कोरोना काल में राजेन्द्र वर्मा के तीन नवगीत
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(1)
पीठ पर माँ
बेटा माँ को लाद पीठ पर
चला गाँव को ।
देश बंद है, ख़त्म हुआ
सब दाना पानी,
दो रोटी देने में भी
काँखे रजधानी,
रेल-बसें सब
हक्का-बक्का खड़ी हुई हैं,
अब तो चलते ही रहना,
रुकना न पाँव को ।
सत्ता दुबकी-दुबकी बैठी
चिन्तन करती,
चोर-शाह का खेल खेलती,
झोली भरती,
कोरोना सबकी छाती पर
मूँग दल रहा,
मात दे रहे मास्क-मुखौटे
काँव-काँव को ।
कैसे भी, अब तो
काले कोसों चलना है,
रस्ते में ही सूरज को
उगना-ढलना है,
थके-थके पाँवों में
छाले उभर रहे हैं,
देखो, कब तक चले ज़िंदगी
बिना छाँव के ॥
(2)
तुम कुछ भी कर लो
अब ये अर्दब में न रहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।
मोहभंग हो गया सभी का,
घूम गया है सर,
अब ये जाकर ही मानेंगे
अपने-अपने घर,
धारा के सँग नहीं बहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।
शहरी मॉडल फ़ेल हुआ,
यह सबने जान लिया,
कंधों पर अब जुआ नहीं,
यह सबने ठान लिया,
माची में भी नहीं नहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।
हाथों की टूटी लकीर ले
जन्मे थे लेकिन,
तुमने भी तो बड़े जतन से
टाँक दिये दुर्दिन,
क़िस्मत की अब ये न सहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।।
(3)
कुछ भला भी है
यों, तबाही है बहुत,
पर, कुछ
भला भी है ।
आदमी बंदी बना
घर में रहे ऐसे,
पंख बिंध जाएँ अगर,
पंछी उड़े कैसे,
मन विकल है,
पर, सहज पथ पर
चला भी है ।
स्वच्छ गगनाँचल टँके
झिलमिल करें तारे,
स्वच्छ निर्मल नीर
सरिताएँ हृदय धारे,
पवन साक्षी,
धूम्र का परबत
गला भी है ।
आपदा बाना नया
धरकर सदा आती,
किस तरह जीवन जियें,
यह सीख दे जाती,
दुःख से ऊबा समय
सुख में
ढला भी है ॥
००
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