पारिश्रमिक उगाहते थे।
संचालक महोदय ने एक
बुजुर्ग और बुर्जुवा कवि को कार्यक्रम का अध्यक्ष बनाकर मंचासीन किया। फिर मुख्य
अतिथि और आमंत्रित कवियों में से अधिकांश को मंचासीन किया स्वयं वाणी वन्दना कर
मंच पर बैठ गये। फिर उन्हें याद आया कि कुछ कविगण अभी मंचासीन होने से रह गये हैं।
पर मंच पर तो जगह ही नहीं बची थी। फिर पहली कतार की कुर्सियां खाली करायी गयीं जिन
पर उन्हें बैठाया गया। मैं भी उनमें में से एक था। षहीद की माँ को भी मंचासीन
कराया गया,
जबकि वे आराम से सामने वाली सीट पर बीच में बैठी थीं। उनके साथ उनकी
ग्रेजुएषन करती हुई बेटी भी थी। बेटी फिर भी सामने बैठी रह गयी। एक युवा कवि उसके
बगल में आकर बैठ गये। उसकी दूसरी तरफ़ मैं पहले ही से बैठा था।
संचालक महोदय ने
मुख्य अतिथि से काव्य-पुस्तिका का लोकार्पण करवाया। तत्पष्चात् षहीद के माता-पिता
से दो षब्द बोलने के लिए कहा। रुधे कंठ से उन्होंने किसी प्रकार अपनी बातें कहीं
कि किस प्रकार उनका बेटा फौज में भरती हुआ अैार षहीद हुआ। माँ तो बोलते-बोलते कई
बार फफक पड़ी। उपस्थित समुदाय देष-प्रेम से ओत-प्रोत और संवेदनषील दिख रहा
था।.....वातावरण बोझिल हो रहा था।
संचालक ने कवियों को
काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया। कवियों ने अपनी तुकबन्दियां झाड़नी षुरू कीं-
अधिकांश कविताएं बेकार थीं। दो तीन कवियों की कुछ पंक्तियों ने मन को छुआ। मेरा मन
पढ़ने का नहीं हो रहा था,
पर अध्यक्ष महोदय के कहने पर एक मुक्तक सुनाकर मैंने काव्य-पाठ की
रस्म-अदायगी कर दी।..... पन्द्रह-सोलह कवि थे। संचालक की संक्षिप्त प्रस्तुति के
अनुरोध के बावजू़द ढाई-तीन घंटे लग गये। षहीद के माता-पिता ने संचालक से कई बार
कहा कि उन्हें जाना है- घर पर कुछ मेहमान आने वाले हैं, लेकिन
कवियों के इस अनुरोध पर कि उनकी कविता तो उन्हें सुननी ही पड़ेगी, उन्हें रुकना पड़ा। चाहकर भी वे समारोह से नहीं उठ पाये।
नं0 1090
‘हैलो,
1090 से! हैलो!!.......जी, मैं सुनीता बोल रही
हूं। विकास नगर से। मार्केट आयी थी- लेखराज! मार्केट के पास से जो अपाटमेंट की ओर
रोड जाती है, उधर तेज़ी से एक ‘इनोवा’
गयी है जिसमें से किसी लड़की के चीखने की आवाज़ मैंने सुनी! गाड़ी
का नम्बर तो नहीं नोट कर पायी, लेकिन लास्ट में सिक्स-नाइन
था। काले रंग की गाड़ी है, षीषों में भी काली फि़ल्म चढ़ी
है!’’ सुनीता ने अपने मोबाइल से पुलिस हेल्प लाइन को सूचना
दे दी।
षाम को जब पति आये,
तो उन्हें कि़स्सा बताया। उसका आग्रह था कि थाने जाकर मामले के बारे
में जानकारी लें, लेकिन पति ने मना कर दिया- ‘‘कहां झंझट में पड़ी हो? अपना मोबाइल नम्बर अलग फंसा बैठी
हो! यह पुलिस है- इससे न दोस्ती अच्छी, न दुष्मनी! तुम्हारे
मोबाइल पर अब कहो, उल्टी-सीधी कालें आने लगें! पुलिस और
अपराधियों का चोली-दामन का साथ है। वे इनोवा वाले अपराधियों पर हाथ डालने की
जु़र्रत नहीं करते; छोटे-मोटे अपराधी ही उनके टारगेट होते
हैं!’’
‘‘तो फिर किसी और को ‘निर्भया’ बन जाने देती? उसकी
जगह यदि मैं होती, तो तुम क्या करते? चुप-चाप
रह जाते?’’ पत्नी के तीखे प्रष्नों का पति के पास कोई उत्तर
न था।
पति विवश हो थाने
पहुंचा। उसने मामले में एफ.आई.आर. लिखने सम्बन्धी जानकारी हासिल करनी चाही,
पर कोई सन्तोशजनक उत्तर न मिला। अधिक ज़ोर देने पर उसे ही लताड़
खाने को मिली- ‘‘आप ज्यादा हातिमताई न बनिये? जब कोई वारदात घटेगी, तो एफ.आई.आर. भी लिख ली
जायेगी!.....आपके साथ तो कोई घटना नहीं घटी न? जब घटे तो
आइयेगा!’’ वह कुछ और कहना चाहता था, पर
सब-इन्सपेक्टर ने धमकाते हुए सलाह दी- ‘‘अब आप षराफ़त से घर
जाइए!’’
थाने से लौटकर पत्नी को
सारी बात विस्तार से बतलायी। पत्नी को तसल्ली न थी। उसने अपनी दोस्त को मोबाइल
लगाया। उसका पति षहर में ही किसी थाने में सब-इन्सपेक्टर थे। उसे उम्मीद थी कि
दोस्त के कहने पर पुलिस अवष्य सक्रिय हो जायेगी!
तीन दिन बीत गये।
आषंकित घटना की सूचना भी टी.वी. या अख़बार में नहीं छपी, जिसमें
काले रंग की ‘इनोवा’ का इस्तेमाल हुआ
हो! सबने पत्नी का वहम मानकर मामले से ध्यान हटा लिया।
दोपहर के एक बजे थे।
घंटी बजी। पति आॅफि़स में थे, बच्चे स्कूल में! ‘कौन आ सकता है’ सोचते हुए उसने गेट पर खिड़की से
नज़र डाली, लेकिन कोई न दिखा। वह अपने बेड रूम में आ
गयी।......दो मिनट भी न बीते होंगे कि फिर घंटी बजी। उसने फिर गेट की ओर नज़र
दौड़ायी, पर इस बार भी कोई न दिखा। वह समझी कि कोई बच्चा
षैतानी कर रहा है, हालांकि पड़ोस के बच्चे इस प्रकार की
षैतानी संडे को ही करते थे। बार-बार छिप कर घंटी बजाने वाले को डांट पिलाने के
उद्देष्य से उसने गेट खोला- वही इनोवा घर के सामने खड़ी थी। ड्ाइवर के बगल वाली
सीट पर से खादी का कुर्ता-पायजामाँ पहने एक अधेड़ ने प्रष्न किया- ‘‘तुमने ही पुलिस को फोन किया था?’’
वह सकपका गयी, फिर भी उसने हिम्मत दिखायी- ‘‘हां!’’
‘‘लेकिन क्यों? तुमने क्या गड़बड़ देखा मेरी गाड़ी में?’’ अधेड के
स्वर में तीखापन था।
‘‘मुझे लगा कि किसी को
ज़बरदस्ती अगवा किया गया है!’’
‘‘मैडम इस लगने से कुछ
नहीं होता! मुझको भी लगता है कि तुम चालू औरत हो! तुम्हारे साथ क्या किया जाए?’’
‘‘ठीक है, मैंने फोन किया, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि आप इस
तरह से मुझसे पेश आयें! अगर आपने कुछ नहीं किया है तो बहुत अच्छी बात है, मगर ऐसा लगता है कि आपने ज़रूर कोई अपराध किया होगा, वरना आप मेरे घर पर मुझे धमकाने न आते! आप चाहें तो मुझे गोली मरवा दें,
लेकिन मेरी ज़बान को आप बन्द नहीं कर सकते!’’
बात कुछ और आगे बढ़ती
कि पुलिस की गाड़ी उधर से गुज़री। थाने का एस-आई तथा दो महिला कांस्टेबिलें उसमें
सवार थीं। पुलिस ने ‘इनोवा’ देखकर भी
नहीं देखी।
इनोवा चल पड़ी थी।......महिला
पुलिस उससे पूछ-तांछ कर रही थी।......मुहल्ले के तमाषबीन अपने घरों में दुबकने लगे
थे।
रास्ता
-राजेंद्र वर्मा
सड़क घेर
कर लगाये गये पंडाल में ‘देवी-जागरण’ में लाउडस्पीकर की तो
धूम थी। सिविक सेंस तो जैसे बेचकर ही ताम-झाम खरीदा गया हो! किसी को क्या परेशानी
हो सकती है- न देवी से मतलब था, न उनके भक्तों से?
एक दोस्त के यहां मैं
मोटर-साइकिल से जा रहा था। उसका घर पंडाल के शुरू होने के बाद दस-बारह घरों बाद
पड़ता था। पंडाल के किनारे-किनारे निकलने के प्रयास में था कि भक्तों ने टोका- ‘‘भाई जी! रास्ता नहीं है।’’
मैंने फिर भी कोशिश की।
सोचता था, तीन-चार फिट तो रास्ता छोड़ा ही गया होगा, पर जब
अन्दर घुसा, तो देखा कि रास्ता वाक़ई नहीं है।..... वापस आ
गया।
बाहर आते ही सामूहिक
रूप से टोका गया- ‘‘कहा था न, कि
रास्ता नहीं है, पर आपको विश्वास नहीं था। आखि़र लौटना पड़ा
न! औरों पर विश्वास करना सीखिए मिस्टर!’’
‘‘हां, विश्वास ही तो था कि रास्ता होगा, लेकिन आप लोगों ने
तो.......ठीक ही कहते हैं आप, विश्वास के टकराव का कोई
रास्ता नहीं!’’ मैंने हताश स्वर में कहा।
‘‘नास्तिक है!’’
कहकर लोग हंस पड़े। ५-७-१५
भक्त और भगवान
‘‘हम
पर भी तरस खाओ भगवान! आखि़र हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? दिन
भर मेहनत करते हैं, फिर भी रिक्षे का किराया चुकाने के बाद
भरपेट खाना भी नहीं खा सकते। खा लें, तो घरवालों को क्या
खिलाएं? एक दिन बीमार पड़ जाएं, तो न
खाना, न दवा! पुलिस वालों को मुफ्त न ढोयें, तो वे ससुरे मारें भी और पहिए की हवा भी निकाल दें......अभी कल ही की बात
है- दुपहरी में एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहा था। तनिक आराम मिला था कि तीन लड़के
आये और बोले- चल बे! हमें नावेल्टी सिनेमाँ तक छोड़! हम बोले- हमारी तबीयत ठीक
नहीं है, कोई और रिक्षा ले लीजिए। लेकिन नहीं... वे ससुरे
हमको ढकेल कर रिक्षे पर लद गये और बोले- चल जल्दी, नहीं
तो.......!
‘‘मजबूरन
ढोना पड़ा। यहां तक तो ग़नीमत, मगर उन हरामियों ने पैसे भी
नहीं दिये। झट से उतरे- एक ने टिकट खरीदा, दूसरे ने सिगरेट
और पान-मसाला। तीसरा खड़ा-खड़ा पोस्टर देखता रहा। जब हमने पैसे मांगे, तो बोले- पैसे तो सब खत्म हो गये। जब हम गुस्सा हुए, तो वे हरामी हमें ही ज़लील करने लगे- एक बार पैसा पा गया है, दुबारा मांग रहा है! आस-पास के लोग भी मेरे ही खि़लाफ़ हो गये।..... मेरी
तलाषी भी ले ली। मेरे पास तीस रुपये थे, वही तो निकले। वे
तीनों कहने लगे, इनमें बीस का नोट उन्हीं का दिया हुआ है।......आखि़र
मैं ही झूठा साबित हुआ। गालियां खायीं, चार-छः हाथ खाये सो
अलग!
‘‘एक
बात बता, भगवान! तू किसके साथ है? हम
भी आदमी हैं। जि़न्दा रहने के लिए आदमियों को ढोते हैं! हमारा कुसूर क्या यही है
कि हम ग़रीब के घर पैदा हुए और हमें हांकने वाला अमीर के घर! यह अमीरी-ग़रीबी भी
तूने बनायी है क्या?’’
भगवान कुछ नं बोले। एक भक्त ने धक्का
देकर उसे गिरा अवष्य दिया। भक्त और भगवान के बीच वह रोड़ा बना हुआ हो।
भक्त के हाथ में
बड़ा-सा मिठाई का डिब्बा और ताज़े गुलाब की फूलों की माला थी। डिब्बे में एक सौ एक
रुपये का प्रसाद था। मोटे असामी को देख पुजारी ने लपक कर उसके हाथ से डिब्बा ले
लिया।
यह भक्त कोई और नहीं, रिक्षे
का मालिक था।
परिचय
एक सर्वे करने का काम
मुझे दिया गया था। रिक्षे से जा रहा था। रिक्षावाला रास्ते में एक पेड़ के नीचे
ठहर कर पसीना सुखाने लगा।......पहले मैं उसे डांटने वाला था कि चलो जल्दी, पर
चुप रहा। वहां एक और आदमी सुस्ता रहा था। बगल में टूटे हुड और चीकट सीट वाला
रिक्षा भी खड़ा था।
समय के सदुपयोग के लिए
मैंने दूसरे रिक्षेवाले से पूछा-
- आपका नाम?
- ग़रीबे!
- आपका सरनेम?
- ग़रीबे!
- आपका पता?
- ग़रीबे!
- क्या ग़रीबे-ग़रीबे लगा
रखा है? - मैंने झल्लाकर कहा।
- साहब! ग़रीब आदमी का नाम
क्या, जाति क्या और उसका पता क्या? उसकी
सारी पहचान तो ग़रीबी होती है। अब क्या फ़र्क पड़ता है कि मेरा नाम ग़रीबे हो या
कुछ और? मेरी जाति चाहे जो भी हो, लेकिन
यदि ख़ानदानी ज़मीन की उंचाई के बिना उसका क्या अर्थ है? रही
बात पते-ठिकाने की, तो साहब! मैं हर जाति में पूरी दुनिया
में युगों-युगों से पाया जाता हॅूं और यह जो राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है,
उसके चलते आगे भी विद्यमान रहूंगा!
- लेकिन माता-पिता ने कुछ
नाम तो रखा होगा?
- हां, साहब नाम तो रखा था, लेकिन उसे सुनेंगे तो हंसेंगे!
- अरे नहीं, हंसूगा क्यों? आपको मेरा नाम पता है?.....मेरा नाम है कोदई प्रसाद। लेकिन मैंने उसे के.पी.
सिंह कर दिया है?
- आप ठाकुर साहब होंगे,
साहब?
- अरे नहीं, वाल्मीक हूं!- मैंने ग़रीबे की असलियत जानने के लिए मनगढन्त बातें बनायीं।
- तो साहब, मेरा भी परिचय ले लीजिए- मेरा नाम है लक्ष्मीपति। जाति से ठाकुर हूं,
लेकिन पिताजी मरघट पर षव जलाने का कार्य करते हैं। बाबा भी यही काम
करते थे।......सुनता हूं कि हमारे पुरखे महाराणा प्रताप की फौज में थे, लेकिन उनके मरने के बाद जान बचाकर यहां भाग आये। काफी दिन भेश बदल कर रहे,
पर जब कोई काम-काज और रहने का ठिकाना न मिला, तो
मरघट पर झोपड़ी डाल रहने लगे।..... काम की तलाश में कुछ दिनों तक इधर-उधर भटकने के
बाद वहीं जम गये।......मैं तो रिक्षा चलाता हूं। इसलिए मैं रिक्षावाला हुआ! लेकिन
मेरे रिक्षे पर कोई जि़न्दा आदमी नहीं बैठता। मैं तो सरकारी अस्पताल के मुर्दाघर
से मुर्दे लाकर घाट पर जलाता हूं।....
मैं पषोपेश में पड़ गया
कि उसके बारे में क्या लिखूं?
महापात्र
सेठजी को तगड़ा हार्ट
अटैक पड़ा था।...... तुरन्त ही नज़दीक के नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया। तीन
दिन की दौड़-धूप और पैसा पानी की तरह बहाने के बावजू़द उन्हें बचाया नहीं जा सका।
वेंटिलेटर पर रखी लाश उठाने के लिए डेढ़ लाख का बिल चुकाना पड़ा!
दाह-संस्कार के लिए घाट
पर परिवार के सभी पुरुश सदस्य, रिष्तेदार और दोस्त इकट्ठे
थे। सभी लोग सेठजी के अच्छे व्यवहार और अच्छे सामाजिक कार्याें की सराहना की
रस्म-अदायगी कर रहे थे। एकाध दबी ज़ुबान से अपने हक़ या पैसे मारे जाने की भी बात
कर रहे थे, पर साथ ही उसका पटाक्षेप भी स्वयं कर रहे थे- जब
आदमी ही नहीं रहा, तो अब क्या गिला? सारी
दुनियादारी तक ही है- अब क्या उसकी चर्चा की जाए?
महापात्र और उसके उसके
सहायक ने क्रिया-कर्म सम्पन्न कराया। सेठ के बेटे ने उसे पांच सौ का नोट दिया।
महापात्र ने नोट वापस करते हुए हज़ार रुपये की मांग की, लेकिन
सेठ-पुत्र ने एक भी रुपया और देने से इन्कार करते हुए महापात्र की हथेली पर नोट
ज़बरदस्ती रख दिया।....... महापात्र के स्वर में नरमी आयी- अच्छा, आठ सौ तो दो!
सेठ का बेटा क्रुद्ध हो
उठा- जो मिल रहा है, रख लो, वरना यह भी
नहीं मिलेगा! एकदम लूट मचा रखी है!....
रिष्तेदारों और दोस्तों
में भी अधिकांश की तनी हुई भृकुटियां बेटे का समर्थन कर रही थीं। महापात्र बिफर
पड़ा- हां, लूट मचा रखी है! भीख समझकर दे रहे हो न!.....जाओ,
जाओ, मुफ़्त में काम कराने वालो! तुम क्या
दोगे? लाश ठिकाने लगाने आये थे, लग गयी;
अब जाओ!......जब डाॅक्टर ने लाखों ले लिये होंगे, तो लूट नहीं दिखायी पड़ी। अभी लकड़ी वाले ने दोगुने दाम ले लिए, तो भी नहीं लूट दिखायी दी!..... और हमने जो किया, वह
मु्फ़्त का है, क्यों? चले हैं हमें
लूट की गणित समझाने!
रिष्तेदारों में एक ने
अपनी ज़ेब से दो सौ रुपये देकर महापात्र को षान्त किया, पर
सेठ-पुत्र अभी भी अषान्त था।
फोटो
एक पत्रिका में फोटो
सहित रचना मांगी गयी थी। मेरे पास जो फोटो था, वह क़रीब पांच-छः साल पुराना
था। उस समय मेरे सिर पर बाल थे, अब सामने से गंजा हो रहा था।
चेहरा बिल्कुल बदल-सा गया था। पुराना फोटो भेजना ठीक न लगा! एक लेखक से कम-से-कम
इतनी ईमानदारी की उम्मीद तो ज़माना करता ही है।
फोटो खिंचवाने मैं
स्टूडियो पहुंचा। कहा गया- ग्रीनरूम में बैठिए। मैं बैठ गया- सामने आदमक़द षीषा था, जिसमें
मैं तरह-तरह के पोज़ बनाकर स्वयं पर हंसता रहा। एकाध पोज़ मोहक भी लगे। तब तक
नम्बर आ गया। मैं फोटो खिंचवाने बैठा। फोटोग्राफ़र ने कहा- चष्मा उतारिये! मैंने
कहा- यह तो नज़र का है, मैं तो लगाता ही हूं। इसके साथ ही
फोटो खीचिए! उसने कहा- ठीक है, आप चष्मा लगाते हैं, तो षौक़ से लगाइए, पर अपना वाला नहीं, ‘यह’ लगाइये- उसने मुझे बिना षीषे वाला खाली फ़्रम का
चष्मा पकड़ा दिया।
मैं उसके दिये हुए
चष्मे को देख रहा था कि बिना षीषे के वह कैसा लगेगा? मेरे चष्मे से वह कुछ
बड़ा भी लग रहा था। मेरे चेहरे पर वह कैसा लगेगा? मैं अभी
इन्हीं बातों में उलझा था कि उसने मुझे सामने देखने के लिए कहा।
मन-ही-मन फोटोग्राफ़र
की रेफ़्लेक्षन से बचने की युक्ति की प्रषंसा करते हुए मैंने हिम्मत दिखायी और
सामने देखने लगा। उसने मुझसे सिर थोड़ा उपर उठाने को कहा। मैने आज्ञाकारी बालक की
भांति उसके निर्देषों का पालन किया। उसने मुझे लगभग अटेंषन के मुद्रा में बिठा
दिया। मुस्कुराना भारी पड़ रहा था, पर मुस्कुराना आवष्यक था। मैं
मुस्कुराने लगा, लेकिन जब देर तक कैमरे का फ़्लैश नहीं चमका,
तो मेरी मुस्कुराहट खिसियाहट में बदलने लगी।......इसी बीच कैमरा
चमका। मुझे राहत मिली।
तीस रुपये में दस
काॅपी बनवाने का आर्डर देकर एडवान्स भी दिया। अगले दिन षाम तक फोटो मिलने थे। अगली
षाम की मैं प्रतीक्षा में था। आॅफि़स के बाद पहुंच गया।
फोटोग्राफ़र ने बताया
कि फोटो तैयार हैं,
लेकिन पांच मिनट बैठने को कहा, क्योंकि दुकान
का मालिक अभी था नहीं और काउंटर की जिस दराज़ में फोटो थे, उसकी
चाबी उन्हीं के पास थी।..... इन्तज़ार करने के अलावा कोई चारा न था। कोई आधे घंटे
बाद दुकान के मालिक पधारे।
फोटो मिली। मैंने
अपना सिर पीट लिया- लग रहा था कि जैसे दस साल के बच्चे ने दादाजी का चष्मा पहन
लिया है। इतनी दूर से फोटो लिया गया था कि जे़ब तो जे़ब, कमर
की बेल्ट भी नज़र आ रही थी। रंग भी साफ़ नहीं चढ़े थे। एक सौ बीस डिग्री पर टिके
चेहरे के डिटेल्स इतने हल्के थे कि देखने वाले को पहचाने में भी दिक्कत हो कि फोटो
है या कोई रंगीन स्केच?
मैंने दुकानदार से
षिकायत की। उसने पलटकर जवाब दिया- आपका रंग-रूप ही ऐसा है, हम
क्या कर सकते हैं? उसने मेरा ज्ञानवर्धन करते हुए बताया कि
हर किसी का चेहरा फोटोजेनिक नहीं होता- यह तो प्रभु की माया है! उसने मेरे मज़ाक
उड़ाने में कोई कसर न छोड़ी। षिकायती ग्राहकों से निपटने का यह उसका अपना तरीक़ा
था।...... मेरी चष्मेवाली षिकायत पर उसने कहा कि आपका चेहरा छोटा है, हां फ््रेम कुछ बड़ा लगता है, लेकिन आजकल तो बड़े
फ्रेम के चष्मों का फै़षन है!.......
कुल मिलाकर जीत उसी
की हुई। मैं उसके तर्काें के आगे विवश था। मेरे रंग-रूप और चेहरे के आकार-प्रकार
की उसकी टिप्पणियों से आहत मैं हीनभावना से ग्रसित होने लगा।....पर तुरन्त ही
मैंने हिम्मत बटोरी और सारी फोटुओं को चिन्दी-चिन्दी कर काउंटर पर बिखरा दिया- ले!
ले!! अपनी फोटोग्राफी का इनाम ले!!!
प्रायष्चित
आॅफि़स में आज मीटिंग
थी। मुझे घर पहुंचते-पहुंचते नौ बज गये। तब पता चला कि चाचाजी आज लखनउ आये थे और
मेरे घर पर षाम आठ बजे तक ठहरे भी, पर मुझसे मिले बिना ही गांव
वापस लौट गये थे। आखि़री बस पौने नौ बजे जाती थी जो ग्यारह बजे तक गांव पहुंचाती!
पता नहीं क्या बात थी कि उनका वापस जाना बहुत ज़रूरी था!
चाचाजी मुझे अपने बेटे
की तरह ही मानते थे। उनका बेटा दो साल का ही था कि अचानक हैजे का षिकार हो गया।
चाची ने बेटे को जन्म देकर ही दुनिया से चल बसी थीं। चाचा की दो षादियां हुई थीं।
पहली से एक बिटिया थी, जिसकी षादी हो चुकी थी। दूसरी से बेटा
था, पर वह भी साथ छोड़ गयी थी। भाग्य का लेखा मानना पड़ा था
कि उन्हें न तो पत्नी का सुख लम्बे समय तक मिला और न ही बेटे का।.....पिताजी और
चाचाजी की खेती एक में थी- बंटवारा नहीं हुआ था।
पड़ोसियों ने खू़ब गीट
बसी थी कि बंटवारा हो जाए, पर चाचा समझदार थे। कभी-कभी वे
किसी बात पर गुस्सा हो जाते थे, पर माँ की एक डांट पर बच्चों
की तरह व्यवहार करने लगते थे। माँ भी उन्हें मेरी ही तरह मानती रहीं। इसके मूल में
षायद स्वार्थ भी था। एक प्रकार से बंटवारा न होने से हम तीन भाइयों का ही लाभ था।
खेती की सारी उपज पिताजी के निस्तारण पर थी। छोटी जोत थी, फिर
भी बंटवारा न होने से उपज ठीक-ठाक हो जाती थी। एक हिस्से से साल-भर का खाना-पीना
होता और दूसरे से उपरी खर्चे निपटते थे। हम लोगों की पढ़ाई पर ही अच्छा-ख़ासा खर्च
होता था। यह सही है कि यदि चाचाजी की ज़मीन की उपज हमें न मिलती, तो कम-से-कम मैं तो लखनउ में रहकर पढ़ाई न कर पाता!.....आज हम दो भाई
नौकरी कर रहे थे और तीसरा अभी पढ़ रहा था।
भाइयों में मैं बड़ा
था। मुझमें और चाचाजी की वय में क़रीब दस साल का अन्तर था। वे मुझे बहुत प्यार
करते थे। षादी-बारात में जब भी जाते, मुझे साथ ले लेते!
मेलों में नाटक, नौटंकी, सर्कस या सिनेमाँ
से मेरा परिचय चाचाजी के माध्यम से हुआ!
पत्नी से पूछा- खाना
खिला दिया था न चाचा को?
‘‘कहां से खिलाती?
चाय बनाते ही गैस ख़त्म हो गयी थी। मिट्टी का तेल भी नहीं था कि
स्टोव जला लेती!’’ पत्नी ने सफाई दी।
‘‘तो खरीद लातीं!’’
‘‘हां, खरीद तो लाती, लेकिन छोटू को हरारत थी। छोड़ने को
तैयार ही न था। कैेसे जाती? फिर वो तो जैसे जाने की ही जल्दी
में थे। बार-बार आपके बारे में पूछ रहे थे- कब तक आयेंगे?’’
‘‘फिर खाने की क्या
व्यवस्था है? अब तो तेल भी नहीं मिलेगा!’’ मैंने चिन्ता जतायी।
‘‘अभी खिचड़ी बनायी है-
कुछ लकडि़यां और कंडे थे, उन्हीं से बनायी है!
मुझे ध्यान आया कि
पिछले हफ़्ते हवन के लिए जो लकडि़यां आयी थीं, उनमें से कुछ
बच गयी थीं। बाटी बनाने के लिए कंडे तो दूधवाला अक्सर दे जाता था। मैंने पत्नी से
कहा- ‘‘खिचड़ी तो तब भी बन सकती थी, तुम्हें
चाचाजी को खिला-पिलाकर भेजना चाहिए था!.....जैसे अब बना ली, वैसे
ही पहले बना लेतीं? वे भूखे तो न लौटते!’’
मेरे इस आरोप पर वह
बिफर पड़ी- ‘‘हां, ज़रूर बना लेती,
अगर मालूम होता कि आप नौ बजे आयेंगे! आपके घरवालों को मैं कुछ
खिलाती-पिलाती थोड़े ही हूं, सबको भूखे ही लौटा देती हूं!’’
उसकी बात सुन मुझे
गुस्सा आ गया- ‘‘लेकिन आज तो तुमने भूखे ही लौटाया है! ज़बान
लड़ाती हो, बात नहीं समझतीं।......चाचाजी भले ही न कहें,
पर अम्मा ज़रूर कहेंगी कि मैं नहीं था तो तुमने उनके खाने की कोई
परवाह नहीं की!’’
‘‘ठीक है, नहीं की! अगली बार जब आयेंगे, तो अपने हाथ खिला
देना।’’
मुझे यह बात अखर गयी।
मन खट्टा हो गया। भूख-प्यास जैसे मर गयी हो। जब पत्नी ने खाने के लिए कहा तो मैंने
कह दिया कि आॅफि़स से खाकर आया हूं। मेरे सूखे मुंह को देख वह समझ तो गयी थी कि
मैं झूठ बोल रहा हूं, पर उसने न मुझसे दुबारा खाने के लिए
कहा और न स्वयं ही खाया।
बच्चों ने खा लिया था
और वे सोने जा रहे थे। मैंने उनसे ‘गुड नाइट’ की और सोने के लिए अपने बिस्तर पर पड़ गया, लेकिन
नींद तो आंखों से कोसों दूर थी।....भूख भी लगी हुई थी। एक बार तो मन हुआ कि पत्नी
को उठायें और ठंडी खिचड़ी खा ही लें, पर तुरन्त ही मन को
कठोर किया- आज भूखे ही सोना है! किसी तरह नींद पड़ी।
सवेरे जब उठा तो देखा
कि पत्नी इंटों के चूल्हे में लकडि़यां सुलगाये चाय बना रही थी। गेट पर नज़र पड़ी
तो देखा कि गौ माता खिचड़ी खा रही थीं।
प्रार्थना
आखि़र वही हुआ जिसकी
आषंका थी।...... पिताजी बीमार पड़े और बड़ी बहू मुस्कुरा पड़ी- ‘क्या
सपना सच हो जायेगा? अगर सच निकला, तो
बुड्ढा हफ़्ते-भर में टें हो जायेगा। उसकी आंखों के सामने क्लाइमेक्स घूम गया-
देवर डाक्टर को बुला लाया है। डाॅक्टर ने आला लगाया। बुड्ढे की आंखें खोल-खोलकर
देखा। नाड़ी भी देखी। फिर प्रोफ़ेषनल तौर पर रोनी सूरज बनाते हुए बोला- बिस्तर से
नीचे उतारो, पिंजरा रह गया, पंछी तो
उड़ चुका!’.......घर से सभी लोग रोने या रोने की ऐक्टिंग
करने लगे, लेकिन बड़ी बहू के आंसू न निकले, तो न निकले!
थोड़ी-ही देर में वह
संभली और स्वयं को धिक्कारने लगी- ‘अरे! यह मैं क्या सोचने लगी,
पिता-समान ससुर की मौत पर ख़ुश हो रही हूं!.....वह अतीत में खोने
लगी, पर फिर मुस्कुरा उठी- ‘क्यों न
ख़ुश होउंू?....बुड्ढे का गू-मूत उठाने के लिए मैं हूं और
वसीयत लिखाने-वाली देवरानी!...... याद नहीं पड़ता कि पिछे दस सालों में बुड्ढे की
सेवा से कभी फुरसत मिली हो! देवर-देवरानी तीन-चार महीने में एक बार आयेंगे और
उलटी-सीधी पट्टी पढ़ाकर बुड्ढे की टेंट खाली कर लेंगे! बैंक वाले को साथ लेकर
आयेंगे और बुढ़उ का अंगूठा लेकर उसे कंगाल कर देंगे। बुड्ढा भी उन्हीं पर सब लुटा
रहा है, मुझे कुछ नहीं दे सकता! नौकरानी समझता है क्या?
दो वक्त की रोटियां और साल में दो जोड़ी कपड़े! बस! इतना ही काफी है
क्या? मैं इन्सान नहीं? मेरी कोई
ज़रूरतें नहीं? मेरे सीने में दिल नहीं धड़कता? अभी पचास की ही तो हुई हूं? कौन-सी बुढ़ा गयी हूं?
मुझसे बूढ़ी तो रेखा है, लेकिन देखो उसे- अभी
भी छबीली बनी हुई है!’
तनिक ही देर में
लेकिन वह फिर बदल गयी- ’अब क्या करना है पैसे-रुपये लेकर? कौन-सा सिंगार
पटार करना है मुझे? जि़न्दगी की रौनक ही उनके साथ चली गयी!
अब क्या करना है सज-संवर कर?......रेखा जैसियों की बात दूसरी
है।..... आज दस साल हो गये उन्हें इस दुनिया से गये! कोई निषानी भी तो नहीं दे गये
कि दिल लगा रहता और वंश भी चलता!...... उनके जाते ही बुढ़उ पड़ गये। ‘हाय मेरा बेटा!’ यही आवाज़ तो सुनायी पड़ी थी सबसे
पहले उसके कानों में।..... फिर उसे कुछ भी याद नहीं। बेहोषी के आलम में इतना ही
ध्यान है कि सब लोग उन्हें ले जा रहे थे और वह उनसे लिपटी पड़ी थी। सास और देवरानी,
दोनों ने मिलकर संभाला था, या उनसे दूर कर
दिया था उसे! वह भला भूल सकती है उस मनहूस दिन को?...’
कि़स्मत को
कोसते-कोसते वह भगवान से ससुर सहित स्वयं को अपने पास जल्द बुला लेने की प्रार्थना
मन-ही-मन करने लगी!
नपुंसक
गुप्ताजी की बेटी का
आई.ए.एस. में सेलेक्षन हो चुका था। वह ट्ेनिंग कर रही थी। बेटा बंगलौर में
इंजीनियर था- उसके लिए रिष्ते आने षुरू हो गये थे।
बेटी बड़ी थी- उसकी
षादी तलाषी जा रही थी। आई.ए.एस. या एलाइड आई,ए,एस, वर ढूंढ़ा जा रहा था। जब वह नहीं मिला, तो सीनियर पी.सी.एस. की तलाश की जाने लगी। जब वह भी नहीं मिला, तो बैंक, इंष्योरेंष, आदि में
किसी अच्छी पोस्ट वाले की तलाश की जाने लगी, पर बात नहीं बन
रही थी। गुप्ताजी की वास्तविक जाति ‘भुर्जी’ थी। इसमें उच्च पदस्थ वरों का अकाल था और दूसरे, जो
उपलब्ध थे, वह बीस-पचीस लाख दहेज में मांग रहे थे।
खाने-पीने-सजावट आदि में सात-आठ लाख और लगते! अब तक कोई ऐसा लड़का न मिला था कि जो
बेटी को भी पसन्द आता और दहेज की राषि पिता की जे़ब की पहुंच में भी होती!
वे पहली पीढ़ी थे जो
गांव से षहर आये थे। उनकी जाति के गिने-चुने लोग यहां अच्छे पदों पर थे, पर अधिकतर बाबू या चपरासी थे। बाबू भर्ती होकर आज स्वयं तो स्टेट बैंक में
चीफ़ मैनेजर थे, लेकिन यदि पिताजी जीवित होते, तो वे आज भी भाड़ झोंक रहे होते या फिर, अपने छोटे
भाई की तरह परचून की दुकनिया चला रहे होते! पिछड़ों में पिछड़े गुप्ताजी की आर्थिक
अवस्था विकासषील थी- हाउसिंग लोन लेकर मकान बनवाया था, एजूकेषन
लोन लेकर बच्चों को पढ़ाया था, कार लोन भी था। पर्सनल लोन भी
था।.... अस्सी हज़ार सैलरी में कट-पिटकर पैंतीस-चालीस हज़ार खाते में आते थे।
बेटी की षादी पर तीस
लाख खर्च करने की हैसियत अभी न थी। सोचते थे, यदि कोई अच्छा
वर मिल जाए, तो रिटायरमेंट लेकर षादी का खर्च निपटा दें।
लेकिन सांवली बेटी को ‘अच्छे लड़के’ किसी-न-किसी
बहाने नापसन्द कर देते थे। बैंक में ही एक ’पी.ओ. लड़के’
ने हामी भरी थी, लेकिन उसका पिता तीस लाख से
कम पर राज़ी न था।.....गुप्ता जी ने बाद में ‘निर्णय’
बताने को कह दिया था।
एक जगह बात पक्की हुई,
लेकिन बाद में पता चला कि लड़के का किसी के साथ ‘अफ़ेयर’ चल रहा है!.....जान-बूझ मक्खी कैसे निगली
जाती! माँ सोचती थी कि बेटी की षादी में देंगे, तो बेटे की
षादी में वसूल लेंगे, लेकिन इस समीकरण में पति का विष्वास न
था।.......
बेटा जब विदेश से लौटा
तो पत्नी के रूप में प्रेमिका साथ थी। दहेज पाने की माँ की उम्मीद ख़त्म हो चुकी
थी। पिता ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, उन्हें जैसे यह
सब पहले से मालूम हो।
एक लड़का देखा गया था
जो बिजली विभाग में असिस्टैंट इंजीनियर था और देखने में भी ठीक-ठाक था। बेटी को भी
पसन्द आ गया था। लेकिन जब पता चला कि विभागीय काम-काज के सम्बन्ध में उसके खि़लाफ
सस्पेंषन की कार्रवाई होने जा रही है, तो बेटी ने ऐसे रिष्ते
को ठुकरा दिया।
बेटी की टे्निंग पूरी
हो चुकी थी। गुप्ताजी चाहते थे कि तीस लाख दहेज देकर बेटी की षादी कर दें, पर उसने मना कर दिया। कहा- जाति में वह षादी नहीं करेगी!
बेटी तीस पार हो रही
है। गुप्ताजी को रिटायर हुए दस साल हो चुके हैं। गिरते स्वास्थ्य के चलते पत्नी
स्वर्गारोहण के लिए तैयार है। बेटा विदेश में बस गया है। कभी-कभी उसका फोन आता है-
हाल-चाल पूछने के लिए! पैसों की समस्या समाप्त हो चुकी है। बेटी चाहे, तो दस-बीस लाख महीने-भर में कमाँ ले, परन्तु वह
ईमानदारी से नौकरी कर रही है।.....अभी कोई जंचा नहीं, पर लगता
है कि अब कोई जंच रहा है।.....
बेटी जहां एस.डी.एम. है,
वहां के डी.एम. का तबादला हुआ। पुराना वाला बड़ा घूसखोर आदमी था!
उसकी जगह एक थम्पी साहब आये हैं। केरल के हैं, परं यहां के
लोगों से ऐसा घुल-मिल जाते हैं कि जैसे यहीं के हों। उनकी ईमानदारी और कार्य-निश्ठा
से बेटी भी प्रभावित है।......डी.एम. साहब भी एस.डी.एम. साहिबा के कार्य और
व्यवहार से काफी प्रभावित हैं।......दोनों अक्सर लंच साथ लेते हैं। कभी-कभी षाम को
भी साथ-साथ देखे गये हैं!
कल गुप्ताजी की बेटी से
बात हुई।......पत्नी को वे प्रसन्नता से बताते हैं कि एस.डी.एम. साहिबा ‘मिसेज डी.एम.’ बनने वाली हैं!......पत्नी के सूखे
चेहरे पर तरलता आ जाती है।......
दो दिनों के बाद पता
चला कि डी.एम.साहब उससे षादी नहीं कर सकते। उनकी माँ ने उनके लिए रिष्ता पक्का कर
लिया है। अबकी बार जब वे घर जायेंगे, तो बात फाइनल होगी। ’लड़की’ रिष्तेदारी में ही है और वे उसे जानते भी
हैं। वैसे भी वे ‘हाउस वाइफ़’ चाहते
थे।......
चक्रव्यूह
- राजेंद्र वर्मा
गांव में पुलिस आयी
थी- प्रधान के लड़के, रणवीर, के खि़लाफ़ परशुराम की बहन ने रिपार्ट लिखायी थी कि
जब वह शौच के लिए गयी थी तो उसने इज़्ज़त लूटनी चाही, लेकिन अभियुक्त के चेहरे को
नाखूनों से नोंच किसी तरह से भाग निकली थी।
रणवीर के चेहरे पर निशान थे। उसने
सफाई देने की कोशिश की,
लेकिन पुलिस ने एक न सुनी और उसे ले गयी। लड़की चूंकि बलात्कार का
शिकार न हुई थी, इसलिए उसके मेडिकल की आवश्यकता न थी। नाखूनों
को उसने पहले ही धुलकर साफ कर लिया था, इसलिए फोरेन्सिक जांच भी संभव न थी।
हक़ीक़त यह थी कि उसके चेहरे पर निशान
तो थे, पर वे किसी लड़की के नाखूनों के नहीं, बल्कि एक
बन्दरिया के थे जिसके बच्चे को वह कौतूहलवश अपने साथ ला रहा था। उस समय बन्दरिया
बच्चे के पास न थी, लेकिन बच्चे की आवाज़ पर पल भर में ही वह
न जाने कहां से प्रकट हो गयी थी और उसके चेहरे को नोंचकर अपने बच्चे को छुड़ा लिया था।...कल उसने अपने
चचेरे भाई के साथ परशुराम को नहर का पानी काटने पर दो-चार हाथ मारे ज़रूर थे।
सच उगलवाने के नाम पर पुलिस की थर्ड
डिग्री झेलने और बीस पचास हजार का मुचलका भरने के बाद दूसरे दिन शाम को पुलिस लाक-अप
से बाहर आ पाया। डी.पी.आर.ओ. तहसीलदार और एस.डी.एम. साहब- सबके यहां चक्कर व्यर्थ
सिद्ध हुए। हर जगह से एक ही आवाज़ थी- ‘अगर एस.टी. एक्ट न होता,
तो मामला दब जाता! अब तो पीडि़त से ही सुलह करनी होगी- वह तो पुलिस
ही करायेगी!’
‘‘एस.सी. एक्ट की मार बड़ी बुरी
होती है, जब थानेदार भी एस.सी.हो!’’- प्रधान
पत्नी को बता रहा था।
पत्नी ने कहा- ‘‘तो
फिर काहे को दबंगई करने देते हो? कब तक इन लोगों को दबाते
रहोगे?’’
‘‘समझाता तो हूं, लेकिन नया ख़ून है‘ समझता कहां है? अब आगे देखो, दोनों क्या रंग दिखाते हैं? परशुआ को छोड़ दें क्या? छोड़ेंगे तो नहीं साले को,
हो चाहे जो जाए!’’
‘‘कबहूँ ई चक्कर से
निकलने की भी सोचो! ज़माना बदल रहा है, कब तक सबको सबक सिखाते
रहेंगे?’’ लेकिन जब
तक पत्नी की बात ख़त्म होती, प्रधान घर के बाहर आ चुका था।
पुरस्कार
लखनऊ से दिल्ली जाने
वाली ‘राजधानी मेल’ में मेरा रिज़र्वेशन था। अपनी बर्थ पर
जब पहुंचा, तो देखा कि एक वृद्ध सज्जन क़ब्ज़ा जमाये हुए
हैं। मैंने जब उनसे बर्थ खाली करने को कहा, तो उन्होंने कहा,
‘‘ठीक है बेटा! थोड़ी देर में खाली कर देंगे।’’
मैंने थोड़ी देर
इन्तज़ार किया, पर उन्होंने बर्थ नहीं खाली की। आराम से लेटे
रहे। मैंने टी.टी.ई. से शिकायत करने की सोची, पर उसका कहीं पता न था!... क्रोध में
जब मैंने उन्हें हाथ पकड़ ज़बरदस्ती उठाने की कोशिश की, तो पता चला कि उन्हें तेज़
बुखार है और लगभग अचेत हैं। मेरे ब्रीफ़केस में पैरासिटामाल पड़ी थी। एक गोली उन्हें
दी; फिर चाय पिलवायी। कोई घंटे-भर बाद उनकी हालत में कुछ सुधार हुआ। फिर बर्थ खाली
करने के लिए वे उठने लगे। मैंने उन्हें उठने को मना किया और आराम करने को कहा,
लेकिन वे बार-बार उठ बैठते! मैंने उन्हें लगभग डांटते हुए चुपचाप
लेटे रहने को कहा और स्वयं वहां से हट गया। आधे घंटे बाद देखा, वे आराम से सो रहे थे।...
घड़ी पर नज़र पड़ी।
डेढ़ बज रहा था। नींद के मारे मेरा भी बुरा हाल था। कल का अख़बार हाथ में था।
मैंने उसे दोनों सीटों के बीच में बिछाया और उसी पर लेट गया। कब नींद आ गयी,
पता न चला!
सवेरे पांच बजे आंख खुली। बर्थ की ओर
बढ़ा, तो देखा कि वे सज्जन बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्हें
ग़ाजियाबाद में उतरना था। मैं बर्थ पर लेट गया। उन्होंने मेरा नाम-पता जानना चाहा,
पर मैंने टाल दिया। उनके बहुत कहने पर मैंने अपना विजिटिंग कार्ड दे
दिया। मेरा कार्ड देखते हुए बोले, ‘‘वेरी गुड, यू आर ए लाइयर! बेटा, मैं भी तुम्हारी कालोनी के पास
ही रहता हूं और...” फिर तुरंत ही प्रश्न किया, “अच्छा, कितनी प्रैक्टिस हो गयी है?’’
मैंने कहा, “पांच-छः साल हो गये!”
“वेरी गुड़!” कहकर उन्होंने अपना
विजिटिंग कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया। फिर कहा, “जब भी मौक़ा मिले, तो ऑफिस
में मिलना!’’ मैंने उनका कार्ड देखा। वे एक पब्लिक सेक्टर
बैंक ए.जी.एम. (ला) थे। मैं सोच में पड़ गया कि उन्हें आखि़र मुझसे क्या काम हो
सकता है?
दिल्ली से लौटे मुझे एक सप्ताह से
अधिक समय हो गया था। एक दिन कोर्ट के लिए निकला ही था कि घर के पास ही कार ख़राब
हो गयी। मुहल्ले में ही गाड़ी सडक के किनारे लगा मैं आटो लेने सड़क पर आ गया। अभी
आटो की तलाश में ही था कि वही सज्जन कार चलाते हुए दिख गये। उन्हें देख अचानक मेरा
हाथ उठ गया। कह नहीं सकता कि मेरा हाथ अभिवादन में उठा था या सहायता पाने के लिए!
बहरहाल, मुझे देखते ही
उन्होंने फौरन गाड़ी रोकी और बिना कुछ कहे ही दरवाजा खोल बिठा लिया। फिर बोले,
‘‘आज ज़रूरी केस न हो, तो बेटा मेरे आफिस चलो।’’
पता नहीं क्यों, मैं उन्हें मना नहीं कर पाया।
कोई बीस मिनट बाद मैं उनके आफिस में
था। चैम्बर में पहुंच उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बायोडाटा है साथ में?’’
मैंने कहा, ‘‘हाँ
है, लेकिन क्यों?’’
‘‘है, तो दीजिए!’’
मैंने ब्रीफकेस खोला और अपना बायोडेटा
उनके सामने रख दिया।
चाय मंगाकर उन्होंने किसी स्टाफ को
बुलवाया। फिर उसे मेरा बायोडेटा देते हुए कुछ कहा।
चाय ख़त्म कर मैंने जब जाने की मैंने
अनुमति मांगी,
तो उन्होंने दस मिनट समय और देने को कहा। मैं हैरान था कि वे मुझे
क्यों रोकना चाह रहे हैं? पर पूछ नहीं पाया, बस बैठा रह गया। चार-पांच मिनट बाद मैंने फिर उठना चाहा, पर तब भी नहीं उठ नही सका।.... असमंजस में ही दस-पन्द्रह मिनट बीत गये।
मैं कुर्सी से दुबारा उठने वाला ही था
कि उनके पास एक टाइप की हुई चिट्ठी आ गयी। हस्ताक्षर कर उसे मेरी ओर बढ़ा दिया।
मैंने चिट्ठी पर उचटती हुई नज़र डाली
थी कि मैं आश्चर्य-मिश्रित-आनन्द में रसस्नात हो उठा।... उनके बैंक के एम्पैनल्ड
एडवोकेट्स की लिस्ट में, मैं सम्मिलित हो चुका था।
अपना-घर
‘अपना-घर’
में आज एक बुजुर्ग महिला आयी हैं। पूछने पर बताती हैं कि बिहार की
रहने वाली हैं, दो साल पहले पति गुज़र गये, दो बेटे हैं, बेटी भी है। सभी षादी-षुदा हैं। लेकिन
बहुओं के आगे उनकी एक न चलती है। बहुओं ने मार-पीट कर उन्हें घर से निकाल दिया और
बड़े बेटे ने ‘गुवाहाटी एक्सप्रेस’ में
ज़बरदस्ती बिठा दिया। लखनउ में टिकट-चेकिंग हुई, लेकिन उसे
सज़ा न मिली। बस स्टेषन के बाहर छोड़ दिया। भूखी-प्यासी विक्षिप्तावस्था में दो
दिन वे पड़ी रहीं। फिर किसी भले मानुस ने उन्हें यहां पहुंचा दिया।
अपना-घर पहुंचकर उनका
इलाज हुआ और मतलब भर की देख-भाल भी। यहां के कार्यकत्र्ता उन्हें ‘अम्मा’
कहते हैं। लेकिन वे ‘अम्मा’ षब्द से चिढ़ जाती हैं। कहती हैं- यह सुनते ही बच्चों की याद ताज़ा हो
जाती है। उन पर गुस्सा भी आता है, लेकिन तुरन्त ही क्षमा-भाव
भी उमड़ आता है- आखि़र हैं तो कलेजे के टुकड़े ही! बहुओं के बहकावे में आकर ऐसा
बर्ताव किया। सरकार को चाहिए कि उन्हें रास्ते पर लायें। उनकी आमदनी का हिस्सा
हमें मिलना चाहिए, भले ही वे हमें अपने साथ न रखें। वे वहां
खु़श रहें और हम यहां!....
कभी अम्मा कहती हैं
कि यहां ठीक तो है,
लेकिन अपना घर, अपना होता है। पन्द्रह दिनों
में ही यहां का रंग चढ़ा भी और उतरने भी लगा!
बीस दिन भी न बीते कि
कि एक दिन वे चारबाग पहुंच गयीं और पूछते-पाछते पटना जाने वाली गाड़ी में बैठ गयीं।
पटना से पहले ही टी.टी.ई. ने उन्हें किसी स्टेषन पर उतार दिया। जब दो दिन बिना
खाये-पिये बीत गये। पानी पीकर पेट भरना मुष्किल होना लगा, तब
उन्होंने एक भिखारी का जूठा खाकर अपनी भूख षान्त की। अगले दिन भिखारी ने उनका हाथ
पकड़ा और भीख मांगने अपने साथ बिठा लिया। भीख मांगना और उससे पेट भरना उन्हें आसान
लगने लगा। अगले दिन उन्होंने फिर भीख मांगी। आज भर पेट खाना खाने के बाद बीस रुपये
भी बच गये। अब भीख मांगने में उन्हें षर्म नहीं आती। रेलवे-पुलिस को सौ रुपये देकर
उन्होंने रेल के डिब्बे में भीख मांगनी षुरू कर दी। अब तो इतनी आमदनी होने लगी कि
महीने में हज़ार रुपये बचने भी लगे। उसने सोचा कि जब दस हजार रुपये इकट्ठे हो जाएं,
तो वह अपने घर लौटेगी और अगर वहां उसको रहने को न मिलेगा, तो घर के सामने ही भीख मांगना षुरू कर देगी!
अपने लक्ष्य की
पूर्ति के लिए वह नियमित रूप से भीख मांग रही थी। एक दिन वह डिब्बे में भीख मांग
रही थी कि उसके कटोरे में किसी ने सौ का नोट डाला। वह चैंकी। भीख देने वाला उनका
दामाद था। गनीमत थी कि बेटी उसके साथ न थी। दामाद की ओर पीठ किये वह चुपचाप बैठी
रही। अगले स्टेषन पर वह चुपके से उतरी और स्टेषन की भीड़ में गुम हो गयी।
तरक़ीब
इंटर तक षिक्षित पचीस
वर्शीय वह तहसील में चपरासी था। उसकी पत्नी- सीमा, लेकिन अनपढ़ थी। उसने
लाख चाहा कि वह कुछ पढ़ लिख जाए, अक्षर-ज्ञान की किताबें भी
लाया, ख़ुद भी षाम को एक घंटा उसे पढ़ाने बैठता, पर सारे प्रयास व्यर्थ हो गये।
उनके दो जुड़वा बेटियां
थीं। दोनों पति-पत्नी उन पर जान छिड़कते, फिर भी उन्हें बेटे
की चाहत थी।..... दो सालों बाद सीमाँ गर्भवती थी। सरकारी अस्पताल से कार्ड बनवा
लिया गया था। ‘आषा’ बहू से सलाह-मषविरा
लिया जा रहा था- समय पर संतुलित भोजन और हल्का-फुल्का काम!.....
उम्मीद थी कि बेटा होगा,
पर भगवान को यह मंजूर न था। फिर बेटी हुई। वह निराश हो गयी। पति ने
धैर्य बंधाया- हमारे हाथ में क्या है? फिर बेटी तो लक्ष्मी
के समान होती है! आजकल बेटी-बेटी में फ़र्क ही क्या है? लेकिन
सीमाँ संतुश्ट न थी, उसे तो बेटा चाहिए था।
बेटे के लिए बेचैन वह
तीसरी बार माँ बनना चाहती थी। सोमवार को व्रत रखती, मंदिर
जाती, दरगाह पर भी अगरबत्ती जलाती। डाॅक्टरनी से भी सलाह ली-
बेटा होने की दवा दे दे, पर डाॅक्टरनी हंस पड़ी- ‘‘अरे, सीमा, यह तो कोई नहीं तय
कर सकता कि गर्भ में क्या बनेगा- लड़का या लड़की? हां बाद
में ज़रूर पता लग सकता है, लेकिन उसकी भी जांच पर पाबन्दी
है। अच्छा यह सोचो, अगर सब लड़के ही होंगे, तो उनकी षादी किससे होगी? लड़की है तो क्या हुआ?
उसे पढ़ाओ-लिखाओ, क़ाबिल बनाओ, अपने पैरों पर खड़ा करने लायक़ बनाओ- फिर देखो, लड़के
और लड़की में क्या भेद है?....अच्छा मुझे ही देखो, मैं भी तो लड़की हूं!...अच्छा सीमा, तुमने
लक्ष्मीबाई, इन्दिरा गांधी, प्रतिभा
पाटिल- किसी का नाम सुना है? यह सब भी तो लड़कियां थीं!’’
सीमाँ पर इन सब बातों
का प्रभाव क्षणिक पड़ा। घर आकर फिर उसे बेटे की धुन सवार हो गयी। रमेश ने भी
समझाया- मान लो, इस बार भी अगर बेटी हो गयी तो? पहले ही तीन-तीन बच्चे हैं, चैथे का भार हम कैसे
उठायेंगे? आजकल इतनी महंगाई कि दो बच्चों को ही ढंग से पालना
मुष्किल है, फिर अपने तो तीन पहले से हैं- नहीं, नहीं! चैथा बच्चा, बिल्कुल नहीं!!
सीमाँ ने कहा- लेकिन
बेटा, बेटा होता है, उसी से खानदान चलता है, अपना नाम रौषन होता है!
‘‘हां,
अगर लायक़ हुआ तो! एक-दो पीढ़ी जरूर नाम चलेगा, लेकिन अगर नालायक निकला, तो उल्टे नाम डुबोयेगा,
जैसे- रावण, कंस, दुर्याेधन!’’ पति ने
समझाया।
‘‘हम
कुछ नहीं जानते, हमको बेटा चाहिए!’’ सीमाँ
ने अनसुनी की।
पति ने हारकर कहा- ‘‘अच्छा,
ठीक है!’’ वह षान्त हो गयी।
अगले दिन चुपचाप वह
अपनी नसबन्दी करा आया।
संतान
रमेश और सुरेश सगे
भाई थे। उनके पिता नहीं रहे थे, लेकिन उनकी भलमनसाहित अभी भी जीवित थी। यह
षायद उनके पिता का ही पुण्य-प्रताप था कि दोनों प्रेम से एक ही घर में रहते,
जो भी बन पड़ता- खाते-पीते-पहनते और प्रसन्न रहते। एक ही में खेती
करते, अच्छी फ़सल उगाते और वक़्त-ज़रूरत ग़रीबों की मदद
करते।
उनकी पत्नियों में भी
ख़ूब प्रेम था- दोनों सगी बहनों की तरह रहतीं, मिल-बांट कर
घर का काम करतीं और एक-दूसरे को सुख-दुख अपनातीं!
रमेश की दो सन्तानें
थीं- एक बेटा और एक बेटी! दोनों ही प्यारे और आज्ञाकारी! सुरेश के कोई सन्तान न
थी। वह भाई के बच्चों को अपना मानता। पर उसकी पत्नी के मन में कसक थी- काष! उसके
भी बच्चे होते।
अपनी संतान के लिए सुरेश
ने इलाज भी कराया। काफ़ी धन लुटाया, पर कोई लाभ न हुआ। दोनों
की जांच के बाद डाॅक्टर ने बताया कि उनके सन्तान नहीं हा सकती। पत्नी की बच्चेदानी
विकसित नहीं हुई है। आॅपरेषन से भी कुछ नहीं होगा। वे अधिक-से-अधिक ‘सबरोगेटेड चाइल्ड’ की सोच सकते हैं- अर्थात् किसी
अन्य स्त्री के पेट में सुरेश का बच्चा! षहरों में भले ही इसका प्रचलन हो चुका हो,
पर गांव में अभी यह तरीक़ा अपनाया नहीं जाता।.....सुरेश ने लेकिन
पत्नी से यह बात नहीं बतायी।
वह पत्नी को अक्सर
समझाता- अपनी सन्तान नहीं, तो क्या हुआ? भैया के बच्चे तो हैं- उन्हें ही अपना क्यों नहीं मानतीं? लेकिन पत्नी का हृदय न मानता। वह उदास हो जाती।
किसी ने पूजा-पाठ की
सलाह पर पत्नी ने ओझा भी बुलवाया। सुरेश इस सब के खि़लाफ़ था, पर पत्नी का मन रखने के लिए उसने यह सब होने दिया। ओझा ने खू़ब ठगा,
पर लाभ न होना था, न हुआ।.....कि़स्मत के भरोसे
मामला छोड़ पूजा-पाठ और दवाइयां भी बन्द कर दी गयीं।
सुरेश को कुछ दिनों से
खांसी आ रही थी जो इधर कुछ दिनों से बढ़ गयी। रमेश ने उसे डाॅक्टर को दिखाया-
एक्स-रे और ख़ून की जांच हुई,, पता चला- टी.बी. है! नौ
महीनों तक दवाइयों का कोर्स और पौश्टिक भोजन। हल्का-फुल्का काम करना
है।.....दवाइयों का कोर्स षुरू हुआ। खेती का काम जो छोटा भाई अधिक संभालता था,
बड़े भाई ने संभाला। सुरेश को समय पर खाना-पीना और दवाइयां देने का
जिम्मा भतीजी का था। नतीज़ा दिखने लगा- उसकी खांसी पन्द्रह-बीस दिनों में न के
बराबर रह गयी। पहले हल्के-फुल्के काम में भी हांफ जाता था, पर
अब कुछ ताक़त महसूस करने लगा।
सुरेश की बीमारी से
उसकी पत्नी चिन्तित हो गयी थी। कुछ दिनों में वह भी बीमार जैसे लगने लगी। भतीजी ने
उसका भी ध्यान रखा। वह उन्हें समझाती- घबराने की कोई बात नहीं है! आजकल टी.बी. तो
जड़ से खत्म हो जाती है। चाचा एकदम ठीक हो जायेंगे! वह उनके कपड़े धोती, पैरों
में महावर लगाती, मनपसन्द व्यंजन बनाकर खिलाती। रामायण पढ़कर
सुनाती- यह सुनना चाची को पसन्द था।
तीन महीनों में ही
सुरेश काफी ठीक हो गया था। खेती के काम में हाथ बंटाने लगा। बड़ा भाई अभी भी उसे
भारी काम न करने देता,
उसे खाना खिलाकर ही खाता। भतीजा और भतीजी, दोनों
चाचा-चाची की सेवा करने में कोई कसर न छोड़ते थे।.....सुरेश तो उन्हें अपने बच्चों
की तरह मानता ही था, उसकी पत्नी भी उन्हें अपनी सन्तान समझने
लगी।
फ़ैसला
जिस मोहल्ले में अमर
बाबू का पुष्तैनी मकान था,
वहां साम्प्रदायिक दंगा हुआ था। हिन्दू और मुसलमानों के कितने ही घर
लुटे, कितनी ही सम्पत्ति बरबाद हुई, कितनी
ही बहू-बेटियों की इज़्ज़्त ख़ाक हुई। पांच व्यक्तियों की हत्या और दस को अपंग
बनाने के बाद उन्माद षान्त हुआ था।
अमर बाबू के मकान के
अगल-बगल के मकानों को छोड़कर पूरी गली में सभी घर मुसलमानों के थे। दस-बारह मकान
छोड षुक्लाजी का मकान था, लेकिन वे भी उसमें रहते नहीं थे,
किराये पर चढ़ाये हुए थे। किरायेदार भी कोई षुक्ला ही था। सामने
वाली गली में भी सभी मुसलमान थे। पीछे वाली गली में हिन्दुओं के मकान अधिक थे।
दंगे में अधिक नुक़सान
पीछे वाली गली के हिन्दुओं का हुआ था। अमर बाबू का हालांकि कोई नुक़सान न हुआ था,
लेकिन जब उनके पड़ोसी ने बताया कि मोहल्ले के सभी मुसलमानों ने अपने
घरों में चाकू, कट्टे और बम रखना षुरू कर दिया है, तो वे भी अपने बैग मंे रामपुरी चाकू रखने लगे थे।
रविवार के सूर्यास्त का
समय था। अमर बाबू स्कूटर से घर लौट रहे थे अचानक उनके पड़ोसी मुख़्तार अहमद दिखायी
पड़े जो सामने से पैदल आ रहे थे। उनके साथ दो-तीन लोग और थे जो वेष-भूशा से
मुसलमान लग रहे थे। मुख़्तार ने अमर को हाथ देकर रोकना चाहा, पर वे जान-बूझकर नहीं रुके।
जल्दी से घर पहुंचकर
अमर बाबू ने पत्नी और बच्चों को सुरक्षा का मंत्र देते हुए दरवाज़े की सिटकनी चढ़ा
दी। माहौल षान्त था, इसलिए पत्नी ने जब इसका कारण पूछा,
तो उन्होंने इतना ही कहा- ‘‘आजकल किसी का क्या
ठिकाना?’’
पत्नी किचन में चली
गयी। बच्चे भी चुपचाप पढ़ाई में लग गये।
चाय पीकर अमर बाबू इसी
सोच में डूबे थे कि कब यह मकान बिके और वे किसी कालोनी में बसें। वहां सब लोग
अपने-अपने में मस्त रहते हैं- मोहल्लेदारी का कोई चक्कर नहीं रहता! दंगे का तो
सवाल ही नहीं! यहां तो एक-एक दिन पहाड़ हो रहा है।
- खट्! खट्!!- दरवाजे
पर दस्तक।
- कौन?
- अरे हम हैं मुख़्तार,
दरवाजा तो खोलिए जनाब!
- अच्छा, खोलते हैं!
अमर बाबू ने पत्नी और
बच्चों को पीछे वाले कमरे में ढकेलकर उसमें कुंडी लगा दी, फिर
अपना बैग ढूढ़ने लगे जिसमें रामपुरी था। लेकिन बैग पता नहीं कहां चला गया था?
अचानक उन्हें याद आया कि बैग तो स्कूटर से निकाला ही नहीं- सीट के
नीचे लगे कुंडे में ही लगा रह गया क्या?....सोफे के नीचे
छिपाये हुए डंडे पर नज़र डाल सहमते हुए उन्होंने थोड़ा-सा दरवाज़ा खोला।
दरवाज़ा खुलते ही उनकी
नज़र मुख़्तार के हाथ में टंगे उनके बैग पर पड़ी। इससे पहले वे कुछ कहें, मुख़्तार ने बैग थमाते हुए कहा- लीजिए भाईजान! अपनी अमानत! आप इसे हमारे
भतीजे की दुकान पर भूल आये थे। जब तक उसकी नज़र आपके बैग पर पड़ती, आप वहां से निकल चुके थे।.....रास्ते में आप दिखे भी और हमने आपको रुकने
का इषारा भी किया, मगर आपने षायद ग़ौर नहीं किया।....
- षुक्रिया, भाई साहब! आइए अन्दर एक कप चाय हो जाए!
- नहीं, चाय अभी नहीं, अभी कुछ मेहमान बाहर से आये हुए हैं।
उन्हें घर पर बिठाकर बस आपकी अमानत देने आ गया था। वे लोग इन्तज़ार कर रहे होगें।
चाय फिर कभी पी जायेगी।
मुख़्तार चले गये। अमर
बाबू को याद आया कि स्कूटर का पंचर बनवाते समय बैग उन्होंने दुकान पर रख दिया था
और उसके बाद वे प्रापर्टी डीलर के यहां गये थे- बैग वहीं भूल गये थे!
अगले दिन अमर बाबू के
स्कूटर में बैग तो टंगा था, पर उसमें रामपुरी नहीं था। मकान
नहीं बेचने का फ़ैसला तो उन्होंन कल रात ही ले लिया था।
विकल्प
रविवार को एक दोस्त
से मिलने सवेरे क़रीब ग्यारह बजे मैं स्कूटर से जा रहा था। जिस मोहल्ले में जाना
था उसकी प्रवेष-गली में कुछ बच्चे लुका-छिपी का खेल, खेल रहे थे।.....
अचानक पांच-छः वर्श का एक लड़का गली में से दौड़ता हुआ निकला और स्कूटर से टकरा
गया। स्कूटर वैसे धीमाँ था, फिर भी वह न संभला और गिर गया-
मैं तो दूर गिरा, लेकिन लड़का स्कूटर के नीचे दब गया। मैंने
लपककर स्कूटर उठाना चाहा, पर खड़े होते ही गिर पड़ा। हिम्मत
कर फिर उठने की कोषिश की, पर फिर गिरा।..... मेरे पैर में
मोच आ गयी थी।
पलक झपकते ही लोग
इकट्ठे हो गये। पहले मुझे चार-छः थप्पड़ और लातें मिलीं, फिर
एक बुजुर्ग के हस्तक्षेप से स्कूटर खड़ा किया गया। लड़के को गोद में उठाया गया- वह
अचेत था, षायद उसके सिर में अन्दरूनी चोट आयी थी। बाहर कोई
ज़ख़्म नहीं दिख रहा था।......
मेरे ही स्कूटर पर एक
नवयुवक मुझे तथा बच्चे को नज़दीक के नर्सिंग होम लाया गया। डाॅक्टर ने दूर से ही ‘मेडिको लीगल’ केस कहकर हाथ लगाने से इन्कार कर
दिया।...... हम लोग के.जी.एम.सी. पहुंचे।
पुलिस को फोन पर बुलाकर
लड़के को भर्ती कर लिया गया। इलाज षुरू हुआ.....ब्रेन हैमरेज था। चैबीस घंटे पर
आॅब्ज़र्वेषन के सिवाय कोई चारा न था।......मेरी टांग का एक्स-रे हुआ- फ़्रैक्चर
निकला। मैं भी भर्ती हो गया। प्लास्टर चढ़ा।.....दर्द की दवाई खाने पर आराम मिल
गया।......
डाॅक्टर से घर जाने की
अनुमति मांगी। उसने पुलिस चैकी से अनुमति लेकर जाने को कह दिया। पुलिस चैकी संदेश भिजवाया
गया। एक कांस्टेबिल आया। मेरी बातें सुन उसने मुझ पर यक़ीन किया और स्कूटर के
काग़ज़ात और दो सौ रुपये नक़द अपने पास रख मुझे जाने दिया। लड़के की माँ मुझे कै़द
करके रखना चाहती थी, पर कांस्टेबिल ने उसे डांट दिया। लड़के
के पिता को मेरे घर आने पर कोई ऐतराज़ न था।
रात आठ बजे के क़रीब
रिक्षे से घर पहुंचा। स्कूटर वहीं रोक लिया गया था। वैसे भी मैं चाहकर उसे नहीं ला
सकता था।
अस्पताल से लौटने तक
लड़का बेहोश था। मेरा मन उसी में लगा हुआ था। उसका षान्त चेहरा कभी प्यारा लगता,
कभी डरावना! चिन्तित था- कहीं मर गया, तो क्या
होगा?
लड़के के पिताजी एक
नज़र में सुलझे हुए आदमी लगे- वे चिन्तित तो थे, पर लड़के की
माँ की तरह अधीर नहीं; आक्रोश में नहीं!.....मैंने पत्नी से
कहा कि अस्पताल जा कर देख आये, पर उसने मना कर दिया। बेटा
अभी छोटा था- उन्हें भेजने का प्रष्न ही नहीं था। घर में और कोई था नहीं कि उसे
भेज पाता। मेरे पैर का दर्द बढ़ गया था। इसलिए दुबारा रिक्षे पर लद कर मेरे जाने
का सवाल ही नहीं था।
किसी तरह रात कटी।
सवेरे ही एक आदमी मेरा घर पूछते-पूछते आ गया। मैं समझ गया कि वह अस्पताल से आया
है। मेरी धुकधुकी बढ़ गयी। आषंका सच निकली- लड़के को बचाया न जा सका। पोस्टमार्टम
से पहले पुलिस ने मुझे बुलाया था।
उसके साथ मैं अस्पताल
चल पड़ा। पंचनामाँ तैयार हुआ। मृतक के पिताजी ने अपने बयान में कहा कि दु़र्घटना
में मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं थी। पुलिस वाले मुझसे खाने-पीने के चक्कर में थे,
लेकिन मृतक के पिता ने उनसे कुछ बात की। मैं डरा कि आगे का कोई
शड्यन्त्र होगा, पर मैंने जी कड़ा किया- जो होगा, देखा जायेगा!.......पोस्ट-मार्टम हुआ।.....लड़के का अंन्तिम संस्कार हुआ।.....मैं
दुखी था, पर क्या कर सकता था?
बीस-पच्चीस दिन बीते।
मेरा प्लास्टर कट चुका था। दुर्घटना से भी उबर चुका था। धीरे-धीरे चलने लगा था,
पर अभी घर पर ही था।
उस दिन भी रविवार था।
बेटे ने बताया कि उसके नये टीचर आये हैं। मैंने उन्हें ससम्मान बुलाने के लिए कहा।
वे अन्दर आये। उन्हें देख मैं हतप्रभ रह गया- वे मृतक के पिता थे!
मैंने दुख प्रकट किया।
उन्होंने षान्त भाव से कहा- होनी को कौन टाल सकता है? लेकिन
एक प्रार्थना है!
- आदेश करें!- मैंने
कहा।
- आपके बेटे के जैसा ही
हमारा बेटा था। कभी-कभार यदि इसे मेरे साथ घूमने-फिरने का अवसर दें, तो मैं समझूंगा कि मुझे बेटा वापस मिल गया है!
मेरा अपराधी मन सषंकित
था। मैंने बेटे से यह बात बतायी। बेटा फ़ौरन तैयार हो गया।.....दोनों को साथ-साथ
जाते हुए मैं देर तक देखता रहा।
बिमली
- कल क्यों नहीं आयी बिमली?
- कल मेहमान आ गये थे
बीबीजी! मेरे को देखने....अचानक.....।
- अच्छा, कुछ बात बनी?
- कहां, बीबीजी! वही मसल हो गयी कि घर में नहीं दाने/अम्मा चलीं भुनाने!
- मतलब?
- अरे मतलब साफ है- दहेज
के लिए रोकड़ा नहीं, तो लड़की काली है, क़द छोटा है, दूसरों के घर काम करती है।.... अरे
बीबीजी! सब बहाने हैं, बहाने। मोटरसाइकिल और टी.वी. चाहिए। ई
सत्तर हज़ार कहां से लायें? फिर खाना-पीना, साज-सजावट में एक लाख अलग से! इत्ता पैसा हम लोग कहां से जुटायें?
- क्यों, क्या कोई और नहीं कमाता घर में? और कौन-कौन हैं घर
में?
- सभी कमाते हैं- अम्मा,
बाबू। भैया अभी पढ़ता है। लेकिन हम तीनों मिलकर बीस दस-बारह हज़ार कमाँ
पाते हैं। पूरा ही नहीं पड़ता, बचत क्या करें? कितनी भी कंजूसी करें, पेट काटें, मुष्किल से हज़ार रुपये बचा पाते हैं!.....इतने में हम कितना दहेज जुटा
सकते हैं?
बिमली के चेहर पर
विवषता की रेखाएं देख बीबीजी सोच में पड़ गयीं।.....यही हाल तो उनका भी था। मियां
को तो बीस हज़ार रुपये कट-पिट कर मिलते हैं। एक ही बेटा है, तब
भी नहीं पूरा पड़ता!....बचत की कौन कहे? त्योहार आये या कहीं
आना-जाना हो, तो और मुसीबत!
फिर भी षादी तय होने पर
बिमली को उन्होंने पांच हज़ार देने का
वादा कर लिया।
जुर्माना
फटी पाॅलीथीन और
गत्ते से ढंके टट्टर की खोलियों में जि़न्दगी से लड़ते लोग।.....रात दो बजे का
समय!
- साले, ऐय्याषी करता है?
- नहीं साहब, मेरी बीवी है। आज ही गांव से आयी है!
- हां, साहब! यह मेरा आदमी है।
- चुप कर साली! धन्धा करना
है तो कहीं और जाके कर। मेरी बीट में नहीं!- सिपाही ने डंडा फटकारा।
- सा‘बजी! ये ठीक कह रहे हैं!- पड़ोसियों ने भी समर्थन किया, पर उनकी बात सिपाहियों के नषे में घुल गयी।
- अच्छा, चल थाने! वहीं होगा फै़सला कि कौन किसका क्या है?- सिपाहियों
ने गालियां देते हुए कहा।
कुछ देर मान-मनौव्वल के
बाद भी जब मुक्ति नहीं मिली, तो वे थाने के लिए चल
पड़े।......थोड़ी ही दूर चले होंगे, कि एक सिपाही ने दया
दिखलाते हुए कहा कि अगर वह पांच सौ रुपये अभी दे दे, तो वे
छूट सकते हैं।
वह तेज़ी से खोली की ओर
भागा। खोली में तीन सौ रुपये थे। दो सौ का जुगाड़ करने में कोई बीस मिनट लग गये।
जब वह लौटा, तो वहां सन्नाटा था।......इधर-उधर देख वह आगे बढ़ने वाला ही था कि पास की
झाडि़यों से किसी के कराहने की आवाज़ आयी।.......वह उधर लपका, देखा- पत्नी ही थी।
किसी फि़ल्म की तरह
सारा दृष्य उसकी आंखों में घूम गया- जैसे ही वह लौटा होगा, उन
दरिन्दों ने उसकी पत्नी को झाडि़यों में घसीट लिया होगा। उसने पुरज़ोर विरोध किया
होगा, चिल्लाने लगी होगी, लेकिन उसके
मुंह को ज़बरदस्ती बन्द कर दिया गया होगा, फिर.......।
पत्नी को सहारा देते
हुए संज्ञाषून्य वह इस लुटरे षहर से कहीं दूर, बहुत दूर चला
जाना चाहता था।
दौड़
दसवर्शीय नेत्रहीन
भाई को उससे पांच वर्श बड़ी बहन, कछुआ और खरगोश की कहानी सुना रही थी। भाई
को न तो कछुए के बारे में कुछ मालूम था और न ही खरगोश के बारे में। उसकी समझ से
सभी जानवर आदमियों जैसे होते होंगे, जैसे उसके मां-बाप और
बहन। हां, जानवर थोड़े छोटे-बड़े होते होंगे, जैसा कि उसकी बहन उसे अक्सर बताया करती थी।
कहानी का छोर उसकी पकड़
में नहीं आ रहा था। उसने टोका- दीदी! खरगोश क्या इतनी तेज़ दौड़ता है कि वह सोने
का भी चांस ले ले। लेकिन कछुआ धीरे-धीरे क्यों चलता है?....और
जब दोनों की चालों में इतना अन्तर है, तो फिर दौड़ की षर्त
ही क्यांे लगायी?
कहानी गढ़ने के औचित्य
पर प्रष्न उठते ही बहन ने कहानी सुनाना बन्द कर अपना पाठ याद करने लगी। अभी उसे कई
घरेलू कार्य निपटाने थे। उसकी मम्मी की तबीयत ठीक नहीं थी।
भाई से फिर भी न रहा
गया। उसने कहानी सुनने की जि़द की।
बहन ने कहानी के मर्म
को समझाने की गरज़ से आस-पास के चरित्रों को खोजना षुरू किया।....आखि़रकार,
बहन ने कहानी का छोर पकड़ाया- मान लो, मम्मी
कछुआ हों और पापा खरगोष, तो बताओ दौड़ कौन जीतेगा?
- ओह, समझ गया। मम्मी जीतेंगी! भाई ने उत्तर दिया।
बहन को सन्तोश था कि
उसकी मेहनत बेकार नहीं गयी थी।
कला का मोल
गोबर पाथती सरसुतिया
अपने भाग्य को कोस रही थी- किस कंगाल के पल्ले बांध दी गयी वह! एक लछिमिनिया है कि
जिसे पांव दबाने के अलावा कुछ नहीं आता, फिर भी कर रही है
राज!.........
किसी ने सुझाया कि वह
तो कला की देवी है। इस कार्य में भी कला का उपयोग करे।
कलापूर्ण उपले चूल्हे
में दहक उठे।
ठाकुरजी को भोग लगा।
लछिमिनिया से पांव
दबवाते ठाकुरजी डकार लेते हुए स्वादिश्ट भोजन की प्रषंसा कर रहे थे।
सरसुतिया अपना भाग्य
सराहने लगी।
षुद्धि
- अम्मा, बाबू कहां हैं? दसवर्शीय राजू ने पूछा।
- बाथरूम में उल्टी कर रहे
हैं। लगता है, फिर किसी के यहां से कुछ खा-पीके आये हैं।
कितनी बार कहा कि जब मन का भेद नहीं मिटता, तो दिखावा किसलिए?
लेकिन सुनते कहां है!
- मैं भी तो रहमान के यहां
से अभी-अभी सिवइयां खाके आ रहा हूं। मुझे तो कुछ नहीं हो रहा!
- अरे बेटा, होता तो उनको भी कुछ नहीं, पर वे तो मुंह में
उंगलियां डाल-डाल उल्टी करते हैं। कहते हैं धर्म भ्रश्ट हो गया है, षुद्धि तो करनी पड़ेगी।
- तो फिर उनके यहां खाते-पीते
ही क्यों हैं?
- यही तो मैं भी कहती हूं,
पर मानते कहां हैं! कहते हैं, जनता का सेवक
हूं। सब कुछ करना पड़ता है!
नेता की आत्मा
चुनाव की व्यस्तता।
पाटी के कार्यकर्ताओं के साथ नेता चुनाव जीतने की रणनीति तय कर रहा था कि अचानक
दरवाजे पर दस्तक हुई।
- कौन?
- मैं!
- मैं कौन?
- मैं हूं आपकी आत्मा। जल्दी
दरवाज़ा खोलिए, मुझे डर लग रहा है।
- अरे भई, डरो नहीं। मैं अभी चुनाव जीतने में व्यस्त हूं। तुम बाद में आना!
चुनाव जीतने के बाद नेता ओ.सी.आर. बिल्डिंग
की छठी मंजि़ल के एक कमरे में बैठा यारों के साथ ओल्ड मांक की चुस्कियां ले रहा था
कि दरवाज़े पर दस्तक!
- कौन?
- मैं हूं आपकी आत्मा! जल्दी दरवाज़ा खोलिए, मैं बहुत
मुष्किल में हूं।
- लेकिन मैंने देश की सेवा का व्रत लिया है। मैं तुम्हें अपने साथ नहीं रख
सकता।
- तो मैं कहां जाउं?
- कहीं भी जाओ, पर मेरा पिंड छोड़ो।
- लेकिन मैं बर्बाद हो जाउंगी!
- तो मैं क्या करूं! मैंने तुम्हारा ठेका ले रखा है? चलो,
फूटो यहां से!!
वृक्षारोपण
ए.बी.सी. बैंक के
एम.डी. ने नयी शाखा का उद्घाटन किया। फिर उन्होंने वहां एक पौधा रोपा। फोटो खिंची।
स्थानीय अख़बारों तथा कम्पनी की मैगज़ीन में फोटो और ख़बरें छपीं। वृक्षारोपण
सम्बन्धी जानकारी भी एक तख़्ती पर पेंट कर पौधे के साथ लगा दी गयी।
कुछ दिनों बाद बैंक के
चेयरमैन महोदय शाखा में पधारे। उन्होंने भी वृक्षारोपण किया। उनके नाम की तख्ती
लगी. फोटुयें खिंची और अखबारों में छपी, बैंक की मैगजीन में तो कवर पर छपी।
बैंक का हर बड़ा
अधिकारी शाखा का निरीक्षण करने आता और वृक्षारोपण करता। धीरे-धीरे शाखा परिसर में
खाली जगह न बची।.....जितने पौधे, उतनी ही तखि़्तयां! वृक्षारोपण
मनोरंजन का विषय बन गया।
पिछले वृक्षारोपण के
महीने भर बाद कम्पनी का एक डायरेक्टर शाखा में आया। उसे मीटिंग करनी थी। दो दिनों
का कार्यक्रम था। उसने भी वृक्षारोपण की इच्छा जतायी, पर अब वहां जगह न बची थी! वह
निराश हो गया।
शाखा प्रबन्धक को डर था
कि डायरेक्टर की निराशा से कहीं उसका नुक़सान न हो जाए! एक अधीनस्थ को विश्वास में
लेते हुए उसने एक उपाय ढूंढ़ निकाला।
अगले दिन माली ने देखा
कि परिसर में नीम का एक बड़ा पौधा उखड़ा पड़ा है जिस पर कोई तख़्ती न लगी थी। उसे
क्रोध तो बहुत आया, पर क्या कर सकता था? दोषी के खि़लाफ़ कार्रवाई करने के आग्रह के साथ उसने शाखा प्रबन्धक को
सूचना दी।
दोपहर बाद, डायरेक्टर साहब ने उखड़े हुए पौधे के स्थान पर गुलमोहर का पौधा रोप दिया।
फोटो में उनके चेहरे पर वही उल्लास था जो उनके पूर्ववर्ती वृक्षारोपण करने वालों
पर पाया जाता था। शाखा प्रबन्धक विशेष रूप से उत्साहित था। सभी के चेहरों पर
मुस्कराहटें चिपकी थीं।
अगर कोई तमतमाया था,
तो वह था- माली। गनीमत थी कि वह कैमरे की आंख से दूर था।
उपचार
प्रेम में असफल होने
पर सेठजी के इकलौते बेटे ने ज़हर खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया। गनीमत थी कि
ज़हर नक़ली थाी। उल्टियां हुईं, जान बच गयी। पेट में लेकिन अभी भी जैसे आग
लगी हो!
बेटे को अस्पताल में
भर्ती कराया गया। डाॅक्टर ने बताया कि ख़तरे की कोई बात नहीं। दवाइयों दी जायंेगी,
ड्पि चढे़गी, दो-तीन घंटे में आराम मिल
जायेगा!
उपचार में जो दवाइयां
दी जा रही थीं, उनमें से एक दवा सेठजी की कम्पनी की थी। उसे
देखते ही सेठजी के होश उड़ गये। सबके सामने उन्होंने कुछ नहीं कहा, पर डाॅक्टर से उस दवा को बदलने का अनुरोध किया। डाॅक्टर ने दूसरी दवा लिख
दी, पर वह दवाखाने में उपलब्ध न थी।
दवा देने का टाइम
निकलता जा रहा था। डाॅक्टर के कहने पर नर्स ने दवाइयां दे दीं। सेठ जी की चीख
निकलते-निकलते बची।
ईष्वर-भक्त सेठ जी
प्रत्येक वर्श राश्ट्ीय स्तर के संतों के प्रवचन का खर्च अकेले उठाते थे। हर
मंगलवार को वे हनुमानजी को पांच सौ रुपये के लड्डू चढ़ाते थे। मंदिर के बाहर
भिखारियों को पूडि़यां बांटते थे। जाड़ों में ग़रीबों और भिखारियों को कम्बल भी
बांटते थे।.......इन सबके सहारे अब तक उनकी कई मुसीबतें टली थीं।
आज भी उन्हें विष्वास
था कि कोई अनहोनी नहीं होगी। बड़े ही सच्चे मन से हनुमानजी, रामजी,
षंकरजी और जितने भी देवी-देवता उन्हें याद आये, उनसे उन्होंने प्रार्थना की; वैश्णों देवी, बालाजी, साईं बाबा, हाज़ी
वारिस अली की मनौतियां मानीं और नक़ली दवाईयों के कारोबार को बन्द करने का संकल्प
भी दुहराया, लेकिन अफ़सोस! इस बार किसी भी भगवान या फ़रिष्ते
ने दया नहीं दिखलायी।
रहस्य
मैं बाज़ार के लिए
निकलने वाला ही था कि स्वामीजी अपने दो षिश्यों के साथ पधारे। उन्हें देख मेरी माँ
की आंखों में श्रद्धा उमड़ आयी।
स्वामीजी ने मुझे देखा।
उन्हें मुझसे साश्टांग अभिवादन की अपेक्षा थी, पर मैंने
उन्हें निराश किया। वे खिसियाकर मुस्कुराये। बदले में मुझे भी मुस्कुराना पड़ा।
उन्होंने मुस्कुराहट ज़ारी रखी और क़ैफ़ी आज़मी के मषहूर षेर का स्वामीकरण करते
हुए मुझसे पूछा- क्या छिपा रहे हो बच्चा! बहुत मुस्कुरा रहे हो!!
मैंने माँ की इच्छा का
ख़याल रखते हुए स्वामीजी और उनके निठल्ले षिश्यों को आसन देते हुए कहा-
सच कहा आपने स्वामीजी! आजकल हम दो ही प्रकार से मुस्कुराते हैं- या तो अपने
कश्ट नहीं छिपा पाते या दूसरों के कश्ट देख अपनी प्रसन्नता नहीं छिपा
पाते!........आप तो अन्तर्यामी हैं स्वामीजी! आप मेरी मुस्कुराहट को कारण जान सकते
हैं, पर मैं तो ठहरा साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति, मुझे आपकी मुस्कुराहट का भेद क्या मालूम! कृपा कर बतलाने का कश्ट करें।
कुछ देर आंखें बन्द
रखने के बाद वे बोले- हमने आपकी मुस्कुराहट का कारण ज्ञात कर लिया है। अब हम
प्रस्थान करेेंगे बच्चा!
- अपनी मुस्कुराहट का
कारण भी तो बताते जाइए स्वामीजी!- मेरे आग्रह को अनसुना करते हुए वे अपने चेलों
सहित कूच कर गये। स्वामीजी के इस तरह चले जाने से मेरी माँ की आंखें सजल हो गयीं।
गनीमत थी कि आज उनका मौनव्रत था।
इससे पहले वे द्रवित हो
अपना मौनव्रत तोड़ दें, मैंने बाज़ार की राह पकड़ी।
साधना
- मां,
भिक्षामि देहि!- गेरुये वस्त्रों से सजे दाढ़ी-मूंछों में एक प्रौढ़
व्यक्ति ने अपना चिमटा बजाया।
स्त्री ने साधु को
पहचान लिया, पर प्रत्यक्षतः उसने नहीं पहचानने का उपक्रम
किया। अपने पति की तपस्या में वह बाधा नहीं बनना चाहती थी। उसने षान्त भाव से
भिक्षा दी।
अपनी तथाकथित साधना की
सफलता पर पति आत्ममुग्ध था- उसने माया पर विजय पा ली है!.....अए उसे लौकिकता से
क्या लेना-देना?
बूढ़े सास-ससुर की सेवा
में पत्नी से अपना संसार तलाश लिया था।
श्राद्ध
पितृपक्ष चल रहा है।
एक सज्जन अपने ‘स्वर्गीय’ पिता का श्राद्ध कराने जा रहे हैं। उनके
पीछे-पीछे एक मरियल-सा कुत्ता चल रहा है।
वे घाट पर पहुंचते हैं।
उन्हें देख ब्राह्मण प्रसन्न होता है, पर तनिक रुकने का
संकेत देता है। अभी वह एक पौढ़ा से बातचीत में व्यस्त है।
वे रुकते हैं। पीछे
मुड़कर देखते हैं- कुत्ता सटा खड़ा है। वे उसे दुत्कारते हैं, पर वह नहीं भागता। वे उसे मारकर भगाते हैं।
ब्राह्मण पूजा-पाठ
कराता है। दान-दक्षिणा लेता है।..... वे षांत भाव से वापस लौटते हैं।
रास्ते में फिर वही
कुत्ता। वह उन्हें सस्नेह देखता है, लेकिन वे उसे मारने
दौड़ते हैं।
कुत्ता कुकुआते हुए
भागता है, जैसे कहता हो- ‘कैसा मूर्ख
है? जिसकी आत्मा की षान्ति के लिए मारा-मारा फिर रहा है,
उसी को मार रहा है!’
चोर
रात के दो बजे थे। एक
आदमी सुनसान सड़क पर निकला।
- कौन है बे?- सिपाही ने कड़ककर पूछा।
- चोर!
- स्साले! हमसे मज़ाक करता
है? अभी मज़ा चखाता हूं।
- नहीं साहब, सच कह रहा हूं।
- अच्छा, बता, क्या चुराया है?
जांघिया और बनियान पहने
चोर ने हाथ में पकड़े ब्रेड के दो पैकेट दिखाये।
- बस?
- हां साहब!
- सच कहता है?
- जी साब!
- अच्छा, चल भाग जा!
चोर चला गया।
- जब चोर था, तो जाने क्यों दिया?- दूसरे सिपाही ने खैनी मलते हुए
कहा।
- अरे, जो सच बोलता है, वो भला चोर कैसे हो सकता है?.....और अगर छोटा-मोटा चोर हुआ भी, तो क्या फ़र्क
पड़ता है जब बड़े-बड़े चोर ससुरे हम पर
हुकुम चलाय रहे हैं!
दूसरा सिपाही चुपचाप
खैनी पीटने लगा।
सूई और तलवार
अहिंसा का पाठ पढ़कर
सूई अभी-अभी घर लौटी थी। कमरे में घुसते ही उसकी दृश्टि कोने में चुपचाप खड़ी
तलवार पर पड़ी।
तलवार ने पूछा- ‘‘कहां गयी थीं?’’
उत्तर देने के बजाए वह
उस पर ऐंठने लगी- ‘‘कभी तूने सोचा कि मैं क्या-क्या करती हूं
और तू क्या करती है?’’ फिर बोली- ‘‘जो
कार्य मैं कर सकती हूं, वह तू नहीं कर सकती!....मैं वस्त्र
सिलती हूं, फटे वस्त्र सिलती हूं और कढ़ाई-बुनाई भी करती
हूं! मतलब......सृजन......पुनर्सृजन, लेकिन तू!..... तू तो
केवल विनाश करती है, विनाष!....हिंसा के अतिरिक्त तू कुछ कर
ही नहीं कर सकती?.’’ कहते-कहते सूई का मुंह जैसे कसैला हो
गया।
कोने में खड़ी तलवार
अचानक गिर पड़ी। सूई के दो टुकड़े हो गये।
तलवार को फिर से खड़ी
करने जा रहे गृहस्वामी के पैर में सूई चुभ गयी थी।
एक बूंद
‘‘ज्यों
निकलकर बादलों की गोद से......’’
तो, हवा के बहाव से स्वाति की
बूंद मोती बन गयी और समुद्र में गोता लगाते-लगाते एक दिन मछुआरे के जाल में फंस
गयी।
कुछ दिनों बाद सीप का
पेट फाड़ वह बाज़ार में सज गयी। उसकी आभा अन्य मोतियों के लिए ईश्र्या का विशय थी।
वह साइज़ में भी अपेक्षाकृत बड़ी थी। सभी मोतियों के बीच वह अलग ही दिखती थी। अपने
रूप-रंग और आकार के कारण वह अकड़ में रहने लगी। अन्य मोतियों ने उसे जब ‘मिस इंडिया’ की तरह मान लिया, तब
उसे कुछ तसल्ली मिली।
दो दिनों बाद वह एक
प्रसिद्ध जौहरी की दुकान पर पहुंचकर एक कंठहार में बिंधी और फिर एक बड़े अफ़सर की
बीवी के गले की षोभा बनी। फिर क्या था? वह अपने भाग्य पर ‘चैबीस इंटू सेवन’ इतराने लगी। सबकी नज़र में बीवी से
पहले वह चढ़ती। माला में अन्य मोतियां उसके आगे पानी भरती थीं।
उसका इतराना जायज़
था- उसका भाग्य पाठ्यक्रम में सम्मिलित जो हो चुका था।.......मास्टरों सहित लाखों
नौनिहालों की ज़ुबान पर वह चढ़ चुकी थी।........बोर्ड के इम्तिहान में पिछले पांच
सालों से वह अपनी जगह बनाये हुए थी।
समय तो समय है- कब क्या रंग दिखाये? कौन
जानता है?...... विरोधी गुटों के अफ़सरों और नेताओं के
प्रयासों से अफ़सर के घर पर सी.बी.आई का छापा पड़ा। भ्रश्टाचार से अर्जित सम्पत्ति
का आरोप लगा।..... कंठहार भी ज़ब्त हुआ।
मुकदमे का प्रदर्ष बनी मोती रूपी बूंद
आंखों में आंसू लिये उस क्षण को कोस रही थी, जब वह स्वाति नक्षत्र में सीप
के मुख में जा पड़ी थी!.....मन-ही-मन कह रही थी- काष! मैं पुनः बूंद बन पाती,
तो किसी पपीहे की प्यास बुझाती, या फिर किसी
रेगिस्तान में नन्हें पादप को अपना जीवन न्योछावर कर देती!
पर अब क्या हो सकता था?
कयामत
- अम्मी, कयामत कब आयेगी?- दस वर्शीय मोहम्मद ने सवाल दागा।
- बेटा, यह तू क्या पूछ रहा है? ग़रीबी से लड़ती विधवा ने दस
वर्शीय बेटे को छाती से चिपटा लिया।
- अम्मी, कासिम
कह रहा था कि कयामत के रोज़ सभी इन्सान बराबर हो जाते हैं। अमीरी-ग़रीबी का भेद
मिट जाता है। सबको एक जैसी सिवाइयां और गोष्त मिलता है। सबको नये कपड़े मिलते हैं,
अमीरी का सब सामान बिना पैसों के मिलता है!...... कब आयेगी कयामत,
अम्मी? बता न अम्मी!
माँ से कुछ बोलते न
बना। उसकी आंखों में दरिद्रता पिघल आयी। बेटे को कुछ कहना चाह रही थी कि उसका गला
रुंध गया।....
माँ की डबडबायी हुई
आंखों को मोहम्मद देर तक देखता रहा।..... फिर नन्हीं उंगलियों से आंसू पोंछने लगा।
भविश्य-निधि
श्यामाचरण बाबू ने भविष्य-निधि से पचीस हज़ार रुपये निकालने के लिए प्रार्थनापत्र दिया।
अधिकारी ने उसकी जाँच कीl धन की आवश्यकता के काॅलम में उन्होंने ‘स्वरचित पुस्तक का प्रकाशन’ लिख
रखा था।
अधिकारी ने उन्हें
बुलाया और समझाते हुए कहा- ’’इससे पहले भी आप काफी रक़म पी.एफ़् से
निकाल चुक हैं- पुत्री का विवाह, मकान की मरम्मत, लम्बी बीमारी का उपचार आदि। अब इस फ़ालतू काम के लिए?’’
‘‘लेकिन,
सर! कोई प्रकाषक भी तो तैयार नहीं होता।’’
‘‘तो
मत छपवाओ!.......देखो, मैं तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा
हूं। कल तुम्हें पैसों की ज़रूरत पड़ेगी, तब, कौन तुम्हारी मदद करेगा? अपना भविश्य क्यों बरबाद कर
रहे हो?’’
‘‘सर! भविष्य की बेहतरी के लिए ही तो पुस्तक प्रकाषित करवाना चाहता हूँl इसमें मेरे
जीवन-अनुभव का सार है, मेरी साधना है। इसे मैं वर्तमान के
सम्मुख रखना चाहता हूं ताकि उज्ज्वल भविश्य का निर्माण हो सके!....सर!
भविश्य-निधि तो भविश्य के निर्माण के लिए ही तो होती है। यदि साहित्य से ही
भविश्य का निर्माण न होगा, तो किससे होगा?’’
‘‘चलिए,
एक मिनट के लिए आपकी बात को सच मान लेते हैं, परन्तु
ष्याम बाबू! भविश्य-निधि से प्रकाषन के लिए धन के आहरण का प्रावधान कहाँ है?......अच्छा, आपने पुस्तक-प्रकाशन की अनुमति ली है?’’
‘‘ली
तो नहीं है सर! लेकिन क्या यह हमारी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से आच्छादित नहीं
है? यह तो हमारे मूल अधिकारों में से एक है!’’
‘‘कुछ
भी हो, पर इसके लिए आपको आहरण की अनुमति नहीं मिलेगी!’’
श्यामाचरण ने कुछ
सोचते हुए प्रार्थना-पत्र वापस ले लिया।.....अगले दिन उन्होंने 'विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ मनाने के लिए’ प्रार्थना-पत्र दिया।
अधिकारी ने
मुस्कुराते हुए उसे स्वीकृत कर दिया।
निस्पन्दन
- प्रिसिंपल साहब ने
बुलाया है।- क्लासरूम में चपरासी ने कहा।
- ठीक है, क्लास रूम के बाद आता हूं। षिक्षक ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
प्रिसिंपल साहब ने उसे
खुला लिफाफा पकड़ा दिया। अन्दर से झांकता हुआ मैनेजर के हस्ताक्षर वाला पत्र
निकला- इन कंटम्प्लेषन आॅव दि डिपार्टमेंटल इन्क्वायरी, यू
आर हेअरबाइ सस्पेंडेड ड्यू टु सस्पेक्टेड इन्वाल्वमेंट इन इलिसिट ट्ैफि़क आॅव
नारकोटिक ड्ग्स.......!
कल की घटना उसके सामने
किसी फि़ल्म के ‘प्ले-बैक’ की तरह घूम
गयी- उसने विक्की को इतना तेज़ तमाचा मारा था कि उसका हाथ भी झन्ना उठा था। क्या
करता? ग़ुस्सा आ गया था- एक तो पढ़ता नहीं, उपर से माहौल बिगाड़ रहा है। ड्ग्स सप्लायर्स के साथ घूमता है। वह भी
कालेज कम्पाउंड में। उपर से अकड़- तुझे क्या? मेरी जि़न्दगी
है, जैसे चाहे जियूं!.......फिर तेरी औक़ात क्या है? तू तो हमारा नौकर है, नौकर! नौकर की तरह रह समझा!
मैंने तो पहले ही
समझाया था।- प्रिंसिपल साहब के चेहरे पर वही सन्तोश था जो किसी ज्योतिशी के चेहरे
पर उसकी भविश्यवाणी सच हो जाने पर हुआ करता है। बोले- मैनेजर साहब से मिल लो,
षायद कुछ हल निकले। वह
चुप रहा। कोई उत्तर न सूझा। जानता था कि मैनेजर से मिलने का मतलब है- विक्की से
माफ़ी मांगना। विक्की- यानी कुंवर विक्रम बहादुर सिंह, मैनेजर
साहब का इकलौता बिगड़ा हुआ बेटा।
प्रिंसिपल साहब ने फिर
कहा- मैं तो तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूं।......सस्पेंषन वापस न हुआ तो
कितनी मुष्किल में पड़ जाओगे? सोच लो भई!
वह कुछ न बोला।
पिं्रसिपल की कुर्सी के पीछे की दीवार पर कपड़े पर छपी हस्तषिल्प की एक पेंटिंग
लगी थी। वह उसमें उलझ गया।
पेंटिंग के बीचोबीच एक
लोकनर्तकी थी और उसके दोनों ओर लगभग दौड़ते हुए सिर झुकाये हाथी और उसके आगे उसी
की ओर गर्दन उठाये नृत्य की मुद्रा में मोर! बीच में फूल-पत्तियों से सजा कलश और
उसके उपर चित्रित लगभग गोलाकार स्वस्तिक! देर तक वह पेंटिंग में उलझा रहा...... कलश
और स्वस्तिक के लिए तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, वे तो
घूम-फिर वही रहते हैं, जहां उन्हें सुविधा होती है, लेकिन हाथी बायें से दाये क्यों हो गये? क्या वे
स्वयं अपना स्थान बदलना चाहते थे? या उन्हें बलात् हटा दिया
गया? मोर तो मोर हैं, वे कहीं भी
प्रसन्नचित्त नाच सकते हैं- बस, जंगल या उस जैसा वातावरण
चाहिए उन्हें!
षाम को सात बजे के
क़रीब जब वह घर पहुंचा, तो पता चला कि पुलिस एक बार आकर लौट
चुकी है। हो सकता है, नौ बजे तक फिर आये! घरवालों के तरह-तरह
के सवाल उसमें आतंक भर रहे थे।......उस समय उसे अपना अस्तित्व उस पटरे जैसा लगा
जिसके एक ओर विक्की बैठा है और दूसरी ओर बीवी-बच्चों सहित वह! व्यवस्था की कील पर
दोनों ‘सी-सा’ का खेल खेल रहे हैं,
परन्तु विक्की की साइड उपर उठने का नाम नहीं ले रही- वह सपरिवार उपर
टंगा हुआ है।
इससे पहले पुलिस फिर
आये, वह डी.आइ.ओ.एस. से मिलने के लिए निकल पड़ा।..... रास्ते
में सोच रहा था कि यदि उनसे काम न बना, तो एस.पी.साहब से भी
मिलेगा!
टाफियाँ
- राजेन्द्र वर्मा
रामदीन नाई
ने कुर्ते की ज़ेब से बड़े ठाठ से टाफि़यां निकालीं, पर उसका
पांच वर्षीय छोटू उन्हें लेने के लिए नहीं दौड़ा। इससे पहले वह जब भी टाफियाँ देखता,
सारा खेलकूद छोड दौड़ता था।
रामदीन को ताज्जुब हुआ।
पत्नी से छोटू की तबीयत के बारे में पूछा। पत्नी ने बताया कि सब ठीक-ठाक है,
बल्कि अभी तो दोनों भाई ख़ूब बातें कर रहे थे।.....कुछ टाफियों के
बारे में बात कर रहे थे.
देर तक दिमाग़ी कसरत
करने के बाद वह इस नतीजे़ पर पहुंचा कि संभव है कि बड़े बेटे ने छोटू को बताया हो-
‘ये टाफि़यां गांव के प्रधान के शव पर लुटायी हुई टाफि़यां
हैं- कई तो शव पर से उठायी हुई हैं।...उसने यह भी समझाया होगा कि जि़न्दगी भर जिस
प्रधान ने हमें टाफि़या खाने को दी नहीं, अब मरकर हमें अपने शव
पर न्यौछावर की हुई टाफि़यां खिलवा रहा है।.....मरकर भी सामन्ती कर रहा है ससुरा!’
रात को खा-पीकर जब रामदीन बिस्तर पर लेटा,
तो उसने तय किया कि आज से किसी शव पर लुटायी गयी टाफियों को हाथ भी
न लगायेगा!
फेसबुक
११-५-१५
थ्संच.1
आज की भागमभाग
दिनचर्या में लघु रचना के पाठ का महत्व किसी से छिपा नहीं है। इस दृश्टि से कहानी
की अपेक्षा लघुकथा अधिक लोकप्रिय है। यही कारण है कि आज लघुकथा न केवल हिन्दी में, बल्कि
अनेक भारतीय भाशाओं में प्रचुरता के साथ लिखी जा रही हैं, उसके
अनुवाद भी हिन्दी में प्रकाषित हो रहे हैं।
षिल्प की दृश्टि से
लघुकथा कहानी से पृथक होती है। यद्यपि उसमें कथातत्व होता है, तथापि उसका ढांचा कहानी से भिन्न होता है। संरचना की दृश्टि से यह कहानी
से अधिक कसी हुई होती है, क्योंकि इसमें पात्रों एवं परिवेश को
विस्तार से रखने की छूट नहीं होती। रचना-समापन के स्तर पर इसमें संप्रेशण-कला का
विषेश महत्व है। पाठक लघुकथा पढ़कर कभी
अवाक् रह जाता है, तो कभी दिषा-निर्देषित होता है।
एक-दो पृश्ठों में सुगठित लघुकथा अत्यल्प समय में कहानी जैसा आनन्द देती है।
लेखक का यह दूसरा संग्रह है। इसमें उनकी 50
लघुकथाएं संगृहीत हैं। इन लघुकथाओं में सामाजिक, धार्मिक और
राजनैतिक पाखण्ड से सनी विसंगतियों पर तीखा प्रहार है जो पाठक को तिलमिला देता है।
वह यथास्थिति से उबरने का मन-ही-मन संकल्प करने को विवश होता है। सार्थक लेखन की
यही पहचान है।....कुछ रचनाएं बहुत-ही छोटी हैं, पर तासीर में
वे किसी दो-पृश्ठीय रचना से कम नहीं! षिल्पगत वैषिश्ट्य की धनी इन लघुकथाओं में
दिषाबोधक अभिव्यक्ति उनका अतिरिक्त आकर्शण है।
थ्संच.2
राजेन्द्र वर्मा
जन्म:
मार्च 1955, बाराबंकी-
उ.प्र.
प्रकाषनः
लघुकथा, व्यंग्य,
निबन्ध, आलोचना, प्रेरक
साहित्य, गीत, ग़ज़ल, दोहे, तथा हाइकु विधाओं में एक दर्जन से अधिक
पुस्तकें प्रकाषित।
पुरस्कार/सम्मानः
उ.प्र. हिन्दी
संस्थान के नामित पुरस्कारों सहित देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
मूल्यांकनः
लखनउ विष्वविद्यालय
द्वारा रचनाकार की साहित्य साधना पर एम-फिल्. सम्पन्न। कई विष्वविद्यालयों के
षोधग्रन्थों में सन्दर्भित। कुछ लघुकथाओं और ग़ज़लों का पंजाबी मेंअनुवाद।
सम्पर्कः
3/29
विकास नगर, लखनउ 226 022
मो. 80096 60096
म.उंपसरू
तंरमदकतंचअमतउं/हउंपसण्बवउ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें