सोमवार, 3 जुलाई 2017

राजेन्द्र वर्मा की ग़ज़लें

एक

अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है,
ग़रीबी मुस्कुराकर मेरे बर्तन माँज जाती है।

भले ही सूर्य बन्दी हो गया अट्टालिकाओं में,
अँधेरो! किन्तु मेरे घर अभी भी दीप-बाती है।

अतिथि-सत्कार करने में मेरी हालत हुई पतली,
पर उसके मुख पे रत्ती-भर नहीं संतुष्टि आती है।

चला है जब से मोबाइल, फ़क़त बातें-ही-बातें हैं,
न आना है, न जाना है; न चिट्ठी है, न पाती है।

विपर्यय ने मेरे घर का किया है अधिग्रहण ऐसे,
विभा आती है लेकिन, उल्टे-पैरों लौट जाती है।

दुखों से दाँत-काटी दोस्ती जब से हुई मेरी,
कि सुख आये न आये, जि़न्दगी उत्सव मनाती है।


 (विधाता छंद- फ़ऊलुन-फाइलुन-फेलुन, फ़ऊलुन-फाइलुन-फेलुन,
                           अथवा,
            मुफाईलुन, मुफाईलुन, मुफाईलुन, मुफाईलुन)

30-3-16
दो

कभी लोरी, कभी कजली, कभी निर्गुन सुनाती है,
कभी एकान्त में होती है माँ तो गुनगुनाती है।

भले ही ख़ूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है।

कोई सीखे, तो सीखे माँ से बच्चा पालने का गुर,
कभी नखरे उठाती है, कभी चाँटा लगाती है।

ये माँ ही है जो रह जाती है बस दो टूक रोटी पर,
मगर बच्चों को अपने पेट-भर रोटी खिलाती है।
 
रहे जब से नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी,
सभी की आँख से बचकर वो चुप आँसू बहाती है।


 (विधाता)



तीन

प्रेम में उन्मुक्तता के प्रति समर्पित हो गये,
काल के नद पुष्प-जैसे हम विसर्जित हो गये।

देह-दर्शन में कभी हमको नहीं विश्वास था,
किन्तु क्या कारण, इसी में हम समेकित हो गये।

एक संस्कृति थी कभी, जो विश्व की सिरमौर थी,
आज उस संस्कृति के वाहक ही उपेक्षित हो गये।

छल-कपट-ईर्ष्या-अहम्, मद-मोह से संरुद्ध हम,
एक कल्पित तुष्टि के हाथों पराजित हो गये।

अब समय आया है ऐसा, राम ही रक्षा करें,
वृद्ध माता औपिता से पुत्र वन्दित हो गये।


(गीतिका छंद- फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुन)     
2-4-16
चार

यह हमारी भूल, हम अधरों पे ले आये व्यथा,
अब किसे अवकाश सुन ले, जो सुदामा की कथा।

सिन्धु के तट बैठ मंथन-दृश्य देखा आपने,
पूछिए हमसे, कि हमने किस तरह सागर मथा!

आप कालीदाससे भी दो चरण आगे बढ़े,
वृक्ष ही को काट देंगे, यह कभी सोचा न था।

झूठ का साम्राज्य कैसे और विस्तृत हो सके,
प्राणपण से सुन रहे वे सत्यनारायण-कथा

लाज को भी लाज उनके सामने आने लगी,
उनके घर सदियों से लज्जाहीनता की है प्रथा।


(गीतिका)          



पाँच

जीत ही उन्माद की है,
छद्म के अनुनाद की है।

रोकिये भी शोरगुल को,
यह घड़ी संवाद की है।

ज्वर की औषधि क्या करेगी?
रुग्णता अवसाद की है।

चाहता दिल गुनगुनाना,
मौसिक़ी नौशादकी है।

पूर्व ही निश्चित प्रलय थी,
सृष्टि उसके बाद की है!


(मौसिकी- संगीत)


(मनोरम छंद- फाइलातुन, फाइलातुन)



छः

युग-युगान्तर चल रहा है क्रम यही,
शिव के हिस्से में लिखा विष-पान ही।
 
सूर्य को पल भर नहीं विश्राम है,
भोर-दुपहर-साँझ होती ही रही।

पुष्प के रक्षार्थ ही कण्टक उगा,
पर उपेक्षा ही सदा उसने सही।

चित्र गाँधी का टँगा दीवार पर,
बात गाँधी की भला किसने गही?

भोर तक बातें बहुत होती रहीं,
बात फिर भी रह गयी है अनकही।

दर्पणों से क्या करें परिवाद हम,
क्यों न बदलें हम स्वयं को आज ही?

पृष्ठ तक उसका नहीं खोला गया,
जन्म-भर यद्यपि लिखी हमने बही।


(पीयूषवर्ष छंद- फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुन)




सात

सितारों से घिरा रहता बहुत है,
गगन में चन्द्रमा तनहा बहुत है।
           
अकेले में रहा करता वो गुम-सुम,
सभी के सामने हँसता बहुत है।

भले ही देश में पानी हो महँगा,
मगर लोहू यहाँ सस्ता बहुत है।

सचाई का जो पुतला देखते हो,
छुपाये झूठ वह थोड़ा-बहुत है।

हमारे काम वह आये, न आये,
हमें पहचान ले, इतना बहुत है।

सँभल जाओ, सँभल जाओ, सयानो!
सँभलने का अभी मौक़ा बहुत है।

(सुमेरु- फ़ऊलातुन-फ़ऊलातुन-फ़ऊलुन)




आठ

हम क्षमाप्रार्थी इधर बजरँगबली के सामने,
वे उधर भी सर झुकाये हैं वली के सामने।

यों तो हम झुकते नहीं हैं हर किसी के सामने,
किन्तु नतमस्तक हैं तेरी सादगी के सामने।

बुद्धि समझाती रही, पर मन पिघलता ही रहा 
चंचला के नैनों में तिरती नमी के सामने।

शोक संवादों में घायल हो गयी संवेदना,
शब्द घुट कर रह गये उनकी हँसी के सामने।

देखिए, पृथ्वी पे हहराने लगी भागीरथी,
हार जातीं मुश्किलें भी आदमी के सामने।


(गीतिका)




नौ

न तेरे रहे हैं, न मेरे रहे हैं,
ये अपने ठिकाने बदलते रहे हैं।

ये टाटा, ये बिरला, उन्हीं के रहे हैं,
जो इनकी तिजोरी को भरते रहे हैं।

हमें ख़ार का ख़ौफ़ क्योंकर दिखाता?
अरे! वे हमारे, हम उनके रहे हैं।

ये अच्छा सबक़, भूख से मर गये वे,
जो तेरे लिए ढोल-ताशे रहे हैं।

समुन्दर में बारिस हुई ख़ूब, लेकिन
मेरे खेत प्यासे-के-प्यासे रहे हैं।

हमारा बदन गोलियों से छिदा है,
हमीं उनके हरदम के साये रहे हैं।


(भुजंगप्रयात- फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन)




दस 

हमीं उम्मीद रक्खे आँधियों से,
कि बरतेंगी वे नरमी बस्तियों से।      

उलझ बैठे ही नाहक़ माँझियों से,
हुआ अब दूर साहिल कश्तियों से।

मुई यह भूख बढ़ती जा रही है,
हया ने बैर ठाना पुतलियों से।

बचाएँ किस तरह से अस्मिता को?
रवानी छिन रही है धमनियों से।

गगन को छू भी लेती हैं पतंगें,
सधी रहती हैं जब तक उँगलियों से।


(सुमेरु)



ग्यारह
 
तुझमें क्षिति-आकाश-मारुत-अग्नि-पानी किसलिए?
एक लय में पंचतत्त्वों की रवानी किसलिए?

दुश्मनों के दोस्तों की मेज़बानी किसलिए?
सौंप दी आखि़र उन्हीं को बाग़बानी किसलिए?

साठ वर्षों में भी बिजली मेरे घर पहुँची नहीं,
फिर भी दुल्हन-सी सजी है राजधानी किसलिए?

अब किसे विश्वास सत्याग्रह-अहिंसा पर यहाँ,
पाठ्यक्रम में फिर महात्मा की कहानी किसलिए?

खाने-पीने, मौज-मस्ती में ही बीती जा रही,
किन्तु बेटे! जान भी ले, है जवानी किसलिए?

हर किसी को एक-से यदि नागरिक अधिकार हैं,
लोकतांत्रिक देश में फिर राजा-रानी किसलिए?

धन हमारा है मगर क़ब्ज़ा किये बैठे हैं आप,
फिर हमीं को दान दे, बनते हैं दानी किसलिए?


(गीतिका)




बारह

दोस्तो! अब आइए, कुछ यूँ किया जाये,
बाँट कर अमरित, हलाहल कुछ पिया जाये।

अपनी ख़ातिर आदमी क्या, पशु भी जीता है,
है मज़ा, जब और की ख़ातिर जिया जाये।

घर से दफ्तर और फिर घर, बस यही चर्या,
एक दिन को क्यों न दफ्तर कट किया जाये?

आजकल वह दृष्टि में कुछ इस तरह से है,
हाइकू लिक्खूँ मगर लिख माहिया जाये।

दो दिवस अवकाश के बीते, बुलावा आ गया,
डबडबाये नैन, ड्यूटी पर पिया जाये।

सत्य है, दीपक-तले रहता अँधेरा है,
किन्तु फिर भी दीप ज्योतित कर दिया जाये।

छोडि़ए भी, उन विगत बातों में क्या रक्खा,
आइए, आगत नया जीवन जिया जाये।                          

(हाइकू और महिया- काव्यविधाएं)

(राधा छंद- फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुन, फेलुन)






तेरह

मेरी आँखों में भी साहिल, आप मानें तो सही,
मेरे सीने में भी है दिल, आप मानें तो सही।

मेघदल होकर एकत्रित उसको घेरे हैं अवश्य,
सूर्य भी है कम न काहिल, आप मानें तो सही।

सच है, नौकरियाँ नहीं हैं, पर पढ़ाई तो करें
कुछ-न-कुछ होगा ही हासिल, आप मानें तो सही।

वर्करों से मुँह छुपाते फिर रहे हैं लीडरान,
लीडरी ही खा गयी मिल, आप मानें तो सही।

लखनऊ को छोड़ दिल्ली को ठिकाना कर लिया,
खो गयी दिल्ली में अक्किल, आप मानें तो सही।

साल ही बीता अभी है नौकरी पाये हुए,
ऋण के सब खाते हुए निल, आप मानें तो सही।

गिफ्ट देने और लेने में खिले चेहरे ज़रूर,
है अभी साँसत में करगिल, आप मानें तो सही।
                       
(साहिल= किनारा, निल= शून्य)

(गीतिका)




चौदह

मुस्कुराते वे तो अपने घर गये,
मेरे घर साही का काँटा धर गये।

रिक्त मन का कोना-कोना कर गये,
किन्तु नयनों में तरलता भर गये।

कामना देवत्व की उनको हुई,
त्याग मानुष-देह बन पत्थर गये।

पूछिए मत, कैसे मंत्री-पद मिला?
वर्ष भर में कुल सहित वे तर गये।

रेड़ थे कुछ बरगदों के रूप में,
आँधियों के आचरण से डर गये।

यह बहुत सन्तोषदायक बात है,
बाँकुरे भी बाप-दादों पर गये।

जब कभी विश्वास अपनों पर किया,
क्या बतायें, हम छले अक्सर गये! 


(पीयूषवर्ष)



पन्द्रह

हिन्दु-मुस्लिम-सिख-इसाई, सब सयाने हो गये
देखते-ही-देखते हम चारख़ाने हो गये।

आज संडे, अनमना मन और मौसम भी अजब,
घर में रहने के नये कितने बहाने हो गये!

आँख के तारों पे जब सर्वस्व न्यौछावर किया,
हम स्वयं अपने-ही घर में ज्यों अजाने हो गये। 

स्वप्न में भी स्वार्थ-लोलुपता न हमसे सध सकी,
व्यर्थ का पर्यायवाची, अपने माने हो गये।

जब से अपनी भी बखारी भर गयी है कंठ-भर,
जेठ के तपते हुए दिन भी सुहाने हो गये।
                        

 (गीतिका)



सोलह

दुःख को अपना बनाया कीजिए,
स्वस्ति की स्मिति को सजाया कीजिए।

व्यर्थ ही हँसकर हँसाया कीजिए,
फ़िक्र को ऐसे छकाया कीजिए।

यदि सँभल जाये कोई तो क्यों गिरे?
गिरने वाले को उठाया कीजिए।

ताकि सच का रास्ता आसान हो,
झूठ का पर्दा हटाया कीजिए।

आँसुओं का कौन है ग्राहक यहाँ,
उनको घर पर ही बिठाया कीजिए।

हो न जाएँ आँख की वे किरकिरी,
स्वप्न पलकों पर सजाया कीजिए।

सत्य से निखरा सदा व्यक्तित्व है,
झूठ से ख़ुद को बचाया कीजिए।


 (पीयूषवर्ष)



सत्रह

नाव नाविकविहीन थी अपनी,
पार झंझा से हो गयी अपनी।

दोष अपने मैं शेष करता हूँ
आईने से है दोस्ती अपनी।

वे तो नख-शिख हैं संगमरमर के,
व्यर्थ जाती है बन्दगी अपनी।

उनके चेहरे का रंग है उतरा,
रंग लायी खरी-खरी अपनी।

प्रश्न रोटी का हल न हो पाया,
कहते-सुनते ही कट गयी अपनी।

क्षीण हो जाए, पर मिटेगी नहीं
संस्कृति यह मिली-जुली अपनी।


(खफीफ़  - फाइलातुन, मुफाइलुन, फेलुन)



अठारह

बजे नाद अनहद, सुनाई न दे,
वो कण-कण में लेकिन, दिखाई न दे।

मुझे छोड़ दे अब मेरे हाल पर,
नवाचार कर बोनसाई न दे।

भले ही मेरे प्राण हर ले क्षुधा,
मुझे किन्तु काली कमाई न दे।

न धन दे, न यश दे, न किंचित विभा,
पर इतना तो कर, जगहँसाई न दे।

रुलाना है तो फिर, मुझे ही रुला
मेरी बच्चियों को रुलाई न दे। 

बिना जुर्म के ही सज़ा काट दी,
मगर मेरा मालिक रिहाई न दे।

सियासत का हासिल यही आज है,
कि भाई का अब साथ भाई न दे।

निज़ामत को डर, सच कहीं लिख न दूँ,
क़लम दे, मगर रोशनाई न दे।

समझते हुए, है ये अन्तिम पड़ाव,
मगर कोई है जो विदाई न दे।

 (भुजंगी छन्द- फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊ)



उन्नीस

पंचतत्त्वों में जैसे पानी है,
तेरी मुझमें वही रवानी है।

रुष्ट पण्डित भी और मुल्ला भी,
हमने बाँची कबीर-बानी है।

मुझको कोई न मार पायेगा,
मेरी हस्ती ज़रूर फ़ानी है।

चाहे मिट्टी में तुम मिला दो इसे,
चार दिन की ये ज़िन्दगानी है।

लूटकर हमको फिर हमीं को दान,
आप जैसा न कोई दानी है।

बादलो! कुछ तो लाज खाओ अब,
देखो, हर आँख पानी-पानी है!

मेघ निकले जो इंद्रधनु लेकर,
भू ने धारी चुनरिया धानी है!

कोई कहता है, कोई चुप रहता,
जि़न्दगी दर्द की कहानी है।

साँझ ही से उबल रहे आँसू,
ध्वंस होने की यह निशानी है।

(ख़फीफ़)



बीस

द्वार जो आये उसे, अपना बनाना चाहिए।
धर्म अपना आतिथेयों को निभाना चाहिए।

श्रम-परिश्रम, सत्य-निष्ठा से उपार्जित रोटियाँ,
रूखी-सूखी जो मिलें, उनको ही खाना चाहिए।

जिस तरह हम अपने दोषों को छिपाते रहते हैं,
अन्य के दोषों को भी हमको छिपाना चाहिए।

हो परीक्षा की घड़ी, पर लोग डाँवाडोल हों,
ऐसे अवसर पर स्वयं को आज़माना चाहिए।

आत्मबल का एक ही सम्बल मिले, पर्याप्त है
आत्मबलहीनों को शिव का स्त्रोत गाना चाहिए।

रात हो सकती नहीं चौबीस घंटों की कभी,
सूर्य जब तक हो उदित, दीपक जलाना चाहिए।

एक चिंगारी हवा पाकर नियंत्रित कब रही?
ज्यों ही चिंगारी हँसे, उसको बुझाना चाहिए।

(रावण द्वारा रचित शिव-स्त्रोतमें शंकर की प्रशस्ति अवश्य है, पर उसमें
वीरोचित भावों की जो प्रतिष्ठा है, वह कायर को भी वीर बना सकती है।)                       

(गीतिका छंद)




इक्कीस

देखकर उनकी ज़हानत दोस्तो!
सौंप दी हमने हुक़ूमत दोस्तो!

हम पे शासन की उठाते हैं शपथ,
यों निभाते हैं वे बहुमत दोस्तो!

भेष उल्फत का बनाकर आ गयी,
हर गली-कूचे में नफ़रत दोस्तो!

शेष होने को बचे वंशज अबोध,
किन्तु ज्यों-की-त्यों अदावत दोस्तो!

आदमी तब, रह न जाता आदमी
जब सियासत की लगे लत दोस्तो!

मालोज़र पीज़ा पे है टूटा पड़ा,
पानी पी-पी जि़न्दा ग़ुरबत दोस्तो!

आज भी पछता रहे सच बोलकर
हमने भी की थी हिमाकत दोस्तो!

 (पीयूषवर्ष)



बाइस

ज़िन्दगी अब नहीं ज़िन्दगी की तरह,
आदमी भी कहाँ आदमी की तरह!

जी रहा हूँ ये जीवन उसी की तरह,
निमि पे आये हुए अश्रु ही की तरह।

गर्म साँसें हुईं शबनमी-शबनमी
नैनों में आ समायी नमी की तरह।

भू-गगन-आग-पानी-हवा और वे,
मुझमें रहते रहे अजनबी की तरह।

आग लगती रही, आग बुझती रही,
कुछ ग़मी की तरह, कुछ ख़ुशी की तरह।

एक दिन शर्म आखि़र उसे आ गयी,
मेरे होठों पे सूखी हँसी की तरह।

मौत ने भी न पूछा मुझे फिर भी मैं
जिऩ्दगी से मिला जि़न्दगी की तरह।


(स्रग्विणी छंद- फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ाइलुन)





तेईस

स्वप्न पूरा कभी हुआ ही नहीं,
किन्तु क्या है कमी, पता ही नहीं।

मेरे हिस्से में वह बगीची है,
फूल जिसमें कोई खिला ही नहीं।

उसको पिंजरे की पड़ गयी आदत
पंख अपने वो खोलता ही नहीं!

जाने कब से वो मुझमें रहता है
मुझसे लेकिन कभी मिला ही नहीं!

रिश्ते-नाते तमाम कहने को,
वक़्त आया तो कोई दिखा ही नहीं।





चौबीस
                   
चाहे-अनचाहे ऐसे क्षण आते हैं,
रहता है सर्वस्व, हमीं चुक जाते हैं।

हमने जिनके हेतु अस्मिता भी बेची,
आज वही हमको ही आँख दिखाते हैं।

आपस में कल हिस्सा-बाँट लगायेंगे,
गीता की सौगंध आज-ही खाते हैं।

सच कहने का दंभ पला करता जिनमें,
अवसर आने पर वे भी हकलाते हैं।

पंडितजी ने नया टोटका बतलाया,
भीगे चने वानरों में बँटवाते हैं।

रहने को तो रहते हैं मेरे ही घर,
पर मुझसे मिलने में वे कतराते हैं।

(कुंडल- 22 मात्रिक, 12 पर यति- फ़इलातुन-फ़इलातुन, फेलुन-फ़इलातुन)




पचीस

स्वयं के हित सभी उपलब्धियाँ हैं,
हमारे हेतु केवल सूक्तियाँ हैं।

लगे हैं झूठ इतने प्राणपण से,
कि बेदम हो रही सच्चाइयाँ हैं।

तिमिर के गर्भ से निकला है सूरज,
हृदय को बेधती परछाइयाँ हैं।

रुदन कर नैन पथराये कभी के,
भले ही आज टूटी चूडि़याँ हैं।

बहुत प्रातिभ हमारा गाँव निकला,
मगर सूनी पड़ी अँगनाइयाँ हैं।


(सुमेरु छंद- फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलुन)



छब्बीस

राजकुँवर मतिमन्द हैं,
मंत्रीगण सानन्द हैं।

एक न पृथ्वीराज है,
गली-गली जयचन्द हैं।

आज़ादी ऐसी मिली,
खादी में स्वछन्द हैं।

संविधान में अँट गये,
पाँच बरस मकरन्द हैं।

सुन लेते वे आर्त भी,
किन्तु किवाड़ें बन्द हैं।

बेटी से फुरसत मिली,
हर्षित बाबा नन्द हैं।

मुक्तछन्द की छावनी,
हुक्का भरते छन्द हैं।

(अप्सरीविलसिता छंद- फेलुन, फेलुन, फ़ाइलुन)



सत्ताइस

ऐसा हुआ प्रबन्ध है,
हर कोई निर्बन्ध है।

दिल्ली भी अब क्या करे?
सत्तासीन कबन्ध है।

राम टँगे दीवार पर,
रावण से सम्बन्ध है।

दुख नयनों तक आ गया,
टूट रहा तटबन्ध है।

चैन मिले तो किस तरह?
पीड़ा से अनुबन्ध है।

कहने को तो है बहुत,
वाणी पर प्रतिबन्ध है।

(कबन्ध- रामायणकालीन पात्र जिसका सिर गर्दन में धँसा हुआ था।)

(अप्सरीविलसिता)





अट्ठाईस

सुरभित-सुरभित श्वास है,
अंतस् में मधुमास है।

शिशु है माँ की गोद में,
दोनों में उल्लास है।

निमि पर कभी न आ सका,
आँसू बहुत उदास है।

मेरे घर क्यों आ गया?
सिर धुनता संत्रास है।

सीख विगत से यदि न ली,
दुहराता इतिहास है।

आकर्षण ही मिट गया,
आत्मन् इतना पास है!

देख न पायें हम भले,
तम में छिपा उजास है।

(अप्सरीविलसिता) 




उनतीस

किसी की अलकों से होकर हवा जब पास आती है,
मेरे भीतर अजब-सी एक ख़ुशबू तैर जाती है।

कभी जब सामने पड़ती, तो वह आँखें चुराती है,
अकेले में मेरी फोटो वो सीने से लगाती है।

नज़र मिलकर नहीं मिलती, अजब है लाज का परदा,
मगर दर्पन के सम्मुख बैठकर नज़रें मिलाती है।

अभी वो इतनी भोली है कि अपनी हर सहेली को
हमारे प्यार के कि़स्से मज़े ले-ले सुनाती है।

ज़ुबां उसकी न मैं जानूँ, ज़ुबां मेरी न वह जाने,
मुहब्बत है मगर फिर भी कि वह बढ़ती ही जाती है।



(विधाता)




तीस

अभी वह इतनी छोटी है, बमुश्किल बोल पाती है,
मगर मम्मी की गोदी में बहुत बातें बनाती है।

कभी वह मुस्कुराती है, कभी वह खिलखिलाती है,
मगर जब जि़द पे आती है, तो घर सिर पर चढ़ाती है।

उसे बस देखना पोगोया बच्चों-वाले कार्यक्रम,
कहीं जो बन्द हो टी.वी., उसे चालू कराती है।

अगर पापा गए आफिस, तो ले मम्मी का मोबाइल
दबा कितने ही नम्बर वह हलो-हाँ-हूँसुनाती है

उसे जब नींद आती है, तो कहती, ‘निन्नीहै आयी,
कोई जो और हो सोया, उसे फौरन जगाती है।

गयी जब नर्सरी में वह, तो उसका हाल मत पूछो,
जो टीचर पढ़ाती है, वो उनको बीपढ़ाती है।

पोगो- टी.वी.का एक चैनल, जिसमें बच्चों के कार्यक्रम आते हैं।
(विधाता)




इकतीस

बंजर में बोयें क्योंकर?
दाना भी खोयें क्योंकर?

हैं शंख-भेष में घोंघे,
फिर उन्हें सँजोयें क्योंकर?

दाता है कौन यहाँ अब,
याची भी होयें क्यों कर?

आँसू ढुरकर सूखेगा,
तब नैन भिगोयें क्योंकर?

आने को भोर सुनहरी,
निद्रा में खोयें क्योंकर?

अपना ही एक सहारा,
उसको भी खोयें क्योंकर?

श्वासों का मूल्य चुकाना,
फिर श्वास गँवायें क्योंकर?

(14 मात्रिक मानव छन्दः फेलुन-फेलुन-फ़इलातुन)

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