राजेन्द्र वर्मा की छोटी बहर में 25 हिंदी ग़ज़लें
००
1
प्रेम-ही-प्रेम
जिसके हृदय,
उसके
लेखे सभी ईशमय ।
सत्य-करुणा-क्षमा
जिसमें है,
उसके
सम्मुख हुआ नत अनय ।
दासता
जो नहीं मानता,
पक्ष
में उसके होता समय ।
प्रेमवश
जो पराजित हुआ,
उसकी
होती सदा ही विजय ।
जो
मृदुल भाव छकता नहीं,
उसके
हिस्से में है तल्ख़ मय ।
वह
तो रहता हमेशा है थिर,
एक
संभ्रम है, रवि का उदय ।
रस
है आत्मा अगर काव्य की,
छन्द
से ही सुरक्षित है लय ।
2
पौध रोपी, जगी मन में
आस,
प्रेम के पुष्प देंगे सुवास ।
प्रेम के पुष्प देंगे सुवास ।
लाख कोशिश करे कालिमा,
भोर होगी, खिलेगा उजास ।
भोर होगी, खिलेगा उजास ।
श्याम घन, दामिनी राधिका,
नभ में किसने रचाया ये रास !
नभ में किसने रचाया ये रास !
मेघ बरसे, नहायी धरा,
बुझ रही है चराचर की प्यास ।
बुझ रही है चराचर की प्यास ।
धूप हो या कि हो चाँदनी,
स्याह मन को न भाता है भास ।
स्याह मन को न भाता है भास ।
मुँह
फुलाये हैं बच्चे मगर,
फूट पड़ने को है मुख पे हास ।
फूट पड़ने को है मुख पे हास ।
माँ का
दिल फिर उछलने लगा,
देख बच्चों को फिर अपने पास ।
देख बच्चों को फिर अपने पास ।
हीर-राँझा
की बातें चलीं,
स्निग्ध मन छोड़ता उच्छ्वास ।
स्निग्ध मन छोड़ता उच्छ्वास ।
आज फिर हो
रही है ग़ज़ल,
महके-महके हुए मेरे श्वास ।
महके-महके हुए मेरे श्वास ।
3
प्रेम का पुष्प ज्यों-ही खिला,
प्राण-उपवन सुरभि से भरा ।
आत्म दर्पन-सरीखा हुआ,
मन मुदित हो सँवरने लगा ।
देह ज्यों रंगशाला हुई,
आत्मसंगीत मधुरम् बजा ।
इन्द्रियाँ देने संगत लगीं,
मन मेरा नृत्यरत हो गया ।
दृष्टि लौकिक नहीं रह गयी,
उठ गयी झूठ की यवनिका ।
कामनाएँ स्वयं तृप्त हैं,
कोई मुझमें अवस्थित हुआ ।
4
तव
प्रणति में हूँ,
आत्मरति
में हूँ ।
हृद
मेरा विस्तृत,
मैं
सुमति में हूँ ।
दीखता
हूँ स्थिर,
किन्तु
गति में हूँ ।
काव्य
की लय हूँ,
गति
में, यति में हूँ ।
बन्ध
बहुतेरे,
पर
प्रगति में हूँ ।
5
हमको
सत्पथ पर चलना है,
संसृति
के हित में ढलना है ।
तू
सूरज है, तपना तुझको,
तुझसे
ही जग को पलना है ।
अँधियारा
पलता दीप-तले,
बाती
को फिर भी जलना है ।
आती-जाती
साँसें कहतीं,
जीवन
के माने चलना है ।
सुन्दर
हो या कि असुन्दर हो,
तन
आख़िर मुंदना-जलना है ।
है
वर्त्तमान अनुकूल नहीं,
जैसे
हो, इसे बदलना है ।
6
कुछ
लोग लीक पर चलते हैं,
कुछ
से नवपंथ निकलते हैं ।
उनको
ही लक्ष्य मिला करता,
जो
सही राह पर चलते हैं ।
लौ
से लौ लगी पतंगों की,
लौ
पर गिर-गिरकर जलते हैं ।
अँधियारे
तो अँधियारे हैं,
वे
दीप-तले भी पलते हैं ।
विश्वास
नहीं होता, लेकिन
रिश्तों
के अर्थ बदलते हैं ।
सपने
पलकों पर पलने दे,
वे
ही सच बनकर ढलते हैं ।
7
जिसका
अन्तर्मन विस्तृत है,
वह
तो सर्वत्र समादृत है ।
जिसकी
वाणी में अमृत भरा,
वह
तो हर युग में उद्धृत है ।
जिसके
उर में संवेदन है,
उससे
यह संसृति उपकृत है ।
है
स्वार्थपूर्ति जिसका दर्शन,
वह
तो जीवित होकर मृत है ।
उसको
मेरा शत-शत वन्दन,
जिसकी
भी आत्मा जागृत है ।
मंथन
से दोनों ही निकले,
पहले
विष, पीछे अमृत है ।
8
जब
भी दुख-दर्द सताते हैं,
हम
उनके गीत बनाते हैं ।
जब
भी समझाना होता है,
हम
ख़ुद को ही समझाते हैं ।
मन
रे! तू क्यों न समझता है,
झूठे
सब रिश्ते-नाते हैं ।
औरों
में कमियाँ देखीं तो,
ख़ुद
में भी कमियाँ पाते हैं ।
भोलेपन
में आनन्द बड़ा,
भोले
शिशु यही सिखाते हैं ।
शायद
हमसे ही पूरे हों,
हमको
ही सपने आते हैं ।
यह
दुनिया जैसे हो सराय,
राही
आते हैं, जाते हैं ।
9
यद्यपि
सम्बन्ध पुराने हैं,
फिर
भी हम ज्यों अनजाने हैं ।
वे
हमको भले न पहचानें,
पर
ख़ुद जाने-पहचाने हैं ।
रिश्तों
के धागे मत उलझा,
तुझको
ही फिर सुलझाने हैं ।
मरने
का कारन एक मगर,
जीने
के लाख बहाने हैं ।
हैं
जन्म-मृत्यु ऐसे पड़ाव,
जीवन
के पथ में आने हैं ।
दुनिया
के काम नहीं आये,
फिर
जीवन के क्या माने हैं ?
हम
कितना भी जानें, लेकिन
जीवन
के पंथ अजाने हैं ।
10
जब
तक हृदयों में दूरी है,
मेरी
हर ग़ज़ल अधूरी है ।
कोमल
कल्पना न मर जाये,
सपने
देखना ज़रूरी है ।
शायद
कोई रस्ता निकले,
चुप्पी
टूटनी ज़रूरी है ।
वाणी
का कोई काम नहीं,
हर
बात दृगों से पूरी है ।
अपनी
शर्तों पर जीने की
मिल
गयी मुझे मंज़ूरी है।
हम
एक किन्तु हैं अलग-अलग,
यह
दोनों की मजबूरी है ।
11
तू
अकेला है तो’ क्या,
है
अकेला भी ख़ुदा !
आत्म
का सिंगार कर,
स्वप्न
पलकों पर सजा ।
यदि
प्रभंजन उठ रहा,
नाव
लहरों से चला ।
हर
तिमिर छँट जाएगा,
शर्त
है, ख़ुद को जला ।
दुश्मनी
का ही सही,
कोई
तो रिश्ता निभा ।
तू
नहीं कमज़ोर है,
अपना
बोझा ख़ुद उठा ।
ध्येय
तेरा है पृथक,
पंथ
अपना ख़ुद बना ।
कौन
सुनता है तेरी,
क्यों
करे शिकवा-गिला !
12
मन
में जब निश्चय होता है,
संकल्प
हिमालय होता है ।
विश्वास
अटूट रहे तो फिर,
आस्था
से परिणय होता है ।
छाती
पर घाव सहे जाते,
चरणों
में अनुनय होता है ।
विष
पीकर भी अमरत्व मिले,
यह
सुनकर विस्मय होता है ।
असफलता
घेरे रहे अगर,
ईर्ष्या
से परिचय होता है ।
भौतिकता
के हाथों पड़कर
मन
का क्रय-विक्रय होता है ।
13
अवसर
लहिए,
सच
को गहिए ।
जीवन
गतिमय,
चलते
रहिए ।
समय
एक नद,
उसमें
बहिए ।
जो
कहना है,
ख़ुद
को कहिए ।
सुख
चाहें तो,
दुख
भी सहिए ।
लौ
की ख़ातिर
दीपित
रहिए ।
14
अमा
की’ रात है,
बिछी
बिसात है ।
जिसे
भी देखिए,
लगाये
घात है ।
सँभल
के खेलिए,
नहीं
तो मात है ।
कपाट
जब खुलें,
तभी
प्रभात है ।
हृदय
में वह बसा,
प्रफुल्ल
गात है ।
दिलों
में दर्द है,
ख़ुशी
की बात है ।
ख़ुशी
के साथ ग़म,
यही
हयात है ।
15
पथसृजन
की बात हम करते रहे,
लीक
के रक्षार्थ भी मरते रहे ।
रौशनी
की चाह भी करते रहे,
किन्तु
परछाई से भी डरते रहे ।
एकलव्यों
के अँगूठे काटकर
द्रौण
के चरणों में हम धरते रहे ।
ज़िन्दगी
का ऋण न चुकता हो सका,
स्वार्थपरता
का कुँआ भरते रहे ।
धर्म
का जो मर्म था, जाना नहीं,
धर्मग्रन्थों
का पठन करते रहे ।
एक
दिन भी जी न पाये चैन से,
मोक्ष
की चिन्ता में ही मरते रहे ।
16
धर्म
हैं जितने, ये उनका मर्म है,
प्रेम
से रहना ही सच्चा धर्म है ।
सत्य
का कोई नहीं ग्राहक यहाँ,
झूठ
का बाज़ार लेकिन गर्म है ।
विषधरों
का ताप इतना बढ़ गया,
चन्दनी
तासीर भी अब गर्म है ।
राम
से बेहतर भला जानेगा कौन,
छद्मवेशी
का सुनहला चर्म है !
आदमी
के कारनामे देखकर,
शर्म
को भी आ रही अब शर्म है ।
हम
भले ही आँख उससे फेर लें,
किन्तु
हमको ज्ञात, क्या निज धर्म है !
तू
पुकारे दैव आख़िर किसलिए,
दैव
तो तेरा-ही संचित कर्म है ।
17
दीप-बाती
सरीखी रही ज़िन्दगी,
लौ
हमेशा लुटाती रही ज़िन्दगी ।
दूब-जैसी
रही नित्य पैरों-तले,
शीश
तो भी उठाती रही ज़िन्दगी ।
लाख
तूफ़ान आया लिये कालिमा,
ज्योत्स्ना
को बचाती रही ज़िन्दगी ।
अश्रु
पीती रही, घाव सीती रही,
आस
की साध जैसी रही ज़िन्दगी ।
श्वास
तो है फँसा राग के वृत्त में,
किन्तु
गाती मुझे ही रही ज़िन्दगी ।
18
युग-युगान्तर चल रहा है क्रम यही,
शिव के हिस्से में लिखा विष-पान ही ।
सूर्य को पल भर नहीं विश्राम है,
भोर-दुपहर-साँझ होती ही रही ।
पुष्प के रक्षार्थ ही कण्टक उगा,
पर उपेक्षा ही सदा उसने सही ।
चित्र गाँधी का टँगा दीवार पर,
बात गाँधी की भला किसने गही?
भोर तक बातें बहुत होती रहीं,
बात फिर भी रह गयी है अनकही ।
दर्पणों से क्या करें परिवाद हम,
क्यों न बदलें हम स्वयं को आज ही ?
पृष्ठ तक उसका नहीं खोला गया,
जन्म-भर यद्यपि लिखी हमने बही ।
19
श्वास में उत्कृष्टता भरते हैं हम,
विश्वव्यापी दैन्य को हरते हैं हम ।
दान देते हैं सदा पीयूष का,
मर्त्य में अमरत्व को भरते हैं हम ।
देव-दानव जी सकें दोनों यहाँ,
इसलिए विषपान भी करते हैं हम ।
प्राकृतिक हो, या कि मानवजन्य हो,
आपदा में धैर्य को धरते हैं हम ।
अस्मिता के रक्ष का यदि प्रश्न हो,
प्राण न्यौछावर किया करते हैं हम ।
20
चन्दनी चरित्र हो गया,
मैं सभी का मित्र हो गया ।
जिन्दगी सँवर गयी मेरी,
प़फूल से मैं इत्र हो गया ।
पूर्णिमा है, ज्वार उठ रहा,
सिन्धु-सा चरित्र हो गया ।
रश्मियों के नैन हैं सजल,
इन्द्रधनु सचित्र हो गया ।
कामना की पूर्ति हो गयी,
मन मेरा पवित्र हो गया ।
आत्मा विदेह हो गयी,
पंचतत्त्व चित्र
हो गया ।
21
तोता ‘राम-राम’ कहता है,
लेकिन पिंजरे में रहता है ।
एक बार चोटी से उतरा,
दरिया जीवन-भर बहता है ।
सबके घर का भेद जानकर
सूरज रातोदिन दहता है ।
आभूषण बनने को सोना
कितनी ही चोटें सहता है !
वृद्ध खींचता है जब रिक्शा,
रक्त स्वेद बनकर बहता है ।
मैं तो केवल लिख लेता हूँ,
जाने कौन शे’र कहता है !
22
गोलियाँ खाता जो सीमा-पार है,
उसको भी अपनी धरा से प्यार है ।
दूसरों पर जीत मुश्किल से मिले,
पर स्वयं को जीतना दुश्वार है ।
झूठ जब से मुंसिफी करने लगा,
सत्य के हिस्से में कारागार है ।
आप मानें या न मानें, सच यही,
झूठ को भी सत्य ही दरकार है ।
मेरी स्मृति में आप रहते हैं सदा,
विस्मरण का आपको अधिकार है ।
हो रही हो यदि मनुजता की विजय,
फिर पराजय भी मुझे स्वीकार है ।
23
हो चाहे जितनी कठिनाई,
हम नहीं छोड़ते सच्चाई ।
हम तो केवट के वंशज हैं,
लीजिए, छोड़ दी उतराई !
जब औरों को उठने देगा,
तू भी पायेगा ऊँचाई ।
आतप की भेंट चढ़ गया जल,
हँस रही सरोवर में काई !
जब आता है अनुकूल समय,
पर्वत भी होता है राई ।
सुनता हूँ, तू सबकी सुनता,
कब होगी मेरी सुनवाई ?
24
जो स्वतन्त्र है, वह बोलेगा,
पराधीन क्या मुँह खोलेगा ?
पराधीन क्या मुँह खोलेगा ?
एक बार आकाश मिले तो,
वह भी अपने पर तोलेगा ।
वह भी अपने पर तोलेगा ।
अभी बहुत मधु घोल रहा
है,
अवसर पाकर विष घोलेगा ।
अवसर पाकर विष घोलेगा ।
जनहित में अपने हाथों
को,
बहती गंगा में धो लेगा ।
बहती गंगा में धो लेगा ।
थू-थू होती है, हो जाये,
वह भी परम्परा ढो लेगा ।
वह भी परम्परा ढो लेगा ।
जैसे सब सोते आये हैं,
पाँच बरस वह भी सो लेगा ।
पाँच बरस वह भी सो लेगा ।
भेड़-वेश में कुटिल
भेड़िया
भेड़ों में शामिल हो लेगा ।
भेड़ों में शामिल हो लेगा ।
25
ख़ुद
को भूमिपुत्र कहता है,
लेकिन
अम्बर में रहता है ।
तड़प-तड़प
जाता माँ का दिल,
नयी-नयी
चोटें सहता है ।
यादों
का सिलसिला न थमता,
दिल
में बसा ढूह ढहता है ।
कैसा
सूरज लोकतंत्र का,
आतप-शीत,
सदा दहता है ।
मगरमच्छ
दो अश्रु बहाकर
बरसों
लहालोट लहता है ।
बात
ग़रीबों की वह करता,
हाथ
अमीरों का गहता है ।
हाथ
न आता वह फ़क़ीर के,
यों
ख़ुद को फ़क़ीर कहता है ।
लामबन्द
हो रहीं हवाएँ,
दीपक
सहमा-सा रहता है ।
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