शनिवार, 9 मई 2020



कोरोना काल में राजेन्द्र वर्मा के तीन नवगीत
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(1)

पीठ पर माँ

बेटा माँ को लाद पीठ पर
चला गाँव को ।

देश बंद है, ख़त्म हुआ
सब दाना पानी,
दो रोटी देने में भी
काँखे रजधानी,

रेल-बसें सब
हक्का-बक्का खड़ी हुई हैं,
अब तो चलते ही रहना,
रुकना न पाँव को ।

सत्ता दुबकी-दुबकी बैठी
चिन्तन करती,
चोर-शाह का खेल खेलती,
झोली भरती,

कोरोना सबकी छाती पर
मूँग दल रहा,
मात दे रहे मास्क-मुखौटे
काँव-काँव को ।

कैसे भी, अब तो
काले कोसों चलना है,
रस्ते में ही सूरज को
उगना-ढलना है,

थके-थके पाँवों में
छाले उभर रहे हैं,
देखो, कब तक चले ज़िंदगी
बिना छाँव के ॥

(2)
तुम कुछ भी कर लो

अब ये अर्दब में न रहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।

मोहभंग हो गया सभी का,
घूम गया है सर,
अब ये जाकर ही मानेंगे
अपने-अपने घर,

धारा के सँग नहीं बहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।

शहरी मॉडल फ़ेल हुआ,
यह सबने जान लिया,
कंधों पर अब जुआ नहीं, 
यह सबने ठान लिया,

माची में भी नहीं नहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।


हाथों की टूटी लकीर ले
जन्मे थे लेकिन,
तुमने भी तो बड़े जतन से
टाँक दिये दुर्दिन,

क़िस्मत की अब ये न सहेंगे,
तुम कुछ भी कर लो ।।

(3)
कुछ भला भी है

यों, तबाही है बहुत, 
पर, कुछ
भला भी है ।

आदमी बंदी बना
घर में रहे ऐसे, 
पंख बिंध जाएँ अगर, 
पंछी उड़े कैसे,

मन विकल है,
पर, सहज पथ पर
चला भी है ।

स्वच्छ गगनाँचल टँके
झिलमिल करें तारे,
स्वच्छ निर्मल नीर
सरिताएँ हृदय धारे,

पवन साक्षी,
धूम्र का परबत
गला भी है ।

आपदा बाना नया
धरकर सदा आती,
किस तरह जीवन जियें,
यह सीख दे जाती,

दुःख से ऊबा समय
सुख में
ढला भी है ॥
००

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