राजेन्द्र वर्मा के पद
एक
साहब ! नौकरिया लगवाओ ।।
एम.बी.ए. भी किया हुआ है, प्लेसमेंट
करवाओ ।
सरकारी जो नहीं तो कोई, प्राइवेट
दिलवाओ ।।
चाहे जैसा पैकेज हो पर, जल्दी
जुगत भिड़ाओ ।
‘ओवर-एज’
हुआ जाता हूँ, जैसे बने,
बनाओ ।।
अम्मा कहती-फिरती हैं, मैरेज
की बात चलाओ ।
लेकिन बाबू कहते, पहले अपना खर्च उठाओ ।।
दोस्त-यार भी कन्नी काटें, चाहें, पास न आओ ।
बैंक पड़ा है पीछे, शिक्षा-ऋण
की किश्त चुकाओ ।।
दो
साहब ! कब
तक करें सबूरी ?
बेकारी की भेंट चढ़ रही, एक ज़िन्दगी पूरी ।।
‘मनरेगा’ देता है केवल, सौ
दिन की मज़दूरी।
बाक़ी दिन करते-फिरते हैं, एकै
काम हुजू़री ।।
हाड़-तोड़ मेहनत करके भी, आधी
मिले मजूरी ।
जाने कब पूरी होगी अपनी
तक़दीर अधूरी ।।
इधर ग़रीबी, उधर
अमीरी, बढ़ती जाये दूरी ।
खरबूजे को देख-देखकर, मुस्क्याती
है छूरी ।।
मन करता है, ध्वस्त
व्यवस्था, कर दें पूरी-पूरी ।
बच्चों का मुँह देख मगर, चुप रहने की मजबूरी ।।
तीन
बापू ! महँगाई मुँह बाये ।
आटा-चावल-दालें-सब्ज़ी, हर
कोई आँख दिखाये ।
ईंधन महँगा, कपड़ा
महँगा, खर्च न चले चलाये ।।
बच्चों का पढ़ना-लिखना, हमको
ही सबक़ सिखाये।
बीमारी मेहमान की तरह, आये
और रुलाये।।
महँगे डीज़ल से महँगाई, घर-घर
चलकर आये।
सुना कि है आयात बढ़ा, डॉलर
भी आँख दिखाये।
रुपये की हालत है ऐसी, दिन-दिन
गिरती जाये।।
डीज़ल की कम्पनी मगर, जनता
से लाभ कमाये।।
सत्ता-शासन करै न कछु, बस
बातों ही भरमाये ।
जीना दूभर हुइगा अब कुछ, बनै
न तनिक बनाये ।।
चार
बापू ! भ्रष्टाचार
न जाई ।
सच्चाई कोने में दुबकी, झूठ
लेत अँगड़ाई ।।
नेता-अफ़सर-व्यापारी मिलि, सब
हमका समझाई ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, यहै लीकि चलि आई ।।
भ्रष्ट आचरण से ही सत्ता,
है मिलती सुखदाई ।
नैतिकता के चलते जीवन, हो
जाता दुखदाई ।।
भ्रष्टाचार निवारणकर्ता, हैं
भ्रष्टन के भाई ।
सौ-सौ चुहिया खाने पर ही, हज
को चलै बिलाई ।।
चित्रगुप्त के सम्मुख अपनी
मिसिल* पेश जब आई ।
पेशकार के सधे-बधे बिन, होत
नहीं सुनवाई ।।
*पत्रावली
पाँच
बापू ! अब न किसानी होई ।।
दो बीघे का खेत है आख़िर, क्या-क्या इसमें बोई?
गेहूँ-धान अगर बोवैं तो, बुवै न सब्जी कोई ।।
बच्चों के एडमीशन ही में, बिकी
बैल की गोई ।
ट्रैक्टर से जुतवाने में ही, ख़ासा खर्चा
होई ।।
खादें-बीज-सिंचाई
में भी, बचा-खुचा सब खोई ।
लागत से भी न्यून समर्थन-मूल्य, करे क्या कोई?
सोने का तो भाव बढ़ेगा, गेहूँ-चावल रोई ।
नक़ली बीज अगर मिलिगा,
तो रहि-रहि आँख भिगोई ।।
छः
बिरथा लरिकन का न पढ़वावो !
बी.ए.-एम.ए. करवाने में, रुपया
ढेर लुटावो ।
पढ़ने में औसत हों चाहे, सुविधा
सभी जुटावो ।।
ख़ुद चाहे उपवास करो, पर
उनके नाज़ उठावो ।
मोटरबाइक, मोबाइल
औ’
लैपटॉप दिलवाओ ।।
अगर नौकरी लग जाये, तो
उनसे हाथ गँवावो ।
अगर नौकरी नहीं लगे तो, उनकौ
खर्च उठावो ।।
पढ़ा-लिखाकर दुनिया-भर का, छल-प्रपंच
सिखलाओ ।
काम-धाम के रहे नहीं, पर
उनका ब्याह रचाओ ।।
खेती-पाती या दुकान, कछु
उनसे नहीं करावो ।
लरिका और बहू- दूनौ
को,
रोटी मुफ़्त खिलावो ।।
सात
साहब ! लै
ल्यो कोख किराये पर ।
कोख हमार बहुत सस्ती है, केवल
सौ डालर ।।
इसी कोख ने जाये हैं, दुइ-दुइ
लरिका सुन्दर ।
हमहूँ का तुम गौर से
द्याखौ, हमहूँ स्वस्थ-सुघर ।।
हम सब ठीक से मैनेज करबै, करौ
न तनिक फिकर ।
मिलिगे कहीं दलाल अगर तो, लेहैं
जेब कतर ।।
जल्दी से अनुबन्ध करावौ, बनवावो
पेपर ।
डिलीवरी के टाइम, लेकिन
जाना नहीं मुकर ।।
आठ
मम्मी ! मुझको भी जीने दो ।।
अभी न दुनिया देखी मैंने, मगर ‘टेस्ट’ होता है ।
कष्ट तुम्हें भी होता होगा, यह काँटे बोता है ।।
पापाजी को समझाओ,
क्यों चाह रहे बेटा ही !
पढ़-लिखकर मैं भी इक दिन, बन जाऊँगी बेटा-सी ।।
ज़ख्म दिलाये तुमने कितने,
मगर मुझे सीने दो ।
सुना कि जीवन-रस मधुमय है, मुझको
भी पीने दो ।।
नौ
अबहूँ रीति
हिंया की न्यारी ।।
लरिका पैदा हुआ तो जैसे, फैल गयी उजियारी ।
लड़की पैदा हुई तो जैसे, छाय
गयी अँधियारी ।।
लरिका दूध-मलाई छानै, खावै
फल-तरकारी ।
लड़की लेकिन जूठन पर ही, रह
जाती बेचारी ।।
नये-नये कपड़े लरिकन का,
लड़की रहै उघारी ।
किसी चीज़ की माँग करै तो,
जाये वह दुत्कारी ।।
लरिका पढने को जायेगा, लड़की घरै सँभारी ।
जीवन का संग्राम लड़ेगी, बिना
किसी तैयारी ।।
भेदभाव तज बेटी को भी, दे
दो सुविधा सारी ।
पढ़ी-लिखी बेटी होगी, तो
होंगे सभी सुखारी ।।
दस
अरे, यह कैसी है संतई !
बड़े-बड़े आश्रम में फैली, बड़ी-बड़ी
चंटई ।।
धर्म-अफीम पुरानी लेकिन,
शैली नई-नई ।
दंड पेलते बन्दोबस्ती, चेले
कई-कई ।।
दुखभंजनजी प्रगट हुए है, सबको
ख़बर दई ।
भवसागर को पार कराने, आये
नाव-खिवई ।।
दर्शन पाने को भक्तों की, भारी
भीड़ भई ।
धरती पर उतरा हो जैसे, देवस्वरूप
मनई ।।
ऐसा टोना मारा, सबकी
चरने बुद्धि गई ।
सच को रौंद ढोंग करता है, ता-ता-थैया-थई
।।
सन्त प्रवर ने बुलवाई जब, कन्या
एक नई ।
मोक्ष दिलाना धरा रह गया, खुल
ही गयी कलई ।।
ग्यारह
बापू ! धर्म हुआ व्यापार ।।
पंडित-मुल्ला ने मज़हब को, बना
दिया व्यापार ।
मंदिर में है स्वर्ण-ख़जाना, मस्जिद
में हथियार ।।
एक कल्पना-लोक बना, ये
चला रहे बाज़ार ।
लोग छले जाते लेकिन, करते
इनका सत्कार ।।
लोगों में नफ़रत भरने का, मिला
इन्हें अधिकार।
आपस में हो मार-काट तो, इनमें
बढ़ता प्यार ।।
मानवता की सेवा ही है, सब
धर्मों का सार ।
फिर भी सेवा विस्मृत कर हम
इन्हें पिन्हानते हार ।।
बारह
बापू ! बढ़ता जाये पाप ।।
सम्बन्धों की नयी इबारत, वक़्त
लिख रहा आप ।
प्रेम गया कितने गड्ढे में, रही
वासना माप ।।
पहले बाप, बाप
था लेकिन; अब बेटा है बाप ।
नये-नये सरगम गाने को, दुख
भरता आलाप ।।
मित्र-मंडली घर में आयी, ले
फ़ैशन की छाप ।
बाप बन्द पीछे कमरे में, जैसे
कोई साँप ।।
पति-पत्नी में छिड़ी हुई, बढ़ता
जाता सन्ताप ।
बन आयी फैमिली-कोर्ट की,
फलीभूत है पाप !
तेरह
बापू ! लोकतन्त्र आया ।।
शहज़ादे-माफ़िया, सभी
को लोकतन्त्र भाया ।
जिसे देखिए ,
वही लोक का, सेवक कहलाया ।।
जनता का मत हथियाकर, ग़ैरों
को अपनाया ।
लेकिन जो प्रत्याशी जीता,
पल में हुआ पराया ।।
भ्रष्ट आचरण करने का, जब
भी अवसर आया ।
मन-क्रम-बचन से उसने, पूरा
लाभ उठाया ।।
नये-नये क़ानून बना, जनता
को भरमाया ।
रौशन-रौशन तन्त्र, लोक
पर अँधियारा छाया ।।
चौदह
बापू ! नेता
चतुर सुजान ।
जब चुनाव की बारी आये, बन
जाये नादान ।
कुर्सी पाकर बन जाये, जैसे
डाकू मलखान ।।
जनता का सेवक कहलाये, बना
हुआ सुल्तान ।
लूट-पाट करने की ख़ातिर, लाये
नया विधान ।।
चोर-माफ़िया मुस्की छाँटें,
शाह होंय हैरान ।
पुलिस-कचहरी मिल-जुल करते,
हैं उसका ही गान ।।
दूध-मलाई खाय बिलौटा, बना
हुआ है श्वान ।
अबकी बार सुनाओ उसको, डंडे
का फ़रमान ।।
पन्द्रह
बापू ! देखो तो चतुराई ।
करनी तो करता है कोई, हम
करते भरपाई ।।
नये-नये घोटालों की, नित
नयी ख़बर है आई ।
जाँच किया सी.बी.आई. ने, मगर
न निकली पाई ।।
क्या खादी, क्या ख़ाकी, दोनों
ने की ख़ूब कमाई !
संसद में भी बहस चली,
लेकिन सब हवा-हवाई ।।
जनता को है भरम, कि
तगड़ा लोकपाल बिल आई ।
लेकिन नेताओं ने संसद में,
मिल चुप्प लगाई ।।
राजा को कब हुई सज़ा, जो
आज उसे हुइ जाई !
जनता की कुछ चले नहीं,
उनकी ही चलती आई ।।
सोलह
बापू ! वे मालिक बन जाते ।
जनादेश पाकर वे तो बस, बैठे-बैठे
खाते ।
पाँच बरस में मुश्किल से,
उनके दर्शन हो पाते ।।
टी.वी. में मुखड़ा दिखलाकर बातें
खूब बनाते ।
उनके सुर में सुर न मिले, तो
वे आँखें दिखलाते ।।
लोगों से मिलने-जुलने में, थोड़ा
समय गँवाते ।
किसी समस्या की चर्चा से,
पहले ही उठ जाते ।।
इधर-उधर की बातों से, हमको
वे ख़ूब लुभाते।
लेकिन क्या काग़ज़ पर लिखना, पी.ए.
को समझाते ।।
सत्तरह
बापू ! वे मौक़ा नहीं गँवाते
।
बार-बार मौक़ा नहिं आता,
खाते और खिलाते ।।
राम-कृष्ण-गौतम-गाँधी के गुन,
गुन-गुनकर गाते ।
लेकिन इन्हें टाँग खूँटी पर, बातें
नयी बनाते ।।
रावन-कंस-गोडसे जैसे, लोगों
को अपनाते ।
दुनिया थू-थू करे भले ही,
पर वे नाम कमाते ।।
जब कोई भी मौक़ा आता, उसको
ख़ूब भुनाते ।
समरथ के पैरों पर पड़ते, और
परम पद पाते ।।
अट्ठारह
बापू ! वे पाँच साल तक सोते
।
भले ग़रीब मरैं भूखे ही, ख़ुद
करोड़पति होते ।।
तन को खादी से चमकाते, मन का मैल न धोते ।
नींद हराम करें जनता की,
स्वयं चैन से सोते ।।
तुम उनको दो फूल भले ही,
वे काँटे ही बोते ।
पब्लिक मीटिंग में जाते,
तो आँखें खूब भिगोते ।।
जैसे भी हो, दाँव
मार कर, ‘वी.वी.आई .पी.’ होते ।
देसी और विदेशी चख, सुन्दर
सपनों में खोते ।।
उन्नीस
उनको सत्ता का संजोग ।।
सभी विपक्षी दल करते हैं,
उनको ही सहयोग ।
एक सभी वे हिन्दू-मुस्लिम,
करते सत्ता-भोग ।
लेकिन उनकी बातों पर, आपस
में लड़ते लोग ।।
जनता भूखी मरे मगर उनको,
दौलत का रोग ।
लोकतन्त्र बन गया उन्हीं
की, सत्ता का उद्योग ।
उनसे आस न रक्खो वरना, रहो
मनाते सोग* ।।
*शोक
बीस
अरे, यह कैसी है सरकार ?
छल-बल से वे जीत मनायें, हम
पहनायें हार ।
हमको ही वे धता बता, करते
अपना उपकार ।।
छुटकन्ने-बड़कन्ने आये, बनने
को सरदार ।
लोक-वोक की नानी मरिगै, तन्त्र
लिये तलवार ।।
अब घर को घर कहना मुश्किल, इतनी
पड़ी दरार ।
ऊपर से है लीपा-पोती, भीतर
बंटाधार ।।
सत्तर बरस हो गये, आख़िर कब
तक खायें मार !
अबकी ‘नोटा’ दबे मचे फिर,
जमकर हाहाकार ।।
इक्कीस
यहाँ तो हर
कोई गाल बजाये !
जिसको देखो, वही
हमीं पर, अपना रंग जमाये ।।
बात हमारी नहीं सुने, बस
अपनी हाँके जाये ।
हार मान जब हम चुप हों, वह
मन्द-मन्द मुस्काये ।।
नेता-मंत्री-अधिकारी, हर
कोई नाच नचाये ।
न्यायालय रेफ़री की तरह, उनकी
जीत बताये ।।
वादे तो हर कोई करता, किन्तु
न एक निभाये ।
जनगण की परवाह नहीं, लेकिन
‘जनगण-मन’ गाये ।।
काम-काज के नहीं, पर
इनसे पीछा छूट न पाये ।
एक से पीछा छूटे तो फिर, दूजा
धमक दिखाये ।।
बाईस
अरे, वे लूटैं माल-ख़जाना !
बातें लच्छेदार करैं वे, पहने
खादी बाना ।
पहले ठगैं उसी को, जिसने उनको
अपना माना ।।
राम-राम अधरों पर, लेकिन
हैं रावन के नाना ।
मर्दाने का भेष बनावैं, करते
काम जनाना ।।
नये-नये घोटाले करते, जाने
नहिं शरमाना ।।
चाहे थू-थू हो जावै, वे
भरते रहैं ख़जाना ।
दाग़ लगाकर खादी में, वे
चाहैं नाम कमाना ।
सात पुश्त की करैं
व्यवस्था, कल का नहीं ठिकाना ।।
तेईस
बापू ! वे तो मदिरालय
खुलवावें ।
गाँव-गाँव में वे शराब का, ठेका
क्यों खूब उठावें ।
नयी-नयी भट्ठियाँ लगाकर, वे
शराब बनवावें ।।
लूट ग़रीबों की मज़दूरी, बैठे
माल कमावें ।
ऐसी छूत कमाई से, लेकिन
राजस्व जुटावें ।।
ख़ून चूसकर निर्धन का, मुद्दे
से ध्यान हटावें ।
इतने हैं बेशरम कि
रत्ती-भर भी लाज न खावें ।।
चौबीस
बापू ! है सेंसेक्स
निराला ।।
टाटा-अम्बानी के हाथों, पीता
है यह हाला ।
फ़र्ज़ी बैलेन्स-शीट देखकर,
हो जाता मतवाला ।।
पल में तोला, पल में माशा, जैसे अफ़सर आला ।
लेकिन सट्टेबाजों
की ही, जपता रहता माला ।।
मिलता नहीं दिमाग़ कभी जो,’बुल’ ने तनिक उछाला ।
मगर तबीयत हरी हुई, जब पड़ा ’बियर’ से पाला ।।
बना हुआ है सूचकांक, जब तक दल्लों का साला ।
शेयर-मार्केट कभी न होगा, जन-धन
का रखवाला ।।
संकेतः ‘बुल’ से
आशय से है मार्केट में तेज़ी और
‘बियर’ से
मन्दी ।
पचीस
बापू ! टी.वी.
भी दुखदाई ।
चौबिस घंटा चलत रहत है, कछू-न-कछु
तौ आई ।।
राई को पर्वत कर देता, औ’ पर्वत
को राई ।
झूठ-फ़रेब परोसे लेकिन, कह
करके सच्चाई ।।
ख़बरों की खेती करता है, देखे
फ़कत बुराई ।
जैसे, दुनिया में अब कोई,
शेष न रही भलाई ।।
फ़िल्म-कला-शिक्षा-फ़ैशन कै, चैनल
की बहुताई ।
लेकिन उन पर विज्ञापन की, रहती
बदली छाई ।।
नेताओं की करे बुराई, यह
इसकी चतुराई ।
जनता की आवाज़ बना है, व्यापारी
का भाई ।।
छब्बीस
बापू ! अँगरेज़ी का राज ।
सत्तर वर्षों से इंग्लिश के,
सिर पर साजे ताज ।
बड़े शान से हिन्दी पर ही, गिरा
रही है गाज ।।
संसद-न्यायालय को आती,
है
हिन्दी में लाज ।
हिन्दी की बातें करते पर, करें
न कोई काज ।।
जब तक हिन्दी में शिक्षा का,
नहीं सजेगा साज ।
तब तक व्यर्थ गँवायेंगे हम,
भाषिक साज-समाज ।।
सत्ताईस
बापू ! मिला न खेवनहार ।
कितने ही माँझी बदले, पर
हुआ न बेड़ा पार ।।
कुछ तो हैं नौसिखिये, कुछ
हैं घुटे हुए मक्कार ।
पाँच साल तक नाव चलायें, फिर
बन जायें भार ।।
जिसको देखो, वही
बना है, बेड़े का सरदार ।
माल और असबाव लूटकर, ठान
रहा है रार ।।
घोटालों की भँवर सामने, किसकी
करें पुकार ?
सभी खेवैया मिल करते हैं, अपना बेड़ा पार ।।
अट्ठाईस
यारो ! नाहक
आँख भिगोवो ।
जैसा नेता चुना, उसी
की पलटन को अब ढोवो ।।
रोटी मिली न खाने को तो, पानी
पीकर सोवो ।
रोज़गार की बात करो मत, भत्ते
से ख़ुश होवो ।।
भ्रष्टाचार करो मत लेकिन, भ्रष्टन
ही को ढोवो ।
वादों वाली नयी जमीं पर, ख़्वाब
उन्हीं के बोवो ।।
सड़ा-गला सस्ता अनाज खा, उनके
वोटर होवो ।
अपने पाँव खड़े होने को, पाँव
उन्हीं को धोवो ।।
अन्धों के आगे रो-रोकर, काहे
दीदा खोवो ?
इन्क़लाब की करो तैयारी, काहे
बिरथा रोवो ।।
उनतीस
यारो ! उनकी
समझ न आवत ।
हम तौ भाई-भाई कहियत, उइ
मारन को धावत ।।
हम तो करते शान्तिवार्ता, उइ
गोली बरसावत ।
है उनका नापाक इरादा, धोखे
से मरवावत ।।
एक हमारे नेता हैं, संसद
मा बहस करावत ।
वोट बैंक की ख़ातिर बस, ऐसे
ही वक़्त गँवावत।।
ऐसे नेताओं के चलते, दुश्मन
आँख दिखावत ।
दुश्मन है या आतंकी, भारत
को नाच नचावत ।।
तीस
यारो ! है
दुश्मनी पुरानी ।।
देश बँटा तो कोटि जनों का, लहू
बहा ज्यों पानी ।
काश्मीर ने लेकिन फिर भी, लिख
दी नयी कहानी ।।
आपस में मिल-बैठ एक दिन,
उलझन थी सुलझानी ?
किन्तु देश के भीतर बैठे,
भाड़े के कुछ ग्यानी ।।
बातचीत का दौर चला तो, दुश्मन
ने यह ठानी ।
छाती पर बन्दूक तान, बोलेगा
मधुरी बानी ।।
युद्ध-विराम हुआ घोषित पर, देखो
तो बेइमानी ।
पाक-आर्मी की बन्दूकें, तालिबान
ने तानी ।।
अब तो केवल एक राह है, छोड़ो
बात बनानी ।
युद्ध करो दुश्मन से,
मारो, याद कराओ नानी ।।
इकतीस
यारो ! लड़ौ
लड़ाई फिर से ।
शान्ति-वार्ता से क्या
होगा,
दाँव पड़ा माहिर से ।।
दुश्मन का पैंतरा देख लो, दोस्त
बना ज़ाहिर से ।
हम अपनी रक्षा को लड़ते, वे
लड़ते काफ़िर से ।।
बार-बार मत लेव परीक्षा, हम
जैसे साबिर* से ।
हम भारत के वीर सिपाही, लिखते
जीत रुधिर से ।।
एक बार पूरी ताक़त से, निपट
लेव शातिर से ।
रक्त पिपासु शत्रुओं के अब, अलग करो धड़ सिर से ।।
*सब्र करने वाला
बत्तीस
यारो ! सच
को सच न कहो ।
जीना दूभर हो जायेगा, सच
से बचके रहो ।।
सच कहना है तो पहले, झूठे
का हाथ गहो ।
वरना सच कहो तो, दुनिया-भर
से वैर सहो ।।
‘राम-राम’ रक्खो
ज़ुबान पर, रावन-साथ रहो ।
और दशहरे में रावन के, पुतले-ही
को दहो ।।
मौज अगर करना चाहो तो, धारा-संग
बहो ।
देव मिले कोई तो उसको, तजकर
असुर लहो ।।
तेंतीस
यारो ! सच
की क़िस्मत फूटी ।
सच्चे को रोटी की मुश्किल, झूठ
ने दुनिया लूटी ।।
जहाँ देखिए, झूठ
केंद्र में, सत्य पड़ा कोने में ।
झूठ बिके ऊँचे दामों में, सच
औने-पौने में ।
सूनी-सूनी राह पड़ी है, सच
जिस पर चलता था ।
शीश गँवाकर भी दुनिया में,
सच ज़िन्दा रहता था ।।
किन्तु समय की बलिहारी, अब
सच को ठौर कहाँ है ?
अब तो फैला झूठ वहाँ तक,
जाती नज़र जहाँ है ।।
चौंतीस
कहत दरोगा झूठी बात ।
हम तो भोले-भाले नेता, वहै
झूठ बतियात ।।
हम तो हैं जनता के सेवक, सेवारत
दिन-रात ।
किन्तु विरोधी-जन कुछ ऐसे, करते
हैं उत्पात ।।
लूट-पाट, दंगा-फ़साद
की,
करते हैं बरसात ।
घात लगाये खड़ा मीडिया, जो
हमसे संजात ।।
हम तो धुले दूध के लेकिन, वह
कब माने बात !
हर चुनाव में जनादेश की, मिले
हमें सौग़ात ।।
सच को आँच कहाँ आती है, यह
दुनिया को ज्ञात ।
इसीलिए तो दुश्मन भी, हमसे
खाता है मात ।।
पैंतीस
प्यादा टेढ़ो-टेढ़ो जाये ।
अपनों ही के बीच अकड़ता, क़िस्मत
पर इतराये ।।
ऐसी बिछी बिसात कि फ़र्ज़ी, फ़र्ज़ी
ही को खाये ।
कल का पैदल आज ऊँट की
माफ़िक चलता जाये ।।
घोड़ा दौड़े ढाई घर, पर
पहुँच न मंज़िल पाये ।
हाथी भी चित हुआ कि सारा
खेल बिगड़ता जाये ।।
घबराया वज़ीर दौड़े तो, राजा
भी घबराये ।
अफ़रातफ़री मची हुई है, कौन
किसे समझाये ?
छत्तीस
साहब ! हमको भी पढ़वाओ ।।
जो विद्या तुमने सीखी है, हमको
भी सिखलाओ ।
सोलह-दूनी आठ भये, कैसे
हमको समझाओ ।।
जो मौक़ा तुमने पाया है,
हमको भी दिलवाओ ।
गाड़ी पटरी पर आ जाये, वह
तरक़ीब भिड़ाओ ।।
फ़र्ज़ीवाड़ा कर पुरखों का
क्योंकर नाम गँवाओ !
दुनिया में कुछ अच्छा
करके, अपना नाम कमाओ ।।
रहे नहीं जब बड़े-बड़े, तब
क्यों ख़ुद पर इतराओ ?
लुप्त डायनासोर भये, यह
बात ग़ौर फ़रमाओ ।।
सैंतीस
मैडम ! थोड़ा-सा
मुस्काओ ।
हर नेता की राय यही है,
हँसि फोटो खिंचवाओ ।।
आंग्लदेश की महरानी जैसा रुतबा तुम पावो ।
शक्तिशालिनी दुर्गा बनकर, दुनिया
में छा जाओ ।।
घरवाले प्रसाद के भूखे, आकर
भोग लगाओ ।
बच्चो, बूढ़ो
और जवानो! विरुदावलियाँ गाओ ।।
यही कामना, स्वस्थ
रहो तुम, अपना चेक-अप कराओ ।
स्विटज़रलैण्ड से लौटो तो
फिर,
अच्छी ख़बर सुनाओ ।।
अड़तीस
मम्मी ! कुर्सी
पी.एम. वाली लैहों ।
अपने नाना जैसे मम्मी, मैं
भी नाम कमैहों ।।
अब तक पढ़ता ही आया हूँ, अब
मैं ख़ूब पढ़ैहों ।
रिश्तेदारों की सेवा कर, आपन
धरम निबैहों ।।
आगे आउ, बात
सुनि मेरी, सबको तुम न जनैहों ।
सौदे नये-नये करवैहों, अच्छी
रक़म पठैहों ।।
औरन के जो कान न काटूँ, तेरो सुत न कहैहों ।
अबकी बारी लालक़िला पर, मैं झंडा फहरैहों ।।
उनतालीस
पापा ! कार
नयी दिलवाओ ।।
गाड़ी अपनी भयी पुरानी, आय
गयी बैठाने ।
आये दिन गैरेज में रहती, करती
नये बहाने ।।
चार क़दम चलते ही इंजन, गड़-गड़
गड़-गड़ करता ।
ए.सी. भी है नहीं, कलेजा
मुँह को आने लगता ।।
चलतै-चलत बन्द हुई जाती, फिर
धक्का लगवाती ।
अब तो आये दिन पापा ! यह
मिस्त्री को बुलवाती ।।
यार-दोस्त सब हम पर हँसते, कहैं
खरीदौ बाइक ।
ख़बर हँसी की पल में होती, लगा
हुआ ज्यों माइक ।
कालेज जाना है अब दूभर, कुछ
तौ लाज बचाओ ।
मर्सडीज़, बी.एम.डब्ल्यू.
या ऑडी क्रय करवाओ ।।
चालीस
सखी री ! चलो
सिनेमा-हाल ।।
सभी कह रहे यार! कि पिक्चर, लगी
हुई झक्कास ।
हीरो और हिरोइन दोनों, हैं
उसमें बिन्दास ।
सुना कि प्रेम-कहानी ऐसी, भर-भर
आयें नैन ।
और ऐक्टिंग की मत पूछो,
लुटे दिलों का चैन ।।
जाने कहाँ छिपा बैठा है, मेरा हीरो यार !
जाने कौन घड़ी में होगा, एक
झलक दीदार !
जब से प्रोमो देखा, तब
से हाल हुए बेहाल ।
जाने कब फेंकेगा मुझपे, हाय, मछेरा
जाल !
इकतालीस
यारो ! क्रिकेट बिना सब सून ।
जैसे स्वाद न आवै तनिकौ, पान
लगा बिन चून ।।
जिसको देखो वही साधता, यह
महान क्रीड़ा है ।
पप्पू तो पप्पू, पप्पा
ने उठा लिया बीड़ा है ।।
हाकी, खो-खो, भारत्तोलन, वालीबाल, कबड्डी
।
टेनिस, नौकायन, स्विमिंग, सब साबित
हुए फिसड्डी ।।
क्या घर, क्या
कॉलेज, है बीता जाता साल क्रिकेट में !
पढ़ने बैठे बेटा जी, पर
सारा ध्यान ‘विकेट’ में ।
सचिन और धोनी बनने को, व्याकुल
अफ़लातून ।
बैट-बॉल आयेगा पहले,भले न
आये नून ।।
बयालीस
यारो ! पुरस्कार
दिलवाओ ।।
मेरिट से क्या काम बनेगा, सिफ़ारिशें
भिजवाओ ।
माननीय नेताओं से भी, तनिक
जुगाड़ भिड़ाओ ।।
लेखन में ही बीता जीवन, यह
चर्चा करवाओ ।
थोड़ा ले-दे अख़बारों में, फोटो
तो छपवाओ ।।
बातों से ही बात बनेगी,
कुछ तो बात चलाओ ।
पैसे चाहे सारे ले लो, सर्टीफ़िकेट
दिलाओ ।।
तेंतालीस
यारो ! नया साल फिर आया ।
इस्वी ने सम्वत् के ऊपर, ऐसा
रंग जमाया ।
ग़ैरों से अपनापा उपजा, अपना
हुआ पराया ।।
छद्म उमंगें, छद्म तरंगें,
नख-शिख भर कर लाया ।
मन की सुन्दरता बेमानी, चमके
केवल काया ।।
बाज़ारों ने अवमूल्यन का, ऐसा
नशा पिलाया ।
घर की अच्छी बातों को भी, है
हमने बिसराया ।।
चवालीस
यारो ! दीवाली है आयी ।।
महँगाई के मारे दीपक, पड़े
हुए हैं सूने ।
व्यापारी की पौ बारह है, दाम
हो गये दूने ।।
चाइनीज झालर यों चमकी, बुझी
कुम्हार की अक्किल ।
पकवानों की छोड़ो, उसको
रोटी की भी मुश्किल ।।
लोगों की मुश्किलें देखकर,
ब्लेक मनी मुस्काये ।
सरकारी गाड़ी में गहने,
नये-नये घर लाये ।।
कनफोड़ू बम और पटाखे, बजते
तड़तड़-तड़तड़ ।
विघ्न खोजते फिरैं गणपती, मिले
नहीं कुछ गड़बड़ ।।
अब तो लगता, दीवाली है
धनिकों के घर आती ।
हम जैसों की हालत पर,
बैठी-बैठी मुसक्याती ।
पैंतालीस
यारो ! फिर
वसन्त आया ।
कितना-ही मन को बाँधा है, किन्तु
न बँध पाया ।।
शीतल-मन्द-सुगन्ध हवा ने आँचल
लहराया ।
दिशि-दिशि मादक हुई, सुरभि
को
किसने बिखराया ?
सरसों फूली, टेसू
दहका,
महुआ ललसाया ।
पोर-पोर अंकुर है फूटा, नवल
हर्ष छाया ।।
सूरज की जो दृष्टि पड़ी, भू
की कंचन-काया ।
कोयल की वह कूक, कि
अन्तस् पुनि-पुनि अकुलाया ।।
छियालीस
यारो ! चलो मनायें होली ।।
प्रेम-रंग का लेन-देन कर
लें, भर-भर झोली ।
जिसको देखो, उसके अन्तस,
प्रिय की रंगोली ।।
कानों में मिसरी घुल जाये,
वह मीठी बोली ।
आँखों-ही-आँखों में भंग
की, घुली हुई गोली ।।
छलका जाता प्रेमामृत, पर
बनी हुई भोली ।
आँख बचा दुनिया की अपने,
प्रियतम की हो ली ।।
होली में सब सराबोर, का
बम्भन, का कोली !
फाग-रँगी हुलिहारों की, आ
पहुँची है टोली ।।
सैंतालिस
यारो ! आरक्षण
बेमानी ।
भेदभाव को पनपाये, मेटे जज़्बा
इन्सानी ।।
आरक्षण मिलते ही सूखे, स्वाभिमान
का पानी ।
इसके चलते कोई क्योंकर, रह
पाये अभिमानी ?
हिन्दू को भी ऊँच-नीच में, बाँटे
नीति सयानी ।
पारस्परिक भेद करने की, छूट
मिली मनमानी ।।
हक़ देते हैं दान-सरीखा, सत्ता
के कुछ दानी ।
जैसे उनकी बड़ी कृपा ने, लिक्खी
भाग्य-कहानी।।
जाति-धर्म आधारित कैसे, नियम
बने विज्ञानी ?
सबको दो सुविधाएँ, तोड़ो
जाति-धर्म की बानी ।।
जिस समाज का मान नहीं, वह
हो कैसे सम्मानी !
भिक्षुक तो भिक्षुक कहलाये, कहा
न जाए ज्ञानी ।।
अड़तालीस
यारो ! पर्यावरण
बचाओ ।
वन सम्पदा नहीं लुटने दो, पेड़
नये लगवाओ ।।
जंगल काट-काट कर हमने, पहले
खेत बनाये ।
फिर उनमें कंक्रीटों के
हैं जंगल नये उगाये ।।
नये-नये उद्योगों से, नदियाँ
हो गयीं प्रदूषित ।
सड़कों पर इतने वाहन, हो
गयी वायु भी दूषित ।।
मोबाइल के टावर से, हो गयी
लुप्त
गौरय्या ।
ऑक्सीजन को निगल प्रदूषण,
करता ता-ता-थय्या ।।
कैसे कम हो तापमान अब, उस
विधि को अपनाओ ।
वायु और जल में ऑक्सीज़न, फिर
वापस ले आओ
उनचास
भूखे भजन न होय गुपाला ।
यह ल्यो अपना तान-तंबूरा, यह
ल्यो कंठी-माला ।।
पाँच बरस हो गये साधुता करते-करते
हमको ।
भूल गये अम्मा-बाबू को, भूल
गये हम ‘उनको’।।
भिक्षा भी तो एक काम है, माँगे
बहुत सबूरी ।
फिर हम क्यों भिक्षा ही माँगे,
करे न क्यों मजदूरी ?
जीवन जीने का मतलब है,
पहले ख़ुद को जानो ।
अच्छी करनी कर दुनिया में, सबको
अपना मानो ।।
पचास
बेटा ! पढ़ ल्यो तनिक क़िताब ।
खोल क़िताबें देखो तो, उनमें
सीखें नायाब ।।
जब देखो, बिन्धे
रहते हो तुम कम्प्यूटर में ।
जाने किस साइट पर अटके, कै़द
हुए घर में ।।
कम्प्यूटर पर लगे रहो,
जल्दी चश्मा लगता ।
चाहे जितना ट्वीट करो, पर
हृदय नहीं मिलता ।।
पुस्तक तो है मित्र-सरीखी, जीवन-भर
की साथिन ।
कभी नहीं मिसगाइड करती,
हों
कैसे भी दिन !
इक्यावन
यारो ! जीवन
है अनमोल ।
देखो, व्यर्थ न जाने पाए, मिले नहीं यह मोल ।।
दुनिया को देखो पर, देखो मन
की आँखें खोल ।
सच बोलो, लेकिन जब बोलो,
बोलो मिसरी घोल ।।
जब-जब जिसने करनी की है, सच्चाई
को तोल ।
बदला है इतिहास कभी तो, बदला
है भूगोल ।।
धन-दौलत की बरखा हो, तो
बजे झूठ का ढोल ।
लेकिन झूठ बड़ा बेढब है, खोले
इक दिन पोल ।।
प्राण-तत्व ही एक तत्व है, काया
तो है खोल ।
कुछ कर लो, वरना
जायेगा, यह माटी के मोल ।।
बावन
यारो ! जीवन
के दिन चार ।
जाने कब आ जाय बुलावा, क्या
तुम हो तैयार !
बिना प्रयत्न मिल गया देखो,
जीवन का उपहार ।
चाहे कर लो प्यार सभी से, या
फिर ठानो रार ।।
आँखों में हो प्यार अगर तो, फिर
कैसी तक़रार?
अपना और पराया तज दो, कर
लो सबसे प्यार ।।
प्यार लुटाने वाला जाता, जान-बूझकर
हार ।
जिसने ख़ुद को जीत लिया,
उसने जीता संसार ।।
काम-क्रोध-मद-लोभ त्याग दो,
कर लो हल्का भार ।
इसी पार जो फँसे रहोगे, कैसे
होगे पार ?
कल की छोड़ो आज
चुका दो, जो भी चढ़ा उधार ।
कल दुनिया ख़ुद ही आँकेगी, कैसा था क़िरदार !
००
पूर्वजों के पद
कबीर
सभी
राग ‘असावरी’ में-
----------------------
१
करम गति टारे नाहिं टरी।
मुनि वशिष्ठ-से पंडित ज्ञानी, शोध के लगन धरी।।
सीता
हरन मरन दशरथ का, वन में विपति परी।
सीता
को हरि लै गयो रावन, सुवरन लंक जरी।।
नीच
हाथ हरिचंद बिकाने, बलि पाताल धरी।
कोटि
गाय नित पुन्न करत नृप, गिरगिट योनि धरी।।
पांडव
जिनके आप सारथी, तिन पर विपति परी।
दुर्योधन
को गरब घटाओ, यदुकुल नाम करी।।
राहू-केतु
और भानु चन्द्रमा, विधि संयोग परी।
तीनहु
लोक काल के बस हैं, कैसे जिउ उबरी,
कहैं
‘कबीर’ सुनौ भई साधो, होनी होके रही।।
(१६, १६/१०)
२
ठगनी!
क्या नैना चमकावे?
कद्दू
काट मृदंग बनाया, निम्बू काट मजीरा।
पांच
तोरई मंगल गावें, नाचत बालम खीरा।।
रूपा
पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर तरसावे।
गले
डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे।।
भैंस
पद्मिनी आसिक चूहा, मेंढक ताल लगावे।
छप्पर
चढ़िके गदहा नाचे, ऊँट विष्णु-पद गावे।।
आम-डारि
चढ़ि कछुआ तोड़े, गिलहरी चुन-चुन लावे।
कहै
कबीर सुनो भई साधो, बगला भोग लगावे।।
३
मुखड़ा
क्यों देखे दर्पण में। तेरे दया-धरम नहीं मन में।।
आम
की डाल कोयलिया बोले, बोले सुगना वन में।
घरवाली
तो घर में राजी, फक्कड़ राजी बन में।।
ऐंठू
धोती पाग संवारे, तेल चुए जुल्फन में।
गली-गली
में सखी रिझाई, दाग लगाया तन में।।
पाथर
की एक नाव बनाई, उतरा चाहे क्षण में।
कहत
कबीर सुनो भई साधो, ये कहाँ चढ़ेंगे रण में?
४
माया
महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन
फांस लिए कर डोले, बोले माधुरी बानी।।
केशव
के कमला ह्वै बैठी, शिव के भवन भवानी।
पांडा
के मूरत ह्वै बैठी, तीरथ में भई पानी।।
योगी
के योगिन ह्वै बैठी, राजा के घर रानी।
काहू
के हीरा ह्वै बैठी, काहू के कोड़ी।।
भक्तन
के भक्तिन ह्वै बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी।
कहत
कबीर सुनो भई साधो, यह सब अकथ कहानी।।
५
कौन
ठगवा नगरिया लूटल हो?
चन्दन
काठ के बनल खटोलना, तापर दुल्हिन सूतल हो।।
उठो
री सखी मोरी माँग संवारी, दूल्हा मोसे रूठल हो।
यमराज
आय पलंग चढ़ बैठे, नैनन अंसुआ टूटल हो।।
चारि
जने मिलि खाट उठाइन, चहुँ दिशि धू-धू ऊठल हो।
कहत
कबीर सुनो भई साधो, जग से नाता छूटल हो।।
...............................................................
सूरदास
१
जसोदा
हरि पालने झुलावै।
हलरावै,
दुलराइ मल्हरावै, जोइ-सोइ कछु गावै।।
मेरे
लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुवावै।
तू
काहे नहिं बेगहि आवै, तोको कान्ह बुलावै।।
कबहु
पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत
जानी मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै।।
इहि
अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै।
जो
सुख ‘सूर’ अमर-मुनि दुरलभ, सो नंद-भामिनी पावै।।
(धनाश्री, १६, १६/१२)
२
जसोदा,
तेरौ चिरजीवहु गोपाल।
बेगि
बढ़ै बल सहित बिरध लट, महरि मनोहर बाल।।
उपजि
परयौ सिसु-कर्म-पुण्य-फल, समुद-सीप ज्यों लाल।
सब
गोकुल कौ प्रान-जीवन-धन, बैरिन कौ उर-साल।।
सूर
कितौ सुख पावत लोचन, निरखत घुटुरुनि चाल।
झारत
रज लागै मेरि अँखियन, रोग-दोष-जंजाल।।
(धनाश्री, २०, १६/११)
३
अब
हौं नाच्यो बहुत गोपाल।
काम-क्रोध
कौ पहिरी चोलना, कंठ विषय की माल।।
महामोह
के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
भरम
भरयो मन भयो पखावज, चालत कुसंगति चाल।।
तृसना
नाद करति घट अंतर, नानाविधि दै ताल।
माया
कौ कटि फेंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल।।
कोटिक
कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास
की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल।।
(धनाश्री)
४
कहन
लागे मोहन मैया-मैया।।
नन्द
महर सों बाबा-बाबा, अरु हलधर सों भैया ।।
ऊँचे
चढ़ि-चढ़ि कहति जसोदा, लै-लै नाम कन्हैया।
दूरि
खेलन जनि जाहू लला रे, मारेगी काहू की गैया।।
गोपी-ग्वाल
करत कौतूहल, घर-घर बजति बधैया।
सूरदास
प्रभु तुम्हरे दरस कौ, चरननि की बलि जैया।।
(देवगंधार)
५
मैया,
मै तो चन्द्र खिलौना लैहों।
जैहों
लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं।।
सुरभी
कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वहौं
पूत नन्द बाबा कौ, तेरौ सुत न कहैहौं।।
आगे
आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
हँसि
समुझावति, कहति जसोमति, नई दुल्हनिया दैहौं।।
तेरी
सौं, मेरी सुनि मैया, अबहि बियाहन जैहौं।
सूरदास
ह्वै कुटिल बाराती, गीत सुमंगल गैहौं।।
(केदारौ) ७७
६
मैया,
कबहि बढ़ेगी चोटी।
किती
बार मोहि दूध पिबत भई, यह अजहू है छोटी।।
तू
तो कहति बल की बैनी ज्यों, ह्वै है लांबी-मोटी।
काढत-गुहत,
न्हवावत-ओंछ्त, नागिन-सी भुंई लोटी।।
काचो
दूध पिवावति पचि-पचि, देत न माखन-रोटी।
सूर-स्याम
चिरजीव दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी।।
(रामकली)
७
ऊधौ,
मन नाहीं दस-बीस।
एक
हुतो सो गयो स्याम-सँग, को अवराधे ईस।।
सिथिल
भईं सबहीं माधौ बिनु, जथा देह बिनु सीस।
स्वासा
अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस।।
तुम
तौ सखा श्यामसुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास,
रसिकन की बतियाँ, पूरवौ मन जगदीस।।
(रामकली)
८
चरन
कमल बंदौ हरि राई।
जाकी
कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर को सब कछु दरसाई।।
बहिरो
सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चलै सर छत्र धराई।
सूरदास
स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौ तेहि पाई।।
(बिलावल)
९
अबिगत
गति कछु कहति न आवै।
ज्यों
गूंगो मीठे फल को रस, अंतर्गत ही भावै।।
परम
स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन
बनी को अगम अगोचर, सो जाने जो पावै।।
रूप
रेख गुन जाति जुगति बिनु, निरालम्ब मन चकृत धावै।
सब
बिधि अगम बिचारहिं तातों, सूर सगुन लीला पद गावै।।
(बिलावल)
१०
अँखियाँ
हरि दरसन की भूखी।
कैसे
रहें रूप-रस रांची, ये बतियाँ सुनि रूखी।।
अवधि
गनत इकटक मग जोवत, तब ये तौ नहीं भूखी।
अब
इन जोग संदेसनी ऊधो, अति अकुलानी दूखी।
बारक
वह मुख फेरी दिखावहु, दुही पे पीवत पतूखी।
सूर,
जोग जनि नाव चलावहु, ये सरिता है सूखी।।
(राग- तोड़ी)
११
महराज
भवानी, ब्रह्म्भुवन की रानी।
आगे
शंकर तांडव करत हैं, भाव करत शूलपानी।।
सुर-नर-गन्धर्व
की भीड़ भई है, आगे खड़ा दंडपानी।
‘सूरदास’
प्रभु पल-पल निरखत, भक्तवत्सल जगदानी।।
१२
उधौ!
मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।
हंससुता
की सुन्दर कगरी, अरु कुंजन की छाँहीं।।
वे
सुरभी, वे बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं।
ग्वाल-बाल
सब करत कुलाहल, नाचत गहि-गहि बाहीं।।
यह
मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं।
जबहिं
सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तनु ताहीं।।
अनगन
भांति करी बहु लीला, जसुदा नन्द निबाहीं।
सूरदास
प्रभु रहे मौन ह्वे, यह कहि-कहि पछिताहीं।।
..........................................................
तुलसी
१
गाइए
गनपति जगबंदन। संकर-सुवन भवानी-नंदन।।
सिद्धि-सदन,
गज-बदन, बिनायक।
कृपा-सिन्धु,
सुन्दर, सब-लायक।।
मोदक-प्रिय,
मुद-मंगल-दाता।। बिद्या-बारिधि, बुद्धि-बिधाता।।
मांगत
तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे।।
(१६/१६, राग बिलावल)
२
मंगल-मूरति
मारुत-नंदन। सकल-अमंगल-मूल-निकंदन।।
पवनतनय
संतन-हितकारी। ह्रदय बिराजत अवध-बिहारी।।
मातु-पिता,
गुरु, गनपति, सारद। सिवा-समेत संभु, सुक, नारद।।
चरण
बंदी बिनवौं सब काहू। देहु रामपद-नेह-निबाहू।।
बंदौ
राम-लखन-बैदेही। जे तुसली के परम सनेही।।
-राग गौरी, १६/१६ (४९)
३
श्रीराम
चन्द्र कृपाल भजु मन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज-लोचन
कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं।।
कंदर्प
अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुन्दरं।
पटपीत
मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनकसुतावरं।।
भजु
दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकन्दनं।
रघुनंद
आनंदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं।।
सिर
मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानुभुज
शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं।।
इति
वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम
हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं।।
(राग गौरी, 28/28)
४
जाँचिये
गिरिजापति कासी। जासु भवन अनिमादिक दासी।।
औढर-दानि
द्रवत पुनि थोरे। सकत न देखि दीन करजोरें।।
सुख-सम्पति,
मति-सुगति सुहाई। सकल सुलभ संकर-सेवकाई।।
गये
सरन आरतीकै लीन्हे। निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे।। तुलसिदास जाचक जस गावै।। बिमल
भगति रघुपति की पावै।।
-राग रामकली, १६,१६ (पृष्ठ १५)
५
ऐसो
को उदार जग माही।
बिनु
सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोई नाही।।
जो
गति जोग बिराग जतन करि, नहिं पावत मुनि ज्ञानी।
सो
गति देत गीध सबरी कहँ, प्रभु न बहुत जिय जानी।।
जो
सम्पति दस सीस अरप करि, रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो
सम्पदा विभीषण कहँ अति, सकुच-सहित हरी दीन्हीं।।
तुलसिदास
सब भांति सकल सुख, जो चहसी मन मेरो।
तौ
भजु राम, काम सब पूरन, करैं कृपानिधि तेरो।।
(राग सोरठ, १६, १६/१२, पृष्ठ १६२)
........................................................................
विविध
रैदास
अब
कैसे छूटै राम रट लागी।
प्रभु
जी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग-अंग वास समानी।।
प्रभु
जी तुम घन बन, हम मोरा। जैसे चितवत चन्द चकोरा।।
प्रभु
जी तुम दीपक, हम बाती। जाकी जोत बरै दिन राती।।
प्रभु
जी तुम मोती, हम धागा। जैसे सोने मिलत सुहागा।।
प्रभु
जी तुम स्वामी, हम दासा। ऐसी भगति करै रैदासा।।
ब्रह्मानंद
१
जय
दुर्गे दुर्गतिपरिहारिणी, शुंभविदारिणी मात भवानी।।
आदिशक्ति
परब्रह्मस्वरूपिणी, जगजननी चहुँ वेदबखानी।
ब्रह्मा
शिव रही अर्चन कीनो,ध्यान धरत सुर-नर-मुनि ज्ञानी।।
अष्टभुजा
कर खड्ग विराजे, सिंह सवार सकल वरदानी।
‘ब्रह्मानंद’
शरण में आयो, भवभय नाश करो महरानी।।
२
जय
जगदीश्वरी मात सरस्वती, शरणागत प्रतिपालनहारी।।
चंद्रबिंबसम
वदन विराजे, शीशमुकुट माला गलधारी।
वीणा
वाम अंग में शोभे, सामगीत ध्वनि मधुर पियारी।।
श्वेतबसन
कमलासन सुन्दर, संग सखी सुभ हंससवारी।
‘ब्रह्मानंद’
मैं दास तुमारो, दे दर्शन परब्रह्म दुलारी।।
(नोट-
इस पद को भी पं० भीमसेन जोशी ने गाया है, जिसको ‘म्यूजिक टुडे’ ने अपनी
‘भक्तिमाला’ सीरीज में रिकॉर्ड कर कैसेट
संख्या डी-92005 में प्रस्तुत किया है.)
महाराजा
जयवंत सिंह रणमल सिंह वाघेला सानंद
पुनीत
पद पंकजा, श्री कामेश्वर अंकजा
मनु
कोटी परायणी, निरंजनी नारायणी।।
श्रीणी
पाश शरचापिनी, असुर व्युत्थापिनी।
सुरराज
संस्थापिनी, निरंजनी नारायणी।।
श्री
कलिका कर्पदिनी, माँ महिषासुर मर्दिनी।
करुनामय
कात्यायनी, निरंजनी नारायणी।।
सर्वमुख
रंजनी, गर्वदनू गंजनी
माँ
भक्तभयभंजनी निरंजनी नारायणी।।
(नोट-
इस पद को पं० जसराज ने गाया है, जिसको ‘म्यूजिक टुडे’ ने अपनी ‘भक्तिमाला’ सीरीज में
रिकॉर्ड कर कैसेट संख्या डी-92006 में प्रस्तुत किया है.)
संगीत
सम्राट तानसेन
महाकाल
महादेव धूर्जटी शूली
पंचवदन
प्रसन्ननेत्र।
परमेश्वर
परात्पर महाजोगी महेश्वर परमपुरुष
प्रेममय
पराशंतिदाता।।
सरितागन
भिन्न-भिन्न पंथ जैसे आवत
सिन्धु
पाइ रहत मगन।
‘तानसेन’
कहै तैसे भगत भिन्न-भिन्न
धर्मन
उपासति एक ही ब्रम्ह पावन।।
शंकर
पंचबदन पन्नगभूषण।
पारवती
के रमणधन शुभदर्सन।।
देव-देव
वेदन के तुम दाता
मत्त
चतुर को अब शुद्ध करो मन।।
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