शनिवार, 9 मई 2020

निबंध

                                                कवियों की दृष्टि में वसंत
                                                                                                                  - राजेन्द्र वर्मा

वसंत वैसे तो छह ऋतुओं में से एक है, पर उसका स्थान सर्वोपरि है। उसे ऋतुराज कहा गया है। पतझर के बाद डाली-डाली पर नव किसलय नवजीवन का आभास कराते हैं। विहँसते हुए आम के बौर, फूलती हुई सरसों और रंग-बिरंगे फूलों पर मँडराते हुए भौंरे जहाँ वसंत के स्वागत में आतुर दिखायी देते हैं, वहीं आकाश में पंछियों का कलरव उसका स्वागत-गान करते से लगते हैं। शीतल-मंद-समीरण तन-मन में स्फूर्ति भरने लगता है।...  ऐसा मोहक और मादक परिवेश भला कवियों से कैसे अछूता रह सकता है! आइए, ऋतुराज के सौंदर्य को हिंदी कवियों की दृष्टि से देखें—

        अमीर खुसरो ने हिंदवी या हिंदी में रचनाओं से हमारी भाषा को समृद्ध किया है। उन्होंने विविध विषयों पर विविध विधाओं में काव्य-रचनाएँ कीं । वसंत के आगमन पर उनकी एक रचना, ‘सगन बिन फूल रही सरसों’ लौकिक और अलौकिक सिंगार का आनंद देती है—

सगन बिन फूल रही सरसों ।

अम्बवा फूटे, टेसू फूले,
कोयल बोले डार-डार,
और गोरी करत सिंगार,
मलनियाँ गुंदवा ले आईं कर सों ।
सगन बिन फूल रही सरसों ।
तरह तरह के फूल खिलाए,
ले गुंदवा हाथों में आए,
निज़ामुदीन के दरवज़्ज़े पर,
आवन कह गए आशक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सगन बिन फूल रही सरसों ।

जायसी ने अपने ग्रंथ, ‘पद्मावत’ में वसंत का सुंदर चित्रण किया है। सम्बंधित चौपाइयाँ और एक दोहा देखिए—

प्रथम वसंत नवल ऋतु आई । सुऋतु चैत बैसाख सोहाई ॥
चंदन चीर पहिरि धरि अंगा । सेंदुर दीन्ह बिहँसि भरि मंगा ॥
कुसुम हार और परिमल बासू । मलयागिरि छिरका कबिलासू ॥
सौंर सुपेती फूलन डासी । धनि औ कंत मिले सुखबासी ॥
पिउ सँजोग धनि जोबन बारी । भौंर पुहुप संग करहिं धमारी ॥
होइ फाग भलि चाँचरि जोरी । बिरह जराइ दीन्ह जस होरी ॥
धनि ससि सरिस, तपै पिय सूरू । नखत सिंगार होहिं सब चूरू ॥
        जिन्ह घर कंता ऋतु भली, आव बसंत जो नित्त ।
     सुख भरि आवहिं देवहरै, दुःख न जानै कित्त ॥

        रीतिकालीन कवि बिहारी के दोहों की सामर्थ्य से तो हम सभी परिचित हैं, पर उनके सवैया भी कुछ कम नहीं हैं। वसंत पर उनका एक सवैया देखिए—

बौरसरी मधुपान छक्यौ, मकरन्द भरे अरविन्द जु न्हायौ ।
माधुरी कुंज सौं खाइ धका, परि केतकि पाँडर कै उठि धायौ ।
सौनजुही मँडराय रह्यौ, बिनु संग लिए मधुपावलि गायौ ।
चंपहि चूरि गुलाबहिं गाहि, समीर चमेलिहि चूँवति आयौ ।।

         कवि सेनापति के मनोहर कवित्तों से भला कौन चमत्कृत नहीं होता ! उनकी भाषा और छंद सौष्ठव आज के कवित्त रचयिताओं के मानक हैं। उनकी लेखनी से निसृत वसंतागमन का दृश्य देखिए—

        लाल-लाल टेसू फूलि रहे हैं विलास संग, श्याम रंग भई मानो मसि में मिलाये हैं ।
तहाँ मधु काज आइ बैठे मधुकर पुंज, मलय पवन उपवन-वन धाये हैं । 
सेनापति माधवमहीना में पलास तरु, देखि-देखि हाव कविता के मन आये हैं ।
आधे अंग सुलगि-सुलगि रहे आधे मानो, बिरही दहन काम क्वैला परचाये हैं ॥

सैयद मुबारक़ की ब्रजमिश्रित भाषा की मिठास उनके सवैये और कवित्तों में अलग से दिख जाती है। वसंत पर उनका एक सवैया—

गूँजेगे भौंर पराग भरे बन, बोलेंगे चातक औ पिक गाइकै ।
फूलेंगे टेसू कुसुंभ जहाँ लग दौरेगो काम कमान चढ़ाइके ।
पौन बहेगी सुगंध मुबारक लागेगी ही में सलाग सी आइके ।
मेरो मनायो न मानेगी भामिनी, ऐसे बसंत लै जैहै मनाइके ॥

  ‘अमी हलाहल मद भरे’ जैसे दोहे के रचयिता, रससिद्ध और अलंकृत काव्य के लिए प्रसिद्ध कवि, रसलीन के कवित्त में वसंत का चित्र—

आवत वसंत तरुनाई तरु तरुनी के, बात-गात अरुनाई दौरत पुनीत है ।
विकसैं सुमन मन सफल उरोज होत, भवन भँवर मन राख रसप्रीत है ।
घोरो कंठ भास बास अंग-अंग कै सुबास, परम प्रकास कर लेत प्रान जीत है ।
रति बीस किये ते न भावैं रसलीन दोऊ, जोबन की रीति सोई जो बन की रीति है ॥

काव्यालंकार के क्षेत्र में कवि पद्माकर का वसंत पर यह कवित्त हम प्रायः पढ़ते-सुनते आये हैं—

कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में, क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है ।
कहै पद्माकर परागन में पौनहू में, पातन में पिक में पलासन पगंत है ।
द्वारे दिसान में दुनी में देस-देसन में, देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है ।
बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में, बनन में बागन में बगर्’यो बसंत है ॥

रीतिकाल के प्रतिष्ठित आचार्य कवि प्रताप साहि ने भी अनेक कवित्तों में वसंत का हृदय खोलकर वर्णन किया है। एक का आनंद लीजिए—

सुरभित पौन को प्रसंग पाय दच्छिनतें, आई तुव संग दृग देखन सर समाज ।
कूंजत विहंग अंग आनंद उमंगनमों, तरल तरंगनसों सोभित सलिल साज ।
कहैं ‘परताप’ मड़रात चहुँ ओरनतें, झुकि झपटत लपटत नहीं कौने काज ।
सरस सुगंधयुत अमल अमंद, मकरंद अरविंदको मलिंद क्यों न लेत आज ॥

भारतेन्दु हरिश्चचंद्र के पिता, गिरधरदास अपने समय के प्रसिद्ध कवि-लेखक रहे हैं। आइए, उनका वसंत पर आधारित एक कवित्त देखें, जिसमें उन्होंने होली खेलने की बात भी कही है। शायद उस समय वसंत में भी होली खेलने की प्रथा रही हो—
खेलन को होरी चले प्रथमहिं श्याम, श्याम बौरे नव आम फूली सरसों समंत है ।
पंचमी बसंत रतिकंत को जनमदिन, फैली रितु कंतजू की सुखमा अनंत है ।
‘गिरधरदास’ करेन कोकिला सरस सोर, चारों ओर भौंरन की भी दरसंत है ।
फाग में बसंत, लाल पाग में बसंत; बाल राग में बसंत, बाग-बाग में बसंत है ॥

कवि, सत्यनारायण ‘कविरत्न’ के कवित्त और सवैये भी काव्यालंकार के उदाहरण के रूप में दीखते हैं। आइए, सुंदरी सवैया छंद में उनका वसंत-वर्णन देखें—
मृदु मंजु रसाल मनोहर मंजरी  मोरपखा सिर पै लहरैं ।
अलबेलि नबेलिन बेलिनु में नवजीवन जोति छटा छहरैं ।
पिक भृंग सुगुंज सोई मुरली  सरसों सुभ पीतपटा फहरैं ।
रसवंत विनोद अनंत भरे  ब्रजराज बसंत हिये बिहरैं ॥

भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्य-सर्जना आधुनिक हिंदी कविता की नींव है। उनका एक सवैया देखिए, जिसमें वसंत के पारम्परिक रूप का सरस वर्णन है—

सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहूँ दिसि फूलि रही सरसों ।
बर शीतल-मंद-सुगंध समीर, सतावन हार भयो गर सों ।
अब सुंदर साँवरो नंद किसोर कहैं, 'हरिचंद' गयो घर सों ।
परसों को बिताय दियो बरसों, तरसों कब पाँय पिया परसों ।

हरिऔध जी प्रौढ़ काव्य के लिए जाने जाते हैं। उनकी तत्सम पदावलियाँ हमें हिंदी भाषा की मोहक शक्ति से परिचित कराती हैं। वसंत पर उनकी कविता की चारुता देखते ही बनती है—

चावमय लोचन का है चोर
नवल पल्लवमय तरु अभिराम;
प्रलोभन का है लोलुप भाव,
ललित लतिका का रूप ललाम ।

मनोहरता होती है मत्त
मंजरी-मंजुलता अवलोक;
हृदय होता है परम प्रफुल्ल
कुसुम-कुल-उत्फुल्लता विलोक।

कान में पड़ती है रस-धार
सुने कोकिल का कल आलाप;
रसिकता बनी सरसता-धाम
देखि अलि-कुल का कार्य-कलाप ।

प्रसाद जी  की ‘वसंत’ शीर्षक से एक गीत है जिसमें उन्होंने जीवन-दर्शन का सुंदर वर्णन किया है।  है। उसके कुछ छंदों का आनंद लीजिए—

तू आता है, फिर जाता है ।
जीवन में पुलकित प्रणय सदृश,
यौवन की पहली कांति अकृश,
जैसी हो, वह तू पाता है, हे वसंत! तू क्यों आता है?
पिक अपनी कूक सुनाता है,
तू आता है, फिर जाता है ।
बस, खुले हृदय से करुण कथा,
बीती  बातें, कुछ मर्म व्यथा,
वह डाल-डाल पर जाता है, फिर ताल-ताल पर गाता है ।
मलयज मंथर गति आता है,
तू आता है, फिर जाता है ।
जीवन की सुख-दुख आशा सब,
पतझड़ हो पूर्ण हुई है अब,
विकसित रसाल मुस्काता है, कर किसलय हिला बुलाता है ।
हे वसंत !  क्यों तू आता है ?
तू आता है, फिर जाता है ॥

हिंदी कविता में निराला जी के अवदान से सभी परिचित हैं। उनका एक वसंत-गीत, ‘सखि, वसंत आया’ बहुत प्रसिद्ध है। उसके दो छंदों का आनंद लें—

सखि, वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया ।
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया ।
लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया ।
अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे;
केशर के केश कली के छुटे,
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया ॥

पंत जी प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में जाने जाते हैं । उन्होंने वसंत पर अनेक कविताएँ रची हैं। एक कविता के कुछ अंशों का रसपान करें—

चंचल पग दीपशिखा-से धर

गृह, मग, वन में आया वसंत,
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौंदर्य-शिखाओं में अनंत ।

पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल-रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला ।

आ प्रिये! निखिल ये रंग-रूप
रिल-मिल अंतर में स्वर अनंत,
रचते सजीव जो प्रणय-मूर्ति
उसकी छाया, आया वसंत ।

सुभद्राकुमारी चौहान देशप्रेम की कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी कविता, ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ अद्भुत है। इसके कुछ अंशों का आनंद लें—

आ रही हिमालय से पुकार,
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत !

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत !

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत !

महादेवी वर्मा वेदना को हृदय से गा देने वाली कवयित्री हैं। वसंत-चित्रण में भी वे मन के वैकल्य की अनदेखी नहीं कर पाती। तभी तो उन्होंने वसंत के आगमन को कुछ इस प्रकार देखा—

देव ! देखो मंजरित, सहकार का तरु
गन्ध-मधु-सुरभित, खिला जिसका सुमन-दल,
बैठ जिसमें मधु-गिरा में बोलता यह
लग रहा है हेम-पंजर-बद्ध कोकिल ।

रक्त पल्लव युक्त, आज अशोक देखो,
प्रेमियों के हित सदा जो विरहवर्द्धन,
जान पड़ता दग्ध-ज्वाला से विकल हो,
कर रहे उसमें भ्रमर-के वृन्द कूजन ।

आज उज्ज्वल तिलक-द्रुम को भेंट कर यह
पीतवर्ण रसाल-शाखा यों सुशोभित,
शुभ्र वेशी पुरुष के ज्यों संग नारी
पीत केसर-अंग-रागों से प्रसाधित ।

सद्य ही जिसको निचोड़ा राग के हित
यह अलक्तक कान्ति-शोभा फुल्ल पुरवक,
नारियों की नख-प्रभा से चकित होकर
आज लज्जा–भार से मानो रहा झुक !

जीवन की आपाधापी, विशेषत: नगरीय जीवन ने हमें प्रकृति से दूर कर दिया है। बदलते संदर्भों में कवि मन कि अवस्थाएँ कैसे प्रकट करता है, इसकी बानगी हमें बच्चन जी के यहाँ मिलती है। वे वसंत गाते तो है, पर उनका अंदाज़ एकदम अलग है—

बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आयी !

माना, गाना गानेवाली चि‍ड़ियाँ आयीं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्‍हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आयी !

डार-पात सब पीत पुष्‍पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्‍यों फहराए?
छोड़ नगर की सँकरी गलियाँ,
घर-दर, बाहर आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पियराए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आयी !

प्रयोगवादी कवि, अज्ञेय की काव्य-संवेदना उन्हें अन्य कवियों से पृथक करती है। वसंत के आगमन का चित्रण पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वसंत का आगमन हम पर भी घटित हो रहा हो—

मलयज का झोंका बुला गया
खेलते से स्पर्श से
रोम रोम को कंपा गया
जागो जागो
जागो सखि ! 
वसन्त आ गया जागो !

पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली
टेसुओं की आरती सजा के
बन गयी वधू वनस्थली

स्नेह भरे बादलों से
व्योम छा गया
जागो जागो
जागो सखि !
वसन्त आ गया, जागो !!

नागार्जुन की काव्य-चेतना हमें ऊर्जस्वित करती है। वे अभिधा में भी व्यंजना उत्पन्न कर देते हैं। वसंत पर उनकी कविता के ये अंश कितने मनमोहक हैं—

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं...चूम रही हैं-- कुसुमाकर को!
ऋतुओं के राजाधिराज को !!
इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ...
उद्धित जग की ये किन्नरियाँ
अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा
अनुपम इनमें भरती जाती
ललित लास्य की लोल लहरियाँ !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ !!
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली...।

केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति और नारी सौंदर्य के कवि हैं, परंतु लोक मंगलाशा का भाव भी उनसे नहीं छूटता—
वसंत आया :
पलास के बूढ़े वृक्षों ने / टेसू की लाल मौर सिर पर धर ली ।
विकराल बनखंडी/ लजवंती दुलहिन बन गयी,
फूलों का आभूषण पहन आकर्षक बन गयी ।
अनंग के/ धनु-गुण के भौंरे गुनगुनाने लगे,
आम के अंग/ बौरों की सुगंध से महक उठे,
मंगल गान के सब गायक पखेरू चहक उठे ।

गिरिजाकुमार माथुर की  कविताएँ भले-ही मुक्तछंद विधान में हों, लेकिन वे चित्ताकर्षक होती हैं। वसंत के चित्रण में वे शृंगार रस में ऐसे डूबते-उतराते हैं कि पाठक कवि के मनोभावों की उर्मियों पर तैरने लगता है—

आज हैं केसर रंग रँगे वन
रंजित शाम भी फागुन की
खिली-खिली पीली कली-सी
केसर के वसनों में छिपा तन
सोने की छाँह-सा
बोलती आँखों में
पहले वसन्त के फूल का रंग है।
गोरे कपोलों पे हौले से आ जाती
पहले ही पहले के
रंगीन चुंबन की सी ललाई ।
आज हैं केसर रंग रँगे
गृह द्वार नगर वन
जिनके विभिन्न रंगों में है रँग गई
पूनो की चंदन चाँदनी ।

जीवन में फिर लौटी मिठास है
गीत की आख़िरी मीठी लकीर-सी
प्यार भी डूबेगा गोरी-सी बाहों में
ओठों में, आँखों में
फूलों में डूबे ज्यों
फूल की रेशमी-रेशमी छाँहें ।
आज हैं केसर रंग रंगे वन ।

समकालीन कविता में जनवादी चेतना और प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना करने वाले सर्वेश्वरदयाल सक्सेना वसंत के आगमन को लोकजीवन से जोड़कर किस प्रकार गीत में ढालते हैं, देखने-योग्य है। दो बंधों का अवलोकन करें—
आये महंत वसंत ।
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला,
बैठे किंशुक छ्त्र लगा बाँध पाग पीला,
चँवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत ।
श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात,
कोंपल के मुँदे नयन थर-थर-थर पुलक गात,
अगरु धूम लिये झूम रहे सुमन दिग-दिगंत ।

हिंदी गज़ल को स्थापित करने वाले दुश्यंत कुमार बच्चन के स्वर में स्वर मिलाते हुए संघर्ष से भरी अपनी दिनचर्या में वसंत के आगमन से अपरिचित ही रह जाते हैं—

वसंत आ गया
और मुझे पता नहीं चला ।
नया-नया पिता का बुढ़ापा था
बच्चों की भूख
और/माँ की खांसी से छत हिलती थी,
यौवन हर क्षण
सूझे पत्तों-सा झड़ता था
हिम्मत कहाँ तक साथ देती
रोज मैं सपनों के खरल में
गिलोय और त्रिफला रगड़ता था
जाने कब/आँगन में खड़ा हुआ एक वृक्ष
फूला और फला
मुझे पता नहीं चला...।

नीरज जी प्रेम-गीतों के लिए जाने जाते हैं। शृंगार रस वसंत का नाता जगजाहिर है। वसंत की रात है। नायक अपनी प्रेयसी को सम्बोधित करता है—

आज बसंत की’ रात,
गमन की बात न करना ।

धूप बिछाये फूल–बिछौना,
बग़िया पहने चाँदी–सोना,
कलियाँ फेंके जादू–टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना;
आज बसंत की’ रात,
गमन की बात न करना ।

बौराई अंबवा की डाली,
गदराई गेहूँ की बाली,
सरसों खड़ी बजाये ताली,
झूम रहे जल–जात,
शयन की बात न करना;
आज बसंत की’ रात,
गमन की बात न करना ।

अजहर हाशमी अपने अशआर में वसंत को सद्भावी और जनवादी रूप में देखते हैं—

रिश्तों में हो मिठास तो समझो वसंत है
मन में न हो खटास तो समझो वसंत है ।

आँतों में किसी के भी न हो भूख से ऐंठन
रोटी हो सबके पास तो समझो वसंत है ।

दहशत से रहीं मौन जो किलकारियाँ, उनके
होंठों पे हो सुहास तो समझो वसंत है।
००

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