सोमवार, 18 मई 2020


कविता क्या है
- राजेन्द्र वर्मा

वाणी का सौन्दर्य हमें आकर्षित करता है। किसी लयात्मक उक्ति को पढ़-सुन हमारा हृदय आनन्दविभोर हो उठता है और बुद्धि चाहकर भी उस आनन्द की व्याख्या नहीं कर पाती। ऐसी अभिव्यक्ति कविता तो नहीं ! हम प्रायः सुनते हैं कि सरस, सुमधुर और हृदयस्पर्शी वाक्य ही काव्य है। पर ऐसा तो गद्य भी हो सकता है। फिर काव्य के लिए क्या आवश्यक है।  इस सम्बन्ध में, आइए कुछ विद्वानों के विचार जानें, जो काव्य को परिभाषित करते हैं—
१. कविता या काव्य की परिभाषा
 (1)      शब्दार्थौ सहितौ काव्यं ।
            (शब्द और अर्थ, दोनों का योग काव्य है।)                                        - भामह
(2)      शरीरं तावदिष्टार्थ व्यच्छिना पदावली ।
            (अभीष्ट अर्थ से युक्त पदावली काव्य है।)                                          - दण्डी
(3)       तददोषौ शब्दार्थौ सगुणवनलंकृती पुनः क्वापि ।
(दोषों से रहित, गुणयुक्त और साधारणतः अलंकार सहित, परन्तु कहीं-कहीं अलंकार-रहित शब्द और अर्थ की समष्टि काव्य है।)                                                                         - मम्मट
(4)       शब्दार्थौ सहितौ वक्रव्यापारशालिनि। बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं ताद्विदाह्लादकारिणि ।।
                  (परस्पर सम्बद्ध शब्दार्थ ही काव्य है, जो वक्र-व्यापार से युक्त तथा विदग्धों को आह्लाद देने वाला है।)                                                                                                              - कुन्तक
 (5)      वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।
            (रसात्मक वाक्य ही काव्य है।)                                                     - विश्वनाथ
(6)       जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति-साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती है, उसे कविता कहते हैं।                                                                                                       -  आ. रामचन्द्र शुक्ल
(7)       Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings. It takes origin from emotions
            recollected in tranquility.                                                                     -Wordsworth           
(8)       Poetry is the interpretation of life through imagination and emotion. - Hudson
(9)        Poetry is the language of the imagination and passions.                   - Hazlitt
(10)       Poetry in a general sense may be defined to be the expression  of imagination.
            A poem is the very image of life expressed in eternal truth.               - Shelley
(11)       Poetry is the best words in the best order.                                         - Coleridge        
(12)       Poetry is the art of uniting pleasure with truth by calling imagination with the help of reason.                                                                                                                 - Johnson
इन परिभाषाओं में दो बातों पर बल दिया गया है— एक- शब्दार्थ, अर्थ सहित शब्दों का प्रयोग, और दो- रसात्मक वाक्य। यदि ध्यान दिया जाए तो, शब्दार्थ में रस होने की बात छिपी है। कई परिभाषाओं में अलंकारयुक्त वाक्य का संकेत है। इसका आशय भी रस से है। वास्तव में, साहित्य, ‘सहित शब्द से बना है। सहित अर्थात, अर्थ के सहित। काव्य के संदर्भ में अर्थका अभिप्राय रस ही है। अंग्रेजी विद्वानों के अनुसार, कविता, अनुभूतियों का उद्रेक अथवा भावनाओं-कल्पनाओं की व्याख्या है। अथवा, उत्तम शब्दों का सही क्रम में रखना जिससे यथार्थ और कल्पना बुद्धि की सहायता से प्रकट हों। इन सबका आशय यही है कि सुरुचिपूर्ण शब्दों के संयोजन से बने वाक्य से रस की सिद्धि हो। इसके अतिरिक्त, आचार्य शुक्ल जिस रसदशा की बात कहते हैं, उसमें कविता का प्रयोजन निहित है और वह है- लोकोत्तर आनंद की प्राप्ति।
निष्कर्षतः कविता, रस से युक्त उन शब्दों के संयोजन से बनती है जो किसी भाव-विचार का आह्लादकारी अर्थ दे। पर अभी भी एक बात विचारणीय है कि रस तो गद्य के वाक्य से भी निसृत होता है, फिर क्या गद्य का रसात्मक वाक्य काव्य कहलाएगा? इन सारी परिभाषाओं में लय की बात नहीं आयी है। कविता के लिए किसी वाक्य का लयात्मक होना आवश्यक है। यह लय शब्दों के ध्वनियों से उत्पन्न होती है। ध्वनि-विन्यास शब्दों की प्रकृति पर निर्भर करती है। अतः यहाँ भाषा की तीनों शक्तियों- अभिधा, व्यंजना और लक्षणा को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार, संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि कविता लयात्मक रसयुक्त शब्दों से बनती है जो किसी भाव-विचार का आह्लादकारी अर्थ प्रदान करें। इसे आसानी से समझने के लिए तीन बातों पर विचार करना आवश्यक है:  भाव, भाषा और शिल्प।
(१)  भाव-  भाव से आशय यह है कि कवि कविता में कहना क्या चाहता है, वह किस विषय का वर्णन करना चाहता है। उससे वह किस रस की उत्पत्ति करना चाहता है। भाव का सम्बन्ध उन अनुभूतियों से है जो हृदय में प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न होती रहती हैं। भाव में रस का सम्मिलन स्वतः हो जाता है। रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। किसी भाव या विचार को जब काव्य में ढाला जाता है, तो ही रस की प्राप्ति होती है जो हमें आनन्दित करता है। यह रस ही है जो हमारे विचार का परिष्कार कर हृदय में ऐसी हिलोर उठाता है कि हम सृष्टि के जड़ और चेतन पदार्थों से आत्मीयता स्थापित करने लगते हैं। लोकोत्तर आनंद की प्राप्ति वाली बात इसी में छिपी है। कविता का भाव अगर संकुचित है, उसमें व्यापकता नहीं है, तो उससे उत्तम कविता नहीं बन सकती। किसी तथ्य को उद्घाटित कर देना उत्तम काव्य नहीं होता, उसमें लोककल्याण की भावना भी होनी चाहिए। कविता में भाव की जितनी ऊँची प्रतिष्ठा होगी, वह उतनी उत्कृष्ट मानी जाएगी। गहन मार्मिक अनुभूति, मानवीय मूल्यों की रक्षा, दार्शनिकता, प्रेम की उदात्तता, विश्वबंधुता, कष्ट सहकर सन्मार्ग पर चलते रहने के संकल्प जैसे भावों से कविता समृद्ध होती है।
(२) भाषा- भाषा की तीन शक्तियाँ होती है— अभिधा, व्यंजना और लक्षणा। साहित्य का अर्थ ही ‘सहित’ है। सहित अर्थात् शब्द और अर्थ सहित। आशय यह कि जिस भाव या प्रसंग के लिए जो शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह वही अर्थ दे रहा है, जो उससे अपेक्षित था। इस दृष्टि से काव्य में शब्दार्थ का बहुत महत्त्व है। शब्दार्थ, शब्दशक्ति पर निर्भर करता है। शब्दशक्ति के तीन भेद होते हैं— (१) अभिधा, (२) लक्षणा और (३) व्यंजना।
अभिधा में शब्दों के वही अर्थ रहते हैं जो शब्द प्रकट करते हैं और लोक में प्रचलित है। उनसे किसी अन्य अर्थ का आशय नहीं ग्रहण किया जा सकता। काव्य में भाषा का यह रूप किसी भाव-विचार या तथ्य की काव्यमयी प्रस्तुति के लिए प्रयुक्त होता है। सरल-सहज कविताएँ इसके अंतर्गत आती हैं—
बार-बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी ।
गया, ले गया वो जीवन की सबसे मस्त ख़ुशी मेरी ॥  (सुभद्राकुमारी चौहान)
लक्षणा में शब्दों के सामान्य अर्थ के अलावा कुछ ऐसा भी अर्थ प्रकट होता है जो किसी वस्तु के लक्षण बताता है, जैसे- मुख कमल विकसित हो रहा है। यहाँ मुख और कमल अलग-अलग वस्तुएँ हैं, पर दोनों में कोमलता एवं कमनीयता का साम्य है। इसी प्रकार, यदि यह कहा जाए कि राम गंगावासी है। तो, इसका अर्थ है कि राम गंगा के किनारे रहने वाला है। कविता में भी इसका एक उदाहरण देखें, जिसमें आँसुओं को मोतियों के समान माना गया है—
                        रोना और मचल जाना भी, क्या आनंद दिखाते थे ।
                   बड़े-बड़े मोती-से आँसू, जयमाला पहनाते थे ॥          (वही)‌
व्यंजना भाषा की वह शक्ति है जो काव्य के लिए बहुत महत्त्व की है। इसमें कहा कुछ जाता है, लेकिन उसका अर्थ कुछ निकलता है। एक उदाहरण देखिए। तुलसी की रामचरितमानस में वर्णन है कि कैकेयी ने राम लक्ष्मण और सीता को वन भेजा और पति (दशरथ) को स्वर्ग भेज कर उनका कल्याण किया; जबकि आशय इसके विपरीत है—
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा ।
पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।।                        (तुलसी)
भाषा का कार्य भाव ही उत्पन्न करना है। यह भाषा ही है जो कल्पना और यथार्थ के मिश्रण से ऐसे भाव की उत्पत्ति करती है जो वांछित रस प्रदान करे । कल्पना से ही स्थूल का सूक्ष्म और सूक्ष्म का स्थूल चित्रण संभव हो पाता है और यही चित्रण किसी रस में ढलकर आनंद का स्रोत बनता है।  रस दस प्रकार के होते हैं शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शांत और वात्सल्य। सभी रसों का अलग आनंद है। हास्य रस जहाँ मनोरंजन प्रदान करता है, शांत और करुण रस हमें धीर-गम्भीर बनाता है और हृदय में प्रेम-त्याग, करुणा आदि के भाव जागृत कर उच्च मानवीय मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देता है। किसी कविता के पाठ या श्रवण से जब हमारा हृदय संवेदित होने लगे और करुणा की धारा प्रवाहित होने लगे, तो निश्चय ही उसमें करुण रस है, जैसे- निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’। इसी प्रकार, किसी कविता को पढ़-सुन यदि हमें हँसी आ जाए, तो उसमें अवश्य हास्य रस है।  ‘रामचरितमानस’ में, राम और सीता के पुष्पवाटिका-प्रसंग से जहाँ हमारा ‘शृंगार रस’ से परिचय होता है, वहीं दशरथ के मृत्यु-प्रसंग से हृदय शोकाकुल हो जाता है। ‘लंकाकाण्ड’ के वर्णन में हममें उत्साह और जुगुप्सा- दोनों का भाव जागृत होता है, जिससे ‘वीर’ और ‘वीभत्स’ रस उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार, आश्चर्यचकित करने वाली उक्ति से  जहाँ ‘अद्भुत रस’ की उत्पत्ति होती है, वहीं उदात्त भावों वाली रचना से ‘शान्त’ रस का संचार होता है।

(३) शिल्प- इसके अन्तर्गत छन्द, अलंकार, ध्वनि, गुण, रीति, वृत्ति आदि आते हैं। इनमें छंद और अलंकार प्रमुख हैं। छंद से लय सुनिश्चित होती है और अलंकार से कविता के रस में वृद्धि होती है। अपेक्षाकृत कमज़ोर भावों को अलंकार अच्छे काव्य में ढाल देता है। ध्वनि भाषा का अंग है जो यह तय करती है कि रस सिद्धि में शब्दों के ध्वनार्थ का क्या महत्व है। गुण, रीति, वृत्ति भावों को तीव्रता से उत्पन्न करने का काम करते हैं। ये तीनों आपस में इस प्रकार गुथे रहते हैं कि इन्हें पूरी तरह से नहीं अलगाया जा सकता। गुण जहाँ माधुर्य, ओज और प्रसाद के भावों को प्रकट करता है, रीति और वृत्ति उसकी अतिरिक्त विशेषता बताती हैं। जैसे माधुर्य गुण में वैदर्भी रीति होती है और मधुरा या उपनागरिका वृत्ति होती है। इसमें कोमल पदावलियों का प्रयोग होता है जो हृदय को द्रवित करती है। इसके अंतर्गत शृंगार, करुण और शांत रस की रचनाएँ आती हैं। इसी प्रकार ओज और प्रसाद गुणों में क्रमशः गौड़ी और पांचाली रीति होती है और उनमें परुषा और कोमला वृत्तियाँ होती हैं। इन सबसे आशय इतना ही है कि अलग-अलग रसों में कविता कैसे की जाए!

३.१ छन्द-विधान- रस अगर कविता की आत्मा है, तो छंद उसकी काया है। छंद से किसी पंक्ति की लय तय होती है। ये विविध प्रकार की लय का सृजन करते हैं। यह छन्द ही है जो कविता की लय को गति-यति के माध्यम से नियंत्रित करता है। भावों की दृष्टि से रचना का विधान बदलता रहता है, क्योंकि उसमें मात्राओं या वर्णों की संख्या और उनका क्रम परिवर्तित होता रहता है। इससे रचना में एक विशिष्ट लय उत्पन्न होती है और उससे रस उत्पन्न होता है। इस विशिष्ट प्रकार की लय और उससे उत्पन्न रस की व्यवस्था को छंद-विशेष के नाम से जाना जाता है। यहाँ छन्द से आशय ‘दोहा, चौपाई, सवैया’ आदि नहीं, बल्कि शब्दों की वह व्यवस्था है जो लय उत्पन्न करती है। गद्य के वाक्य में शब्दों का क्रम निर्धारित है-  कर्ता, कर्म और क्रिया। विशेषण, कर्ता-सर्वनाम से पूर्व आते ही हैं। इसी प्रकार, क्रिया-विशेषण क्रिया से पूर्व आते हैं। कर्मवाची विशेषण भी कर्म से पूर्व आते हैं परन्तु, कविता में ऐसा नहीं है। लय की दृष्टि से वाक्य में कर्म या क्रियापद, कर्ता से पहले भी आ सकते हैं, जैसे—
           है अमानिशा उगलता गगन घन अन्धकार ।
          खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन-चार ।।
          अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल ।
          भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल ।।                    (निराला: राम की शक्ति-पूजा)

          छोटे-से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला ।
          आने के ही साथ जगत में कहलाया ‘जानेवाला’ ।
          स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
          बन्द लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला ।।                   (बच्चन: ‘मधुशाला’)

            गद्य में इन पंक्तियों का विन्यास उपर्युक्त से पृथक् होगा, पर उसमें कविता की लय नहीं होगी। इसलिए काव्य के लिए छंद को आवश्यक माना गया है। इस सम्बन्ध में कतिपय  विद्वानों के विचार देखिए—

(1)   सार्थक ध्वनियों के प्रवाहपूर्ण सामंजस्य का नाम छन्द है।                                   - आ. रामचन्द्र शुक्ल
(2)   जिस प्रकार नदी के तट धारा की गति को सुरक्षित रखते हैं, उसी प्रकार छन्द भी अपने नियन्त्रण से
        राग को स्पन्दन-कम्पन तथा वेग प्रदान करता है।                                             - सुमित्रानंदन पन्त
(3)   छन्द का अर्थ तुक या बँधी हुई समान स्वर मात्रा या वर्ण नहीं है। जहाँ भाषा की गति नियंत्रित है, वहाँ छन्द है।                                                                                                                    -  अज्ञेय
(4)   छन्द कवि और पाठक, दोनों को संभावित लय का दृढ़ आधार प्रदान करता है।            - रिचर्ड्स
(5)  Metre (छंद) is an essential part of the perfection of poetry and the use of metre modies the language of poetry. (It) medicates the whole atmosphere.
       (छंद से कविता पुष्ट होती है और भाषा में सुधार आता है। कविता परिवेश को स्वस्थ बनाती है।) -  कॉलरिज   
(6)  Poetry is metrical composition. (कविता छन्दोबद्ध रचना का नाम है।)                                - जॉनसन

जिस प्रकार अनुशासन के बिना किसी सिद्धांत की रक्षा नहीं हो सकती है, उसी प्रकार  छन्दानुशासन बिना कविता नहीं बची रह सकती है, तथापि पश्चिम के विद्वान, अरस्तू, सिडनी आदि छन्द को कविता के लिए अनिवार्य नहीं मानते। अरस्तू के अनुसार, छन्द कविता का अनिवार्य माध्यम नहीं है, तो सिडनी छन्द को अलंकार मात्र मानते हैं। पाश्चात्य विचारकों से प्रभावित होकर हिंदी के प्रगतिशील कवियों ने कविता में छन्द की अनिवार्यता को नकार दिया है। हिंदी काव्य में कुछ विधाएँ ऐसी हैं कि जिनमें छन्द के बिना काम नहीं चल सकता, जैसे- दोहा, पद, गीत। अंग्रेजी में भी ‘मीटर’ और उर्दू में ‘अरकान’ के माध्यम से ‘तक्तीअ’ की व्यवस्था है। इस प्रक्रिया के मूल में ‘छन्द’ है । छन्द से दो बातें जाँची जा सकती हैं: (१) अमुक वाक्य में लय है या नहीं; और (२) अगली पंक्ति की लय पूर्व निर्धारित लय से भिन्न तो नहीं हो गयी ! वस्तुतः  छन्द, निश्चित वर्णों की गति और यति से बँधी वह शब्द-योजना है, जिसके कारण कविता में लय सुनिश्चित होती है।

यति और गति क्या है?
यति का शाब्दिक अर्थ है- रुकना या ठहरना। जिस प्रकार, गद्य के पाठ में अल्प-विराम अथवा अर्धविराम पर रुकना होता है; उसी प्रकार, काव्य के पाठ में भी कहीं-कहीं ठहरना पड़ता है, तभी अपेक्षित लय आती है और कविता अपना आशय पूर्ण कर पाती है। यति वाक्य के अंत में तो होती ही है, वह पद या चरण के मध्य में भी होती है, जैसे  निम्नलिखित दोहे के प्रत्येक चरण के अन्त में यति है—
                        कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाइ ।
                        उहिं खायें बौराइ जग, इहिं पायें बौराइ ।।            
यहाँ, ‘सौ गुनी’, ‘अधिकाइ’, ‘बौराइ जग’ और ‘पायें बौराइ’ पर यति है, जो अल्पविराम के चिह्न (,) से दर्शित है।           यति पद के अन्त में होनी चाहिए, उसके मध्य में नहीं, जैसे निम्नलिखित पंक्ति में, ‘गूँजेगा’ तो शब्द के मध्य में ही आ गयी है। यह दोषपूर्ण है। पंक्ति ‘सरसी छन्द’ में है, जिसमें 16-11 पर यति का विधान है—
                        SS S SS S SS / S S S S SI                            (16/11)
                        मर्मर की बंसी में गूँजे/गा मधु ऋतु का प्यार।
सम्बन्धसूचक शब्दों (का, की, के) और अधिकरणकारक शब्दों (में, पे, पर) के पश्चात् यति आनी चाहिए, पर निम्नलिखित पंक्ति में, जो ‘ताटंक’ छन्द (16/14) में है, यति ‘में’ से पूर्व आयी है— 
                        SSS SS S S S / SS S SS SS                         (16/14)
                        मदिरालय जाने को घर से / चलता है पीने-वाला।   
                        किस पथ से जाऊँ असमंजस / में है वह भोला-भाला।

३.२  अलंकार-विधान   
काव्य का प्रयोजन ही अलौकिक आनंद की प्राप्ति है। यह आनंद हमें रस से मिलता है। काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्व को ‘अलंकार’ कहते हैं। जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलंकार काव्य में सौन्दर्य की वृद्धि कर रस को उत्कर्ष पर पहुँचाते हैं। अलंकार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं—(१) शब्दालंकार और (२) अर्थालंकार। जब शब्दों से चमत्कार उत्पन्न होता है, तब उसे शब्दालंकार कहा जाता है। बिहारी के उपर्युक्त दोहे, ‘कनक-कनक ते सौ गुनी....’ में ‘यमक’ अलंकार है जो शब्दालंकार का एक भेद है। जब अर्थ से चमत्कार से उत्पन्न होता है, तब उसे अर्थालंकार कहा जाता है। जब दोनों, अर्थात शब्द और अर्थ में अलंकार होता है, तो उसे उभयालंकार कहा जाता है। कुछ उदाहरण देखिए—
            शब्दालंकार के अंतर्गत वे अलंकार आते हैं जो शब्द-योजना में रहते हैं, जैसे- अनुप्रास, यमक, श्लेष। इनका एक-एक उदाहरण—
                        सजति, सजावति, सरसति, हरसति, दरसति प्यारी ।
                        बहुरि सराहति भाग आय सुठि चित्त बिसारी ॥                   (अनुप्रास, श्रीधर पाठक)
                        कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय ।
                        या खाए बौराय जग, वा पाए बौराय ॥                              (यमक, बिहारी‌)
                        चरन धरत चिंता करत, चितवत चारिउ ओर ।
                        सुबरन को खोजत फिरत, कवि-व्यभिचारी-चोर ॥              (श्लेष, वही)
            जहाँ उपमा, उत्प्रेक्षा, रुपक आदि से अर्थ में चमत्कार उत्पन्न किया जाता है, वहाँ  अर्थालंकार होता है ।
इन तीनों का भी एक-एक उदाहरण देखिए—
                        बिमल बदन बिधु सरिस सुहाई ।
                        निरखत चक-चकोर सचुपाई ॥                                          (पूर्णोपमा, तुलसी)
                        लता भवन से प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ ।
                        निकसे जनु जुग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ ॥           (उत्प्रेक्षा, वही)
                        उदित उदय-गिरि मंच पर, रघुबर बाल पतंग ।
                        बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग ॥                          (रूपक, वही‌)
            जहाँ शब्द और अर्थ, दोनों में अलंकार होते हैं, वहाँ उभयालंकार होता है, जैसे—
                        बंदउँ गुरु-पद पदुम परागा ।
                       सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥                              (अनुप्रास और रूपक, वही)                      
३.३ ध्वनि-विधान  
काव्य में तीन प्रकार के गुण पाये जाते हैं—  माधुर्य, ओज (और) प्रसाद। जहाँ कोमल, सानुनासिक वर्णों के प्रयोग से काव्य सरस व मधुर हो, वहाँ माधुर्य गुण होता है। यह प्रायः शृंगार, करुण और वात्सल्य रस में पाया जाता है, यथा शृंगार रस की ये अर्धालियाँ—
            कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ।।
            मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्हीं । मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्हीं ।।                      (तुलसी)

जहाँ ट-वर्ग के वर्णों, संयुक्ताक्षरों और लम्बे-लम्बे समासों का प्रयोग हो तथा वीर, अद्भुत, वीभत्स रस का वर्णन हो, वहाँ, ओज गुण होता है। एक उदाहरण देखिए—

            बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुण्ड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
            खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं।।
            बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
            संग्राम अंगन सुभट सोवहिं, राम सर निकरन्हि हए।।                                    (वही)

जहाँ सरल-सरस और सीधे-सादे शब्दों में काव्य-रचना हो और वह आसानी से समझ में आ जाए, वहाँ प्रसाद गुण होता है। इसमें सभी प्रकार के वर्णों का प्रयोग हो सकता है।  जहाँ तक इस गुण के अंतर्गत रस के प्रयोग का प्रश्न है, इसमें वीर और वीभत्स रस को छोड़ सभी प्रकार के रसों का वर्णन भी हो सकता है, जैसे—

            घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रियाहीन डरपत मन मोरा ।।
            दामिनि दमक रह न घन माहीं । खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।।
            बरसहिं जलद भूमि नियरायें । जथा नवहिं बुध बिद्या पायें ।।
            बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन सन्त सह जैसें ।।
            छुद्र नदी भरि चलीं तोराईं  । जस थोरेहूँ धन खल इतराईं ।।
            समिटि-समिटि जल भरहिं तलावा । जिमि सद्गुन सज्जन पहि आवा ।।           (वही)   

काव्य के भेद
सिद्धांततः साहित्य की सभी विधाएँ काव्य के अन्तर्गत आती हैं— गद्य, पद्य, सूक्ति और चम्पू (गद्य-पद्य मिश्रित)। गद्य के अन्तर्गत कहानी, उपन्यास, नाटक आदि आते हैं। पद्य के अन्तर्गत दृश्यकाव्य और श्रव्यकाव्य भी आते हैं। सिनेमा, नाटक अथवा कोई तमाशा, जिसमें संवाद हों, सभी दृश्य काव्य कहलाते हैं। रेडियो अथवा मंच-कविता की प्रस्तुति श्रव्यकाव्य है। व्यावहारिक दृष्टि से काव्य के दो ही भेद हैं : छन्दोबद्ध और मुक्तछन्द, पर आजकल गद्य कविता भी उसमें जुड़ गयी है।

१- छन्दोबद्ध काव्य जैसा कि नाम से ही विदित है, किसी छंद से बनता है। इसमें प्रायः तुकांत का पालन होता है। जब किसी पंक्ति के अंत में जो शब्द के स्वर-साम्य का शब्द अगली पंक्ति के अंत में आता है, तो उसे तुकांत कहा जाता है। इससे काव्य में लालित्य आता है। उदाहरण के लिए, उपरलिखित काव्यांश देखिए-- माहीं का तुकांत नाहीं है। अगली पंक्ति में नियरायें का तुकांत पायें है।
            छंदोबद्ध काव्य दो प्रकार के होते हैं:  प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य। प्रबन्ध काव्य के भी दो भेद होते हैं—  महाकाव्य और खण्ड काव्य। महाकाव्य में किसी मानव के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन होता है, जैसे- तुलसी का ‘रामचरितमानस’। चन्द बरदाई को इसका जनक माना जाता है। उनके ‘पृथ्वीराजरासो’ के बाद ‘बीसलदेव रासो’, ‘हम्मीर रासो’ आदि इसी कोटि की रचनाएँ हैं। कवि की प्रतिभा का परिचय महाकाव्य से होता है। पद्य में महाकाव्य का वही स्थान है, जैसे गद्य में उपन्यास का। खण्ड काव्य में मानवीय कार्य-व्यापार का आंशिक वर्णन होता है, उसकी सम्पूर्णता का नहीं; जैसे- मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथ वध’ और ‘पंचवटी’; दिनकर का ‘रश्मिरथी’ या श्यामनारायण पाण्डेय का ‘हल्दीघाटी’। इसमें विषयवस्तु के सिलसिलेवार वर्णन के साथ अलंकार-प्रयोग, विविध छंद-प्रयोग और रसों का प्रतिपादन होता है। इसका शिल्प-विधान महाकाव्य की भाँति ही होता है। उर्दू में इसे ‘मसनवी’ कहा जाता है।
          मुक्तक काव्य इसके अन्तर्गत वे काव्य रचनाएँ आती हैं जिनकी विषयवस्तु पूर्वा पर आधारित नहीं होती। पूर्वा से आशय है- पूर्व वर्णित विषय। इसके प्रत्येक छंद में वर्णित वस्तु या भाव स्वतंत्र रहता है, जैसे- दोहा, कवित्त, सवैया, हरगीतिका, पद, गीत, मुक्तक, रुबाई, ग़ज़ल। दोहा, मुक्तक आदि प्रबंध काव्य में पूर्वा पर आधारित हो सकते हैं। ‘रामचरितमानस’ इसका उदाहरण है, जो अधिकांशतः दोहे और चौपाइयों में रचित है।

२- मुक्तछन्द काव्य
मुक्तछंद का अर्थ है— किसी काव्य का अलग-अलग छंदों में होना। इसमें छन्द होता तो है, पर वह किसी विधान में नहीं होता कि उसे कुछ नाम दिया जा सके।  ऐसे काव्य प्रायः गेय नहीं होते, यद्यपि उसमें ‘लय’ होती है। गति और यति होने के कारण उनमें भी प्रवाह बना रहता है। ऐसी कविता में उन भावों-विचारों की प्रमुखता होती है, जो राग-विराग पर न आधारित होकर, आत्म-संघर्ष, जनचेतना, आदि पर आधारित होती है। इसमें तुकान्त का कोई नियम नहीं, पर ध्वनि-व्यंजना के आग्रह से तुकान्त पाया जाता है। यति पर विशेष बल रहता है।

मुक्तछन्द की आवश्यकता
मनुष्य की चेतना ज्यों-ज्यों ऊर्ध्वगामी होती गयी, उसकी संवेदना भी गहन होती गयी; पर अभिव्यक्ति हेतु उसे छन्दादि के उपकरण भोथरे लगने लगे और उपमान घिसे-पिटे। अतः नये  छन्द के साथ-साथ नये उपमान गढ़े गये  जो परंपरागत छन्द से पृथक थे। वस्तु की दृष्टि से भी यथार्थ का वह रूप चुना गया, जो प्रायः गेय न था, जैसे  निराला की यह कविता—
          तोड़ती पत्थर              
            वह तोड़ती पत्थर।                                              
            देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर                                  
                               वह तोड़ती पत्थर।               
            कोई न छायादार                                               
            पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
            श्याम तन, भर बँधा यौवन,                                             
            नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,                    
            गुरु हथौड़ा हाथ,                                    
            करती बार-बार प्रहार                              
            सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकार।
            चढ़ रही थी धूप;
            गर्मियों के दिन
            दिवा का तमतमाता रूप;
            उठी झुलसाती हुई लू
            गर्द चिनगीं छा गयीं,
            प्रायः हुई दुपहर—
            वह तोड़ती पत्थर ।  *   *  *    (‘अनामिका’ से)

३- गद्य-कविता
मुक्तछन्द कविता में छन्द होता है, पर वह किसी विशेष रूप में नहीं होता, उसके अलग-अलग पदों में होता है। लेकिन गद्य कविता में छन्द नहीं होता। उसमें गद्य की लय होती है। इसे छन्दमुक्त कविता भी कहते हैं, क्योंकि इसका आविर्भाव ही छन्द से मुक्ति के लिए हुआ है। गद्य कविता के प्रवर्तकों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय जैसे आधुनिक कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं।
            अज्ञेय के अनुसार, “गद्य की एक लय होती है, यह मान  लेने में तो मुझे कठिनाई नहीं है, लेकिन गद्य का एक छन्द होता है, यह मैं बिना पारिभाषिक व्याख्या के स्वीकार नहीं करूँगा। छन्द की चर्चा में प्रायः उन चीज़ों का उल्लेख होता है जिन्हें हमने अर्थात् समकालीन कवियों ने छोड़ दिया। ये चीज़ें पहले छन्द का अंग मानी जाती थीं, एक-एक करके हम पहचानते गये कि इनके बिना भी हमारा काम चलता है। लेकिन लय पर आकर हम लोग अटक गये : हमने माना कि लय के बिना काम नहीं चलता- अर्थात् अगर कविता है, तो लय है; अगर लय नहीं है, तो काव्य और गद्य में भेद का आधार नहीं रहता।” गद्य कविता को लेकर भी वही एक बात घूम-फिर कर आती है कि  कविता और गद्य के मध्य जो मूलभूत अंतर है, वह है लय का, जिसके बिना कविता नहीं हो सकती ।
            प्रश्न यह है कि कविता की ‘लय’ का स्वरूप क्या हो? फ़िराक़ गोरखपुरी, धीरेन्द्र वर्मा जैसे विचारकों ने बोलियों में स्वराघात या बलाघात को आधुनिक गद्य के वैशिष्ट्य के रूप में इंगित किया है। भोजपुरी बोली में अत्यधिक लय और माधुर्य को देखते हुए फ़िराक़ गोरखपुरी भोजपुरी बोलने वालों के लिए कहा करते थे कि वे बोलते नहीं, गाते हैं।
            अवधी में भी ‘हम जाते हैं’ को, ‘हम जाइत हैं’ कहा जाता है। खड़ी बोली के वाक्य- ‘हम जा रहे हैं।’ की अपेक्षा इसमें अधिक लय है। अतः लय के लिए किसी शब्द के स्वर को घटाया-बढ़ाया जाता है। ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयाँ इस प्रसंग में विशेष उल्लेखनीय हैं। हिंदी के परंपरागत ‘कवित्त’ और ‘सवैया’ छन्द में स्वराघात, बलाघात और यति से कविता की गति सुनिश्चित की जाती है। गद्य की कोई बोली हो अथवा गद्य-कविता, लय उनमें इसी पद्धति से आती है।  गद्य कविता के दो उदाहरण देखिए—

  (१)
            मैंने देखा :
            एक बूँद सहसा
            उछली सागर के झाग से—
            रँगी गयी क्षण-भर
            ढलते सूरज की आग से ।
            —मुझको दीख गया :
            हर आलोक-छुआ अपनापन
            है उन्मोचन
            नश्वरता के दाग़ से ।                                   - अज्ञेय

                          (२)
            एक पीली शाम
            पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता
            शांत
            मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुखकमल
            कृश म्लान हारा-सा
            (कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं?)
            अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
            सांध्य तारक-सा अतल में।                         - शमशेर बहादुर सिंह

          कविता चाहे किसी छंद में या मुक्तछंद में अथवा, गद्य रूप में ही क्यों न हो, पर उसमें यदि स्वाभाविक रस नहीं, गति नहीं, सौन्दर्य नहीं, जीवन के लक्षण नहीं, तो वह व्यर्थ है।  प्रसिद्ध कवि कीट्स के एक लघु कथन से लेख का समापन करता हूँ जिसमें स्पष्ट संकेत है कि कविता क्या है काव्य यदि सहज रूप में नहीं उद्भूत होता जैसे वृक्ष में पत्तियाँ तो यही अच्छा होगा कि वह उद्भूत ही न हो।       
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