राजेन्द्र वर्मा के गीत-नवगीत
काग़ज़ की नाव
बाढ़ अभावों की आयी है
डूबी गली-गली,
दम साधे हम देख रहे
काग़ज़ की नाव चली।
माँझी के हाथों में है
पतवार आँकड़ों की
है मस्तूल उधर ही
इंगिति जिधर धाकड़ों की
लंगर जैसे जमे हुए हैं
नामी बाहुबली।
आँखों में उमड़े-घुमड़े हैं
चिन्ता के बादल
कोरों पर सागर लहराया
भीगा है आँचल
अपनेपन का दंश झेलती
क़िस्मत करमजली।
असमंजस में पड़े हुए हम
जीवित शव जैसे
मत्स्य-न्याय के चलते
साँसें चलें भला कैसे?
नौकायन करने वालों की
है अदला-बदली।
कौन सुने
कौआरोर मची पंचों में
सच की कौन सुने?
लाठी की ताक़त को
बापू समझ नहीं पाये
गये गवाही देने
वापस कंधों पर आये
दुश्मन जीवित देख दुश्मनी
फुला रही नथुने।
बेटे को ख़तरा था,
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली
अम्मा दौड़ीं बहुत,
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली
कुलदीपक बुझ गया
न्याय की देवी शीश धुने।
सत्य-अहिंसा के प्राणों को
पड़े हुए लाले
झूठ और हिंसा सत्ता के
गलबहियां डाले
सत्तासीन गोडसे हैं
गांधी को कौन गुने?
निर्विकार बैठे
नये-नये राजे-महराजे
घूम रहे ऐंठे।
लोकतन्त्र के अभिजन हैं ये
देवों से भी पावन हैं ये
सेवक कहलाते-कहलाते
स्वामी बन बैठे।
लाज-शरम पी गये घोलकर
आत्मा बेची तोल-तोलकर
लाख-करोड़ नहीं कुछ इनको,
अरबों में पैठे।
नयी सदी के नायक हैं ये
छद्मराग के गायक हैं ये
लोक जले तो जले, किन्तु ये
निर्विकार बैठे।
सत्यनरायन
तेरी कथा हमेशा से सुनते आये
हैं,
सत्यनरायन! तू भी तो सुन कथा
हमारी।
सत्य बोलने पर पाबन्दी लगी
हुई है
किन्तु झूठ के रँग में
दुनिया रँगी हुई है
रिश्ते हुए परास्त, स्वार्थ ने बाज़ी मारी।
बस्ती-बस्ती जंगल में ज्यों
बदल गयी है
शान्त समीरण की तबियत भी मचल
गयी है
पूजनीय हो गये क्रूरता के
व्यापारी।
है वसन्त, लेकिन सूनी है डाली-डाली
ज्वलनशील तासीर हो गयी
चन्दनवाली
मावस तो मावस, पूनम भी हम पर भारी।
समय कुभाग लिये आगे-आगे चलता
है
सपनों में भी अब तो केवल डर
पलता है
घायल पंखों से उड़ने की है
लाचारी।।
जिजीविषा पगली
कब तक जियें जि़न्दगी जैसे
दूब दबी-कुचली।
जिसे देखिए, वही रौंदकर
हमको चला गया;
अपशब्दों की चिंगारी से
मन को जला गया;
छोटे-बड़े, सभी ने मिल
छाती पर मूंग दली।
लानों में बिछ इज़्ज़त खोयी
जो थी बची-खुची
जीने को तो मिली जि़न्दगी,
पर संकुची-संकुची
शीश उठाया, तो माली ने
की हालत पतली।
क्यारी का हर फूल हमारी
हालत पर हँसता
कली-कली पर नज़र गड़ाये
बैठा गुलदस्ता
मान और सम्मान न जाने
जिजीविषा पगली।।
मीना
जाने कब घर-बार बसेगा
पच्चिस पार हो गयी मीना।
सुबह-शाम मिलता है उसको
चार घरों का झाड़ू-पोंछा
दिन भर करघे में खटके, तो
बुन पाये बस एक अंगोछा
सुस्ताने बैठे तो सोचेः
कब छूटे अब्बू का पीना!
छोटा भाई अक्सर मांगे
ड्रेस-बस्ता, किरमिच का जूता
लेकिन अब्बू डांट लगातेः
नहीं पढ़ाने का है बूता
जब दिन-भर कूड़ा बीनोगे
तब सीखोगे जिनगी जीना।
टी.बी. पाले अब्बू सोचें
बिटिया कैसे पार लगाऊँ
भाई भी हसरत पाले है
बहना की डोली सजवाऊँ
किन्तु ग़रीबी ने घर-भर का
फ़कत एक सपना भी छीना।।
प्रेमबन्ध टूटा
प्रेमबन्ध टूटा
लेकिन,
अधरों पर
मृदुल तराने हैं।
शब्दों ने ठग लिया
अर्थ को,
भावपूर्ण संप्रेषण
है
छल-प्रपंच को मिली
सफलता,
अभिनय का
प्रक्षेपण है
कल तक थे जो
आत्मरूप, वे आज
बने अनजाने हैं।
करतल ध्वनियाँ
रह-रह उठतीं,
ऐसा मिला समर्थन
है
समय पड़े तो प्राण
निछावर
करने का आश्वासन
है
घड़ी परीक्षा की
आयी
तो कितने
नये बहाने हैं!
हाथ मिलाती छद्म
दोस्ती,
हृदय-हृदय में
दूरी है
प्रेमपात्र में
वैमनस्य है,
पीने की मजबूरी है
अपनेपन का
स्वांग रचाने वाले
बड़े सयाने हैं।।
जीवन
हुआ कठिन
जीवन हुआ कठिन
दिन-पर-दिन।
मोह का पाश है कसा हुआ
स्वर्ण-पींजरे में बन्द सुआ
दाना-पानी भी रुचिर, किन्तु
समय न कटता
मन मारे बिन।
अपनापन दिखलाने की होड़
रिश्ते-नातों की तोड़-मरोड़
अभिनय की बेदी पर कुटुम्ब
स्वार्थों की समिधाएँ
पल-छिन।
खाट लगा जाता अशक्त तन
किन्तु हो रहा आकाशी मन
भावुकता के हाथों परास्त
रह-रह डसती
स्मृति की नागिन।
फटेहाल जि़न्दगी
नौ बजने को आये
साढ़े नौ की है
ड्यूटी।
आठ-दस मिनट
बस अड्डे तक लग ही
जायेंगे
लगी हुई बस मिली
अगर तो ड्यूटी
पायेंगे
छूट गयी बस कहीं
अगर
तो ड्यूटी भी
छूटी।
पांच मिनट की देर
क्या हुई, इंट्री बन्द हुई
गेटमैन के कानों
में
नियमों की ठुसी
रुई
रोज-रोज़ सच्चाई
भी
लगती जैसे झूठी।
ऑटो से जायें तो
समझो
‘सौ’ की चोट हुई
दो दिन की
सब्ज़ी-भाजी
आँखों से ओट हुई
फटेहाल जि़न्दगी
टँगी
मजबूरी की खूँटी।।
मुँह
फेरे बैठे
मुँह
फेरे बैठे हैं देखो,
कब
से हवा और ये बादल!
धूल-धूसरित
धरती मैया
प्यासे
बैल, भैंस औ’ गैया
कुएँ
दिखाने बेड़ लगे हैं
कब
की पपड़ा चुकी तलैया
बीत
असाढ़ गया है आधा
अब
तो बस, नयनों में है जल!
छाँव
नीम की मरी-मरी है
नागफनी
ही एक हरी है
आकुल-व्याकुल
बेड़ धान की
ज़हरीली
हो गयी चरी है
माड़ा-चढ़ी
आँख को लगता-
छाये
बदरा, बरसेगा कल!
आये
देव मनाने, आये
भू
पर लोट लगाने आये
“पानी
दे, गुड़धानी दे” कह
सोया
इन्द्र जगाने आये,
पर,
धरती प्यासी-की-प्यासी
अड़े
हुए हैं मेघों के दल!
आसार नहीं
धरती! धीरज धार, अभी तो
बारिस के आसार
नहीं हैं।
अभी-अभी आषाढ़ लगा
है
और तुझे परिवाद हो
रहा
पावस का आगमन कहाँ
हो?
इस पर वाद-विवाद
हो रहा
दान-दक्षिणा पाने
वाले
पानी के हक़दार
नहीं हैं।
बादल तो बादल, उनका क्या!
वे तो बस हाँके
जाते हैं
कहाँ-कहाँ बारिस
होनी है
पवन देवता बतलाते
हैं
देवलोक के सभी
निवासी
करुणा के आगार
नहीं हैं।
क्षीरसिन्धु के
रहने वाले
प्यास भला कैसे
पहचानें?
राजस धर्म निभाने
वाले
सात्विक धर्म भला
क्या जानें?
धरती! तू कर्तव्य
निभा बस,
तेरे कुछ अधिकार
नहीं हैं।।
बारिस का ढंग
बारिस का भी
अजब ढंग है।
मरुथल बूँद-बूँद
को तरसे
बादल सागर में ही
बरसे
धरा गगन को है
निहारती
जीवन का
उड़ रहा रंग है।
कहीं जलद ही नहीं
दिखा है
कहीं बाढ़ की
विभीषिका है
जाने कैसे दिन आये
हैं
दिनचर्या भी
हुई तंग है।
कोई समझाओ ‘इन्दर’
को
सूरज, पवन और सागर को
क्या थोड़ा-सा सुख
न मिलेगा?
क्या दुख ही का
साथ-संग है?
हिम की वर्षा
हिम की वर्षा हुई,
धरा का मुख
कुम्हलाया।
सूर्य स्वयं मेघों
का कम्बल ओढ़ पड़ा है
ठंड खा गया दिन
घुटनों को मोड़ पड़ा है
राख लपेटे आग धरे
सन्यासिनि काया।
ओले गिरे कि
पोर-पोर घायल सरसों का
अरहर भी घायल खाकर
झोंके-पर-झोंका
खेत हुआ गेहूँ
गन्ने का
मन भर आया।
समय निर्दयी
रात-दिवस में भेद न माने
साँय-साँय कर पवन
सभी को लगा डराने
टिप-टिप-टिप-टिप
बारिस ने
कीचड़ फैलाया।।
बयान
फिर
बयान:
हम तुम्हारे साथ.
साथ
उनका चाहते
हरगिज़
नहीं हम,
किन्तु
वे सिर पर खड़े
साधे
हुए दम,
ताज का सपना
हुआ साकार ही था,
काट कर वे कर हमारे
दे रहे हैं
फिर बयान:
हम तुम्हारे हाथ.
हर
मुसीबत में
वही
बस, एक ईश्वर,
किन्तु
वह असहाय
निस्पृह
देखता भर,
पीढियां बदलीं,
निराश्रित आज भी हम,
मीडिया को साधकर वे
दे रहे हैं
फिर बयान:
हम तुम्हारे नाथ.
राजा
बहरा
राजा
बहरा, मंत्री बहरा,
बहरा
थानेदार!
कलियुग
ने भी मानी जैसे,
वर्तमान
से हार!
चार
दिनों से रामदीन की बिटिया गायब है
थानेदार
जानता, लेकिन सिले हुए लब है
उड़ती
हुई खबर है, लेकिन फैलाना मत यार!
घटना
में शामिल है, ख़ुद ही
मंत्रीजी
की कार!
कॉलेज
के चपरासी को भी कुछ-कुछ मालुम है
लेकिन
घटना-वाले दिन से गुमसुम-गुमसुम है
टी.वी.वालों
ने भी अब तक शुरु न की तकरार!
सोमवार
से आज हो गया
है
देखो, इतवार!
प्रथम
सूचना दर्ज़ कराने में छक्के छूटे
किन्तु
नामज़द रपट कराने में हिम्मत टूटे
थाने–का-थाना
ही बैठा जैसे खाये ख़ार!
बेटी
के चरित्र पर उंगली
रक्खे
बारम्बार!
राजा
को है ज्ञात कि मंत्रिसुत है आरोपी
कड़े
क़दम लेकिन उछाल देंगे उसकी टोपी
इसीलिए
तो आनन-फानन बदल दिये फ़नकार!
और
बयान, कि अपराधी का
घर
है कारागार!
बँसवट
है वंशीधर
छप्पर-छानी
साखी
चहक
उठा मन-पाखी
चौक
पुरी देहरी से
निकल
गयी फांस!
बँसवट है वंशीधर,
बजा रहा
जीवन की बाँसुरी!
बहु
हुई लरिकौरी,
बाजी
बाध-बधाई,
सूप
माँगने आयी है
नाइन
पुरवाई,
पाख
अँधेरा लेकिन
लगता, निकला है दिन
भादों
ही में जैसे
फूल
उठा काँस!
बँसवट है रूपंकर,
सजा रहा
जीवन की पाँखुरी!
ब्याह
का मंडप सजा
ढोल
दरवाजे बजा
एक
दिन को ही सही,
स्वार्थ
को सबने तजा
श्वास-श्वास
स्नेह-गंध
चिर
अटूट स्नेह-बंध
अब
क्योंकर चिंता हो?
एक
हुई साँस!
बँसवट तो है हृदवर,
बाँट रहा
जीवन की माधुरी!
महक
रही बेला
गमले
में महक रही बेला!
छज्जे
पर गमले सजे हुए
उनमें
कैक्टस ही उगे हुए,
पर,
एक दिवस मालिन आयी
अपने
सँग इक पौधा लायी
फिर
गमला एक हुआ ख़ाली,
अब
उसमें चहक रही बेला!
देवी
का मेला सजा हुआ
लहडू
पर पुरवा लदा हुआ,
है
गाँव नम्बरी मोटर पर
है
पास मांगता ‘पी-पी’ कर,
देवी
के थान पहुँच आयी
माला
में लहक रही बेला!
कितने
दिन पर प्रियतम आये
कितनी
बातें वे सँग लाये
मन
में है, वह कुछ मान करे
पर,
कैसे कोई धीर धरे?
देवी
से वह आशीष मिला,
जूड़े
में बहक रही बेला!
विलग साये
बँट गयी दुनिया मगर,
हम कुछ न कर पाये!
घर बँटा दीवार खिंचकर
बँट गये खपरैल-छप्पर
मेड़ छाती ठोंक निकली
बाग में, खेतों के भीतर
हम किसी भी एक के
हिस्से नहीं आये!
कुछ इधर हैं, कुछ उधर हैं
आत्म से भी बेखबर हैं
बात कैसी भी कहें हम
छिड़ रहा जैसे समर है
बह गयी कैसी हवा-
ख़ुद से विलग साये!
बात का बनता बतंगड़
मौन ही रोके है गड़बड़
ओंठ हिलने को हुए, बस-
तानता है वक़्त थप्पड़
मौन मन कब तक भला
एकांत दुलराये?
प्रगति
मयूरा
सरसठ
बरस हो गये लेकिन,
सपना हुआ न पूरा!
सोचा
था कि एक दिन
दीन-हीन
भी मुस्कायेगा
जब
अपनों का शासन होगा,
कोई
लूट नहीं पायेगा
लेकिन
अघट घटा कुछ ऐसा,
सपना अभी अधूरा!
युद्ध
छिड़ा जूठन की ख़ातिर,
छप्पन
भोग सड़ा जाता है
दमकी-दमकी
हुई ‘इंडिया’,
‘भारत’
तो पिछड़ा जाता है!
दौड़-दौड़
कर महानगर में
नाचे प्रगति-मयूरा!.
बादल
सिन्धु-समाये जाते,
धरती
की झोली ख़ाली है
रंग
उड़ रहा है होली का,
फीकी-फीकी
दीवाली है
क्या
असाढ़, क्या सावन-भादों,
छूछा बादल भूरा!
मायाजाल
ऐसा मायाजाल बिछा है,
कोई निकले भी तो कैसे?
शीर्षासन भी कर सकते हैं,
‘व्यास’ नहीं वे ऐसे-वैसे!
सुबह-सुबह उनको ही पढना
जो पढने के योग्य नहीं हैं
जिनसे थोड़ी सीख मिल सके,
वे ख़बरों से दूर कहीं हैं
राजनीति, अपराध, आर्थिकी,
फ़िल्मी दुनिया की चर्चाएँ
चारों वेद नये रूपों में
धरती पर उतरे हों जैसे.
धन-बल का कौशल तो देखो,
संपादक की क़लम अड़ी है
ख़बरों में बैठा विज्ञापन,
विज्ञापन में ख़बर बड़ी है
चाहे जो घटना घट जाये,
अग्रलेख का पता नहीं है
पत्रकारिता में घुस आये
संपादक भी कैसे-कैसे!
भैया
जी
पाँव फिराने
गाँव पधारे भैया जी
पूछ रहे हैं होरी से
सब ठीकै-ठाक?’
बहुत दिनों के बाद दिखायी
आज दिये
साल हो रहा, विधायकी का
नशा पिये
भैया जी के घरवाले भी आये
हैं
नयी फौज के साथ असलहे नये
लिये
सबको बतलाने
आये हैं भैया जी-
दिल्ली भी जा पहुँचे
और जमा दी धाक!
‘परधानी’ में भैया के
‘बप्पा’ ठाड़े
और दूसरी ओर खड़े ‘फ़ौजी
पाड़े’
एक समर्थक नहीं जुट रहा
फ़ौजी का, भैया जी के
घर वाले डांड़ा गाड़े
कर जोरे भैया जी
धूल उड़ाय रहे
चमचे करें अपील,
बचानी- अबकी नाक!
जनतंत्र
जन-जन का है,
जन के हेतु,
जनों के द्वारा,
पर, निरुपाय हुआ जाता
जनतंत्र हमारा!
बड़े जतन से
बाहुबली से सत्ता पायी
बड़े जतन से
नयी-नयी योजना बनायी
किन्तु प्रगति-सरिता
गाँवों तक अभी न पहुँची
नये बाहुबलियों की
देखो, फिर बन आयी
दुर्बल के हित लड़ा,
किन्तु सबलों से हारा,
कहने को ही रहा सबल
जनतंत्र हमारा!
विधायिका ने
भ्रष्टाचारी फ़सल उगायी,
कार्यपालिका की
बैठे-बैठे बन आयी
न्यायपालिका का
होना भी क्या होना है?
चतुर मीडिया ने
सत्ता की स्तुति ही गायी
ऐसे में क्यों अपराधी को
होगी कारा?
अच्छे दिन को जोह रहा
जनतंत्र हमारा!
धरती की करवट
धरती
ने करवट क्या बदली,
मिल मिट्टी में सब
अहम गया!
कुछ
ऊँची-ऊँची इमारतें
अम्बर
से बातें करती थीं,
झुग्गी-झोपड़ियाँ
देख-देख
कनखियाँ
मारकर हँसती थीं,
जब धरा तनिक हो उठी विकल,
तो आसमान भी
सहम गया।
अधरों
पर ‘माता-माता’ था,
कब
धरती को माता माना?
इतना
दोहन! इतना दोहन!!
कब
माँ की पीड़ा को जाना?
था वक़्त अगर जो मुट्ठी में,
क्यों आख़िर हो
बेरहम गया?
निर्मिति
में सदियाँ लगती हैं,
विध्वंस
एक पल में होता;
जिसको
बस, हँसना ही आता,
वह
भी तो एक दिवस रोता;
मैंने धरती से प्यार किया,
मिट मेरा
सारा वहम गया।
अपना
जीवन, अपना कंधा
जग
का अपना गोरखधन्धा
अपना
जीवन, अपना कन्धा!
मैं
जगती में आया ऐसे
एक
अतिथि अनचाहा जैसे
कैसे
आँसू पीना सीखा
कैसे
मैंने जीना सीखा
क्या
समझेगा युग यह अन्धा!
पैदा
होते खायी ठोकर
बड़ा
हुआ, पर अपने दम पर
दुनियादारी
को झेला है
कहाँ-कहाँ
ख़ुद को ठेला है
चमकाया
कितनों का धन्धा!
जगत
कहे, मैं रहा ‘अनलकी’
किन्तु
किसे परवाह जगत की?
खाकर
भूख, प्यास पीता हूँ,
पर
मस्ती में जीता हूँ,
मन
लहरे- ताक धिना-धिन्-धा!
रंग-बिरंगी
दिल्ली रंग-बिरंगी, यारो!
दिल्ली रंग-बिरंगी।
इधर पड़े रोटी के लाले
उधर जाम छलकाने वाले
इतना चले न्याय की ख़ातिर
पड़े हुए पैरों में छाले
लालच ने हाकि़म को मारा
चलता चाल दुरंगी।
जिसकी लाठी, भैंस उसी की
जय हो जगदम्बा कुर्सी की
फिर बन्दर के हाथ तराज़ू
घड़ी आ गयी हँसी-ख़ुशी की
अंधी बिल्ली ने देखा है
फिर सपना सतरंगी।
चोर-चोर मौसेरे भाई
लोकतंत्र ने मुँह की खाई
मगरमच्छ की आँखें नम हैं
घोंघे को आयी जमुहाई
बगुले की चालों के आगे
पानी भरे फिरंगी।।
क्षिप्र मानचित्र
क्या से क्या चरित्र हो गया,
आदमी विचित्र हो गया!
पुण्यता अधर में रह रही
नित नवीन चोट सह रही
स्नान कर प्रभुत्व-गंग में
पातकी पवित्र हो गया।
मित्रता में विष मिला दिया
शत्रुता को मधु पिला दिया
स्वार्थ-पूर्ति का हुआ चलन
शत्रु ही सुमित्र हो गया।
द्रव्य के समीकरण बने
नय झुका अनय के सामने
वीरता के सूर्य को ग्रहन
क्षिप्र मानचित्र हो गया।।
दीवाली आयी
अंधियारे अवकाश पर गये,
लो, दीवाली आयी।
महँगाई के मारे दीपक
पड़े हुए हैं सूने
धन्ना सेठों की पौ बारह,
दाम हो गये दूने
साहब के घर हँसे मिठाई
मेवों की ज़ायी।
चाइनीज झालर यूँ चमकी,
बुझी कुम्हार की अक्किल
पकवानों की छोड़ो, उसको
रोटी की भी मुश्किल
कनफोड़ू बम और पटाखों-
ने अन्धेर मचायी।
भ्रष्ट आचरण अपनाने की
मची हुई है हड़बड़
विघ्न खोजकर हारे गणपति,
मिली न कुछ भी गड़बड़
हम तो पूजा-पाठ में रहे,
लक्ष्मी हुई परायी।।
आज नहीं तो कल
समय बदलता है,
बदलेगा आज नहीं तो कल,
क्षमा और करुणा के सम्मुख
हारेगा ही छल!
माना अँधियारा जगता है
अपनों से भी डर लगता है
लेकिन तनिक सोच तो रे मन!
डूबा सूरज फिर उगता है
गहन निराशा में भी पलता
आशा का संबल।
सागर का विशाल तन-मन है
किन्तु नदी का अपना प्रण है
जीव-जन्तु को जीवन देकर
पूरा करती महामिलन है
आओ, चार दिवस ही जी लें,
ज्यों सरिता का जल।
कोई छोटा-बड़ा नहीं है
लेकिन मन में गाँठ कहीं है
बड़ा वही जो छोटा बनता
जहाँ समर्पण, प्रेम वहीं है
प्रेम-भाव से मिल बैठेंगे,
निकलेगा कुछ
हल।।
००
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