बुधवार, 18 सितंबर 2019

छोटी बहर में हिंदी गज़लें

राजेन्द्र वर्मा की  छोटी बहर में 25 हिंदी ग़ज़लें 


1
प्रेम-ही-प्रेम जिसके हृदय,
उसके लेखे सभी ईशमय ।

सत्य-करुणा-क्षमा जिसमें है,
उसके सम्मुख हुआ नत अनय ।

दासता जो नहीं मानता,
पक्ष में उसके होता समय ।

प्रेमवश जो पराजित हुआ,
उसकी होती सदा ही विजय ।

जो मृदुल भाव छकता नहीं,
उसके हिस्से में है तल्ख़ मय ।

वह तो रहता हमेशा है थिर,
एक संभ्रम है, रवि का उदय ।

रस है आत्मा अगर काव्य की,
छन्द से ही सुरक्षित है लय । 


2    
पौध रोपी, जगी मन में आस,
प्रेम के पुष्प देंगे सुवास ।

लाख कोशिश करे कालिमा,
भोर होगी, खिलेगा उजास ।

श्याम घन, दामिनी राधिका,
नभ में किसने रचाया ये रास !

मेघ बरसे, नहायी धरा,
बुझ रही है चराचर की प्यास ।

धूप हो या कि हो चाँदनी,
स्याह मन को न भाता है भास ।

मुँह फुलाये हैं बच्चे मगर,
फूट पड़ने को है मुख पे हास ।

माँ का दिल फिर उछलने लगा,
देख बच्चों को फिर अपने पास ।

हीर-राँझा की बातें चलीं,
स्निग्ध मन छोड़ता उच्छ्वास ।

आज फिर हो रही है ग़ज़ल,
महके-महके हुए मेरे श्वास ।


3
प्रेम का पुष्प ज्यों-ही खिला,
प्राण-उपवन सुरभि से भरा ।

आत्म दर्पन-सरीखा हुआ,
मन मुदित हो सँवरने लगा ।

देह ज्यों रंगशाला हुई,
आत्मसंगीत मधुरम्  बजा ।

इन्द्रियाँ देने संगत लगीं,
मन मेरा नृत्यरत हो गया ।

दृष्टि लौकिक नहीं रह गयी,
उठ गयी झूठ की यवनिका ।

कामनाएँ स्वयं तृप्त हैं,
कोई मुझमें अवस्थित हुआ ।

4
तव प्रणति में हूँ,
आत्मरति में हूँ ।

हृद मेरा विस्तृत,
मैं सुमति में हूँ ।

दीखता हूँ स्थिर,
किन्तु गति में हूँ ।

काव्य की लय हूँ,
गति में, यति में हूँ ।

बन्ध बहुतेरे,
पर प्रगति में हूँ ।

5
हमको सत्पथ पर चलना है,
संसृति के हित में ढलना है ।

तू सूरज है, तपना तुझको,
तुझसे ही जग को पलना है ।

अँधियारा पलता दीप-तले,
बाती को फिर भी जलना है ।

आती-जाती साँसें कहतीं,
जीवन के माने चलना है ।

सुन्दर हो या कि असुन्दर हो,
तन आख़िर मुंदना-जलना है ।

है वर्त्तमान अनुकूल नहीं,
जैसे हो, इसे बदलना है ।

6
कुछ लोग लीक पर चलते हैं,
कुछ से नवपंथ निकलते हैं ।

उनको ही लक्ष्य मिला करता,
जो सही राह पर चलते हैं ।

लौ से लौ लगी पतंगों की,
लौ पर गिर-गिरकर जलते हैं ।

अँधियारे तो अँधियारे हैं,
वे दीप-तले भी पलते हैं ।

विश्वास नहीं होता, लेकिन
रिश्तों के अर्थ बदलते हैं ।

सपने पलकों पर पलने दे,
वे ही सच बनकर ढलते हैं ।

7
जिसका अन्तर्मन विस्तृत है,
वह तो सर्वत्र समादृत है ।

जिसकी वाणी में अमृत भरा,
वह तो हर युग में उद्धृत है ।

जिसके उर में संवेदन है,
उससे यह संसृति उपकृत है ।

है स्वार्थपूर्ति जिसका दर्शन,
वह तो जीवित होकर मृत है ।

उसको मेरा शत-शत वन्दन,
जिसकी भी आत्मा जागृत है ।

मंथन से दोनों ही निकले,
पहले विष, पीछे अमृत है ।

8
जब भी दुख-दर्द सताते हैं,
हम उनके गीत बनाते हैं ।

जब भी समझाना होता है,
हम ख़ुद को ही समझाते हैं ।

मन रे! तू क्यों न समझता है,
झूठे सब रिश्ते-नाते हैं ।

औरों में कमियाँ देखीं तो,
ख़ुद में भी कमियाँ पाते हैं ।

भोलेपन में आनन्द बड़ा,
भोले शिशु यही सिखाते हैं ।

शायद हमसे ही पूरे हों,
हमको ही सपने आते हैं ।

यह दुनिया जैसे हो सराय,
राही आते हैं, जाते हैं ।

9
यद्यपि सम्बन्ध पुराने हैं,
फिर भी हम ज्यों अनजाने हैं ।

वे हमको भले न पहचानें,
पर ख़ुद जाने-पहचाने हैं ।

रिश्तों के धागे मत उलझा,
तुझको ही फिर सुलझाने हैं ।

मरने का कारन एक मगर,
जीने के लाख बहाने हैं ।

हैं जन्म-मृत्यु ऐसे पड़ाव,
जीवन के पथ में आने हैं ।

दुनिया के काम नहीं आये,
फिर जीवन के क्या माने हैं ?

हम कितना भी जानें, लेकिन
जीवन के पंथ अजाने हैं ।

10
जब तक हृदयों में दूरी है,
मेरी हर ग़ज़ल अधूरी है ।

कोमल कल्पना न मर जाये,
सपने देखना ज़रूरी है ।

शायद कोई रस्ता निकले,
चुप्पी टूटनी ज़रूरी है ।

वाणी का कोई काम नहीं,
हर बात दृगों से पूरी है ।

अपनी शर्तों पर जीने की
मिल गयी मुझे मंज़ूरी है।

हम एक किन्तु हैं अलग-अलग,
यह दोनों की मजबूरी है ।



11
तू अकेला है तो’ क्या,
है अकेला भी ख़ुदा !

आत्म का सिंगार कर,
स्वप्न पलकों पर सजा ।

यदि प्रभंजन उठ रहा,
नाव लहरों से चला ।

हर तिमिर छँट जाएगा,
शर्त है, ख़ुद को जला ।

दुश्मनी का ही सही,
कोई तो रिश्ता निभा ।

तू नहीं कमज़ोर है,
अपना बोझा ख़ुद उठा ।

ध्येय तेरा है पृथक,
पंथ अपना  ख़ुद बना ।

कौन सुनता है तेरी,
क्यों करे शिकवा-गिला !


12
मन में जब निश्चय होता है,
संकल्प हिमालय होता है ।

विश्वास अटूट रहे तो फिर,
आस्था से परिणय होता है ।

छाती पर घाव सहे जाते,
चरणों में अनुनय होता है ।

विष पीकर भी अमरत्व मिले,
यह सुनकर विस्मय होता है ।

असफलता घेरे रहे अगर,
ईर्ष्या से परिचय होता है ।

भौतिकता के हाथों पड़कर
मन का क्रय-विक्रय होता है ।


13
अवसर लहिए,
सच को गहिए ।

जीवन गतिमय,
चलते रहिए ।

समय एक नद,
उसमें बहिए ।

जो कहना है,
ख़ुद को कहिए ।

सुख चाहें तो,
दुख भी सहिए ।

लौ की ख़ातिर
दीपित रहिए ।


14
अमा की’ रात है,
बिछी बिसात है ।

जिसे भी देखिए,
लगाये घात है ।

सँभल के खेलिए,
नहीं तो मात है ।

कपाट जब खुलें,
तभी प्रभात है ।

हृदय में वह बसा,
प्रफुल्ल गात है ।

दिलों में दर्द है,
ख़ुशी की बात है ।

ख़ुशी के साथ ग़म,
यही हयात है ।


15
पथसृजन की बात हम करते रहे,
लीक के रक्षार्थ भी मरते रहे ।

रौशनी की चाह भी करते रहे,
किन्तु परछाई से भी डरते रहे ।

एकलव्यों के अँगूठे काटकर
द्रौण के चरणों में हम धरते रहे ।

ज़िन्दगी का ऋण न चुकता हो सका,
स्वार्थपरता का कुँआ भरते रहे ।

धर्म का जो मर्म था, जाना नहीं,
धर्मग्रन्थों का पठन करते रहे ।

एक दिन भी जी न पाये चैन से,
मोक्ष की चिन्ता में ही मरते रहे ।


16
धर्म हैं जितने, ये उनका मर्म है,
प्रेम से रहना ही सच्चा धर्म है ।

सत्य का कोई नहीं ग्राहक यहाँ,
झूठ का बाज़ार लेकिन गर्म है ।

विषधरों का ताप इतना बढ़ गया,
चन्दनी तासीर भी अब गर्म है ।

राम से बेहतर भला जानेगा कौन,
छद्मवेशी का सुनहला चर्म है !

आदमी के कारनामे देखकर,
शर्म को भी आ रही अब शर्म है ।

हम भले ही आँख उससे फेर लें,
किन्तु हमको ज्ञात, क्या निज धर्म है !

तू पुकारे दैव आख़िर किसलिए,
दैव तो तेरा-ही संचित कर्म है ।

17
दीप-बाती सरीखी रही ज़िन्दगी,
लौ हमेशा लुटाती रही ज़िन्दगी ।

दूब-जैसी रही नित्य पैरों-तले,
शीश तो भी उठाती रही ज़िन्दगी ।

लाख तूफ़ान आया लिये कालिमा,
ज्योत्स्ना को बचाती रही ज़िन्दगी ।

अश्रु पीती रही, घाव सीती रही,
आस की साध जैसी रही ज़िन्दगी ।

श्वास तो है फँसा राग के वृत्त में,
किन्तु गाती मुझे ही रही ज़िन्दगी ।

18
युग-युगान्तर चल रहा है क्रम यही,
शिव के हिस्से में लिखा विष-पान ही ।
 
सूर्य को पल भर नहीं विश्राम है,
भोर-दुपहर-साँझ होती ही रही ।

पुष्प के रक्षार्थ ही कण्टक उगा,
पर उपेक्षा ही सदा उसने सही ।

चित्र गाँधी का टँगा दीवार पर,
बात गाँधी की भला किसने गही?

भोर तक बातें बहुत होती रहीं,
बात फिर भी रह गयी है अनकही ।

दर्पणों से क्या करें परिवाद हम,
क्यों न बदलें हम स्वयं को आज ही ?

पृष्ठ तक उसका नहीं खोला गया,
जन्म-भर यद्यपि लिखी हमने बही ।


19
श्वास में उत्कृष्टता भरते हैं हम,
विश्वव्यापी दैन्य को हरते हैं हम ।

दान देते हैं सदा पीयूष का,
मर्त्य में अमरत्व को भरते हैं हम ।

देव-दानव जी सकें दोनों यहाँ,
इसलिए विषपान भी करते हैं हम ।

प्राकृतिक हो, या कि मानवजन्य हो,
आपदा में धैर्य को धरते हैं हम ।

अस्मिता के रक्ष का यदि प्रश्न हो,
प्राण न्यौछावर किया करते हैं हम ।



20
चन्दनी चरित्र हो गया,
मैं सभी का मित्र हो गया ।

जिन्दगी सँवर गयी मेरी,
प़फूल से मैं इत्र हो गया ।

पूर्णिमा है, ज्वार उठ रहा,
सिन्धु-सा चरित्र हो गया ।

रश्मियों के नैन हैं सजल,
इन्द्रधनु सचित्र हो गया ।

कामना की पूर्ति हो गयी,
मन मेरा पवित्र हो गया ।

आत्मा विदेह हो गयी,
पंचतत्त्व  चित्र हो गया ।



21
तोता ‘राम-राम’ कहता है,
लेकिन पिंजरे में रहता है ।

एक बार चोटी से उतरा,
दरिया जीवन-भर बहता है ।

सबके घर का भेद जानकर
सूरज रातोदिन दहता है ।

आभूषण बनने को सोना
कितनी ही चोटें सहता है !

वृद्ध खींचता है जब रिक्शा,
रक्त स्वेद बनकर बहता है ।

मैं तो केवल लिख लेता हूँ,
जाने कौन शेर कहता है !



22
गोलियाँ खाता जो सीमा-पार है,
उसको भी अपनी धरा से प्यार है ।

दूसरों पर जीत मुश्किल से मिले,
पर स्वयं को जीतना दुश्वार है ।

झूठ जब से मुंसिफी करने लगा,
सत्य के हिस्से में कारागार है ।

आप मानें या न मानें, सच यही,
झूठ को भी सत्य ही दरकार है ।

मेरी स्मृति में आप रहते हैं सदा,
विस्मरण का आपको अधिकार है ।

हो रही हो यदि मनुजता की विजय,
फिर पराजय भी मुझे स्वीकार है ।

23
हो चाहे जितनी कठिनाई,
हम नहीं छोड़ते सच्चाई ।

हम तो केवट के वंशज हैं,
लीजिए, छोड़ दी उतराई !

जब औरों को उठने देगा,
तू भी पायेगा ऊँचाई ।

आतप की भेंट चढ़ गया जल,
हँस रही सरोवर में काई !

जब आता है अनुकूल समय,
पर्वत भी होता है राई ।

सुनता हूँ, तू सबकी सुनता,
कब होगी मेरी सुनवाई ?


24  
जो स्वतन्त्र है, वह बोलेगा,
पराधीन क्या मुँह खोलेगा ?

एक बार आकाश मिले तो,
वह भी अपने पर तोलेगा ।

अभी बहुत मधु घोल रहा है,
अवसर पाकर विष घोलेगा ।

जनहित में अपने हाथों को,
बहती गंगा में धो लेगा ।

थू-थू होती है, हो जाये,
वह भी परम्परा ढो लेगा ।

जैसे सब सोते आये हैं,
पाँच बरस वह भी सो लेगा ।

भेड़-वेश में कुटिल भेड़िया
भेड़ों में शामिल हो लेगा ।



25
ख़ुद को भूमिपुत्र कहता है,
लेकिन अम्बर में रहता है ।

तड़प-तड़प जाता माँ का दिल,
नयी-नयी चोटें सहता है ।

यादों का सिलसिला न थमता,
दिल में बसा ढूह ढहता है ।

कैसा सूरज लोकतंत्र का,
आतप-शीत, सदा दहता है ।

मगरमच्छ दो अश्रु बहाकर
बरसों लहालोट लहता है ।

बात ग़रीबों की वह करता,
हाथ अमीरों का गहता है ।

हाथ न आता वह फ़क़ीर के,
यों ख़ुद को फ़क़ीर कहता है ।

लामबन्द हो रहीं हवाएँ,
दीपक सहमा-सा रहता है ।
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