बुधवार, 28 जून 2017

कविता में छन्द - आलेख

कविता में छन्द
-          राजेन्द्र वर्मा
रस और लय— कविता के आवश्यक तत्त्व हैं। ‘रस’ वर्णन की वस्तु है,  तो ‘लय’ शब्द-योजना की । यह शब्द-योजना छन्द  के माध्यम से आती है । छन्द को कविता के लिए उसी प्रकार आवश्यक माना गया है, जैसे नदी के प्रवाह के लिए उसके तट ।  तटविहीन नदी अपना वेग खो देती है और गन्तव्य तक नहीं पहुँचती ।
            छन्द की दृष्टि से हिंदी कविता के दो भेद हैं— (१) छन्दोबद्ध और (२) मुक्त छन्द। छन्दोबद्ध कविता उसे कहा जाता है, जो किसी छन्द विशेष में हो, जैसे- दोहे या चौपाई में । तुलसी की रामचरितमानस घर-घर में पायी जाती है। यह मुख्यतः दोहों और चौपाइयों में रचित है। बीच-बीच में अन्य हरगीतिका, भुजंगप्रयात छन्द, श्लोक आदि भी है । मुक्त छन्द कविता में छन्द तो  होता है, लेकिन उसका स्वरूप निश्चित नहीं रहता । एक पंक्ति किसी छन्द में हो सकती है, तो दूसरी किसी में। उसकी पंक्तियाँ छोटी-बड़ी भी हो सकती हैं। उसकी लय भी अलग-अलग प्रकार की हो सकती है ।... कुछ लोग मुक्त छन्द कविता को छन्द-मुक्त कविता भी कहते हैं, जो सही नहीं है। आज यद्यपि गद्य कविता भी प्रचलन में आ गयी है, जिसमें कतिपय शब्दों के दुहराव और उन पर आने वाली यति पर बल देकर लय उत्पन्न की जाती है; जबकि छन्दोबद्ध कविता में लय की स्थापना स्वमेव हो जाती है।
कविता की लय में गति और यति, दोनों का होना आवश्यक है; केवल गति से काम नहीं चलता । गति का अर्थ स्पष्ट ही है- प्रवाह; यति का अर्थ है- ठहराव। किसी पंक्ति में किसी शब्द विशेष पर ठहरना ही यति है। यति इसलिए भी आवश्यक है कि वक्ता वहाँ तनिक ठहरकर साँस ले सके। कविता यदि छन्दोबद्ध है, तो उसमें गति और यति, दोनों का समावेश रहता है: काव्य-पंक्ति में यथास्थान,  पंक्ति  के मध्य, अर्थात् चरणान्त और उसकी समाप्ति पर यति होती है। उदाहरण के लिए कबीर का यह दोहा —
                                    साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
                                    जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप ।।               
दोहा हिन्दी कविता का आदि छन्द है। अब इस दोहे की लय को समझते हैं । लय में गति और यति, दोनों रहते हैं। देखना यह है कि किसी काव्य-पंक्ति या उसके वाक्यांश में प्रवाह है या नहीं! उसमें यथास्थान यति आयी है। अब इन दोनों, यति और गति को दोहे के माध्यम से समझते हैं— दोहे का पहला चरण है: साँच बराबर तप नहीं। हम इसको अगर यों कहें— साँच तप बराबर नहीं, तो इसमें लय नहीं रह जायेगी; यद्यपि व्याकरण के अनुसार वाक्य सही है; यानी पहले कर्त्ता, फिर कर्म और उसके बाद गुणवाची शब्द और क्रिया। लेकिन अपेक्षित लय के लिए शब्दों को थोड़ा आगे-पीछे करना पड़ता है।
            दोहे में चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण के अन्त में यति होती है। इस दोहे में यति का स्थान समझें— पहला चरण है- साँच बराबर तप नहीं- इसलिए चरण के अन्त पर तनिक ठहरना है। दूसरा चरण है- झूठ बराबर पाप। यहाँ भी तनिक ठहरना  है। इसी प्रकार, तीसरे चरण- जाके हिरदय साँच है, पर और अन्तिम चरण- ताके हिरदय आप, पर ठहराव है । अब लय और यति की दृष्टि से दोहे को एक बार फिर देखिए—
            साँच  बरा...बर  तप  नहीं........झूठ  बरा...बर  पा....प ।
            जाके  हिर..दय  साँच  है.........ताके  हिरदय  आ.....प ।।
यति को शब्द के बीच में नहीं आना चाहिए; उसकी समाप्ति पर ही आना चाहिए। साथ-ही, सम्बन्धसूचक शब्दों, जैसे-  का-की-के, में, से पर और सहायक क्रिया जैसे- है, हैं, था-थी-थे  आदि के बाद ही आनी चाहिए, जैसे- जल-संकट है देश का, जलता हुआ सवाल। यहाँ दोहे के पहले चरण में ‘देश का’, के बाद यति आयी है, जो सही है ।
यति के यथास्थान न होने पर वह दोषपूर्ण मानी जाती है। उदाहरण के लिए, बच्चन जी की मधुशाला से एक पंक्ति- किस पथ से जाऊँ असमंजस, में है वह भोला-भाला। यह रचना ‘तोटक’ छंद में है। इसमें 30 मात्राएँ होती हैं, जो 16 और 14 मात्राओं के दो चरणों में विभक्त होती हैं और चरणान्त यति होती है। पहले चरण, किस पथ से जाऊँ असमंजस,  में 16 मात्राएँ हैं और दूसरे चरण, में है वह भोला-भाला,  में 14 मात्राएँ । पंक्ति में आये ‘असमंजस में’  का ‘में’ पहले चरण में ही होना चाहिए था, जो अगले चरण में चला गया है।  इस प्रकार इस पंक्ति में यति-दोष है।
छन्दोबद्ध कविता दो प्रकार के छन्दों से बनती है : मात्रिक और वर्णिक।  मात्रिक छन्द वे कहलाते हैं, जो मात्राओं के आधार पर बनते हैं। अर्थात्, लघु या गुरु स्वर के उच्चारण में जो समय लगता है, उसी के अनुसार लघु या गुरु मात्राएँ गिनी जाती हैं, जैसे राम शब्द में तीन मात्राएँ हैं- ‘रा’ में दो और ‘म’ में एक। मात्रिक छन्द की काव्य-पंक्ति में मात्राएँ समान होती है, उनका क्रम नहीं निश्चित रहता, जबकि वर्णिक छंद में उनका क्रम भी निश्चित रहता है। दोहा और चौपाई  मात्रिक छन्दों के उदाहरण हैं। दोहे में चार चरण होते हैं। पहला और तीसरा चरण १३-१३ मात्राओं का होता है, जबकि दूसरा और चौथा चरण ११-११ मात्राओं । पहले-तीसरे चरणों के अन्त में लघु-दीर्घ आता है, तो दूसरे-चौथे चरण के अन्त में दीर्घ-लघु स्वर आता है । दूसरे और चौथे चरणों में तुकान्त होता है। इस प्रकार, दोहे के पहले और दूसरे चरण को मिलाकर २४ मात्राएँ होती हैं। मात्राओं की गणना की दृष्टि से कबीर के दोहे  को एक बार फिर से समझेंगे- साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
इसमें दो चरण हैं- (1) साँच बराबर तप नहीं, और (2) झूठ बराबर पाप।  पहले चरण में १३ मात्राएँ है : साँच- ३, बराबर- ५, तप- २, (और)  नहीं- ३. (तीन+पाँच : आठ + दो : दस (और) तीन : तेरह। चरण के अन्त में ‘नहीं’ शब्द आया है- अर्थात् लघु-दीर्घ स्वर। इसी प्रकार, दूसरे चरण में ११ मात्राएँ हैं। इन्हें भी गिनते हैं: झूठ-३, बराबर-५, (और) पाप-३. (तीन+पाँच : आठ (और) तीन: ग्यारह।  इस चरण के अन्त में ‘पाप’ शब्द आया है-  अर्थात्  दीर्घ-लघु । इसी प्रकार, तीसरे और चौथे चरण (जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप) में क्रमशः १३ और ११ मात्राएँ हैं। 
इन चरणों के अन्त में क्रमशः लघु-दीर्घ और दीर्घ-लघु स्वर आये हैं। चौथे चरण के अन्त में आप शब्द आया है, जो दूसरे चरण के अन्त में आये पाप का तुकान्त है।  यहाँ, ध्यान देने वाली बात यह है कि जब दोहे के पहले और तीसरे चरणों के अन्त में लघु-दीर्घ तथा दूसरे और चौथे चरणों के अन्त में दीर्घ-लघु स्वर आते हैं, तभी दोहे की लय बनती है; अन्यथा लयभंग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। चूँकि दोहे के सभी चरणों में मात्राएँ समान नहीं होती हैं, दो-दो चरणों में समान होती हैं; इसलिए, यह अर्धसम मात्रिक छन्द कहलाता है ।  अगर सभी चरणों में मात्राएँ समान होतीं, तो यह सम-मात्रिक छन्द कहलाता, जैसे चौपाई।
चौपाई चार पंक्तियों का छन्द है, जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 16-16 मात्राएँ होती हैं और उसके अन्त में दो दीर्घ स्वर आते हैं। सभी पंक्तियों में तुकान्त होता है। पंक्ति को पद या पाद भी कहते हैं; चरण नहीं। चौपाई का एक उदाहरण देखिए—
                                    रामकथा सुन्दर करतारी।
                                    संसय विहाग उडावन हारी।
                                    रामकथा कलि विटप कुठारी।
                                    सादर सुनु गिरिराजकुमारी।।
इसकी प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ होती है। पहली पंक्ति जाँचते हैं: राम-३, कथा-३, सुन्दर-४, (जब किसी लघु वर्ण के बाद आधा वर्ण  आता है, तो वह दीर्घ माना जाता है, इसलिए ‘सुन्दर’ में- ‘सुन्’ में 2 और दर में 2),  कर- २, तारी-४.  कुल मात्राएँ:  तीन+तीन : छह + चार : दस+दो बारह+चार: सोलह । सभी पंक्तियों के अन्त में दो दीर्घ भी हैं: तारी, हारी, ठारी और मारी। आपस में ये तुक में भी हैं। इसी छन्द में जब दो-दो पंक्तियों में तुकान्त होता है, तब वह चौपाई नहीं, अर्धाली कहलाती है। रामचरितमानस में अधिकांशतः  अर्धालियाँ हैं।
मात्रिक छन्दों में, विष्णुपद, सरसी, ताटंक, आल्हा  आदि अधिक प्रचलित छन्द हैं। विष्णुपद में २६ मात्राएँ होती है, सरसी में २७ मात्राएँ,  ताटंक में ३० और आल्हा में ३१ मात्राएँ होती हैं। ये सभी छन्द दो-दो चरणों से बने हैं : पहले चरण में सोलह मात्राएँ, शेष दूसरे चरण में। चरणान्त यति होती ही है। उदाहरण के लिए बच्चन जी की मधुशाला का एक छन्द लेते हैं जो ताटंक छन्द में है, जिसे कुछ लोग त्रुटिवश रुबाई कहते हैं।  १६-१४  मात्राओं में विभक्त ३० मात्राओं का चार पंक्तियों में निबद्ध यह बड़ा मनोहारी छंद है:
मदिरालय जाने को घर से, चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊँ असमंजस, में है वह भोला-भाला।
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ,
राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला ।।
अब वर्णिक छन्द के बारे में:
            वर्णिक छन्द उन्हें कहा जाता है, जो वर्णों की गणना के आधार पर बनते हैं। इन छन्दों में वर्णों की गणना का वही तरीका है, जो मात्रिक छन्द का है, अर्थात् जिस वर्ण के उच्चारण में कम समय लगता है, वह लघु वर्ण और जिसमें अधिक समय लगता है, वह दीर्घ या गुरु ।
            वर्णिक छन्दों की लय लघु और गुरु वर्णों के मिश्रण से बनती है, लेकिन किसी पंक्ति में जो वर्णों आते हैं, उन्हीं की पुनरावृत्ति से अगली पंक्तियाँ लयबद्ध होती हैं। इस प्रकार इन छन्दों में वर्णों का क्रम निर्धारित रहता है। जब उनका क्रम बदलता है, तो लय भी बदल जाती है। दूसरे शब्दों में वर्ण के नीचे वर्ण आता है- लघु के नीचे लघु और दीर्घ के नीचे दीर्घ। हाँ, दो लघु मिलकर एक दीर्घ बन सकते हैं। इसी प्रकार, एक दीर्घ को दो लघु में विभाजित कर लिखा जा सकता है, पर यह नियम वहाँ नहीं लागू होता है जहाँ कोई अनिवार्य लघु हो, जैसे– ‘न’, अथवा कमल शब्द में- ‘क’ । कमल को हम क+मल ही बोल सकते हैं, कम+ल नहीं ।
            यहाँ एक बात जानना ज़रूरी है कि किसी शब्द में वर्णों की अपेक्षा मात्राएँ अधिक हो सकती है,  जैसे-  ‘आकाश’  शब्द  में पाँच मात्राएँ हैं, लेकिन वर्ण तीन हैं।  कैसे?  आ-का-श : तीन वर्ण, लेकिन मात्राओं के लिहाज से:  आ- 2 मात्राएँ ,  का- 2 मात्राएँ  और श- 1 मात्रा ।  इसी प्रकार, वाणी में चार मात्राएँ हैं: वा में 2 और णी में 2. इस प्रकार, आकाशवाणी में नौ मात्राएँ हैं और वर्ण हैं- पाँच ।  जिस प्रकार मात्राएँ लघु और गुरु होती हैं, उसी प्रकार वर्ण भी लघु और गुरु कहलाते हैं।
            मात्राओं और वर्णों की संख्या के आधार पर छन्दों को साधारण और दण्डक कहा जाता है। ३२ मात्राओं तक के छन्दों को साधारण मात्रिक छन्द तथा 26 वर्णों तक के छन्दों को साधारण वर्णिक छन्द कहा जाता है।  इससे अधिक वर्णों अथवा मात्राओं वाले छन्दों को दण्डक मात्रिक छंद अथवा, दण्डक वर्णिक  छन्द कहा जाता है ।   इसके अलावा, इन चारों प्रकार के छन्दों के पुनः तीन-तीन भेद हैं, जो इनके पदों या चरणों में प्रयुक्त मात्राओं अथवा वर्णों की संख्या के आधार पर होता है—

(1)    सम-        ‘सम’ छन्द वे कहलाते हैं, जिनके प्रत्येक पद में मात्राओं अथवा वर्णों की  संख्या समान रहती है।
(2)    अर्धसम- ‘अर्धसम’ छन्द वे कहलाते हैं, जिनके पहले-तीसरे और दूसरे-चौथे चरणों में मात्राओं अथवा वर्णो की संख्या समान रहती है। पहले व  तीसरे चरण विषम और दूसरे व चौथे चरण सम चरण कहलाते हैं।
(3)    विषम- ‘विषम’ छन्द वे कहलाते हैं जिनमें दो प्रकार के छंदों का प्रयोग होता है। इनके पदों या चरणों में मात्राओं या वर्णों की संख्या समान नहीं होती हैं। 

वर्णिक छंदों की गणना के सम्बन्ध में, आचार्य भरत के छन्दसूत्र से बहुत आसानी हो गयी है। उनका सूत्र है- यमाताराजभानसलगा। इस सूत्र से आठ प्रकार के गण आसानी से समझे जा सकते है। पहले तीन अक्षरों से एक युग्म  बना— यमाता (ISS), अर्थात् यगण ।  फिर दूसरे अक्षर से प्रारम्भ कर तीन अक्षरों से बना— मातारा (SSS), अर्थात् मगण। इसी क्रम में अन्य गण बनते गये । इस प्रकार आठ गण बनते हैं ।  उर्दू छन्द-विधान में गणों को अरकान कहते हैं। अरकान, रुक्न का बहुवचन है। रुक्न माने होता है- वर्ण । अब इन आठों गणों को उनके पूरे रूप को हिन्दी के तीन अक्षरों से बने युग्म और उर्दू के अरकान की मदद से समझते हैं:
१-      यगण-           यमाता    (ISS)    फ़ईलुन्/फ़ऊलुन्/मफ़ेलुन्
2-      मगण-           मातारा    (SSS)   फ़ाईलुन्/मफ़ऊलुन्/फ़इलातुन्
3-      तगण-           ताराज    (SSI)    मफ़ऊल
4-      रगण-           राजभा    (SIS)    फ़ाइलुन
5-      जगण-          जभान     (ISI)     फ़ईल/फ़ऊल
6-      भगण-          भानस     (SII)     फ़ाइल
7-      नगण-           नसल      (III)     फ़इल/फ़उल
8-      सगण-          सलगा    (IIS)     फ़इलुन/फ़उलुन
           
विभिन्न वर्णों के युग्म
इस छन्दसूत्र की सीमा यह है कि इसमें तीन वर्णों का युग्म होता है, जबकि उर्दू छन्द-विधान में, दो से पाँच वर्णों तक के युग्म होते हैं।
(1)    दो वर्णों के युग्म- 
      दो दीर्घ वर्णों को- फ़ेलुन्;   दीर्घ-लघु को- फ़ाइ या फ़ात;  लघु-दीर्घ को-फ़ई या, फ़ऊ; और दो लघु वर्णों को –फ़इ या फ़उ ।
(2) तीन वर्णों में-  
      तीनों दीर्घ हों तो- मफ़ऊलुन् या, फ़ाईलुन्,  तीनों लघु- फ़इल या, फ़उल;  दीर्घ-लघु-लघु को-फ़ाइल;
(3) चार वर्णों में-
      IISS- फ़इलातुन्, ISSS- मुफाईलुन् या, फ़ऊलातुन्, SISS- फाइलातुन्, SSIS- मुस्तफ्-इलुन् या, हरगीतिका।
(4)    पंचवर्णीय-
IISIS- मुत-फ़ाइलुन्, SIISS- मुत-फइलातु ISIIS- मुफ़ा-इलतुन्, SISSS- मुत-फ़ईलातुन, ISISI- मुफाइलात, SSSSS को मुस्तफ़-ईलातुन, अथवा इसे दो हिस्सों में विभक्त कर फेलुन-फ़इलातुन अथवा इसका उल्टा, फ़इलातुन-फेलुन कहा जा सकता है।  इसे तीन हिस्सों में विभक्त कर फेलुन-फेलुन-फ़इ/फ़ा’ अथवा फेलुन-फ़इ-फेलुन भी कहा जा सकता है।
वर्णिक छन्दों की निर्मिति  
वर्णिक छन्द दो प्रकार से निर्मित होते हैं- किसी वर्ण-समूह (गण) या अरकान की आवृत्ति अथवा, कतिपय वर्ण-समूहों के मिश्रण से। दोनों ही स्थितियों में लय स्वतः उत्पन्न हो जाती है। 
(१)               एक गण या अरकान की आवृत्ति से बने छन्द   
१.१.      यह गण विशेष या अरकान को दुहराने से बन जाता है, जैसे- ‘यगण’ (यमाता) या ‘फ़ऊलुन’ यानी, लघु-दीर्घ-दीर्घ (ISS) को चार बार दुहराकर। इससे भुजंगप्रयात नामक छन्द बन जाता है।
ISS  ISS  ISS  ISS
यमाता-यमाता-यमाता-यमाता
                                    अथवा,
                        फ़ऊलुन्-फ़ऊलुन्-फ़ऊलुन्-फ़ऊलुन्     
                        भला भी कहा है, बुरा भी कहा है,
                        जो देखा सुना है, वही तो  कहा है ।              (स्वरचित)
१.२       इस छन्द के अन्त में आने वाला एक दीर्घ वर्ण हटा दें, तो  यह भुजंगी छन्द बन जायेगा, जैसे—
ISS  ISS  ISS  IS                                              
यमाता-यमाता-यमाता-यमा
                                    अथवा,
                        फ़ऊलुन्-फ़ऊलुन्-फ़ऊलुन्-फ़ऊ          
बजे नाद अनहद,  सुनायी न दे,
                        वो कण-कण में लेकिन, दिखायी  न दे ।       (स्वरचित)
१.३       यगण की पुनरावृत्ति से अभी आपने दो प्रकार के छन्दों को जाना। यगण में एक गुरु वर्ण जोड़कर यदि उसे चार बार दुहरा दिया जाए, तो एक नया छन्द उत्पन्न हो जायेगा, जैसे- यमातारा-यमातारा-यमतारा-यमातारा । उर्दू में इस वर्णयुग्म को  मफाईलुन (ISSS) कहते हैं। इसे चार बार दुहराने अथवा, फ़ऊलुन, फ़ाइलुन, फेलुन को दुहराकर भी समझा जा सकता है। इस अति प्रचलित छन्द का नाम विधाता है। एक उदहारण देखिए—
                        ISSS ISSS, ISSS ISSS
                        यमातारा-यमातारा-यमातारा-यमातारा
                                    अथवा,
                        मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफाईलुन
                        हमन हैं इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
                        रहें आज़ाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?       (कबीर)
१.४       इसी प्रकार, ‘रगण’ (राजभा) या ‘फ़ाइलुन्’, अर्थात् दीर्घ-लघु-दीर्घ (SIS) को चार बार दुहराने पर स्रग्विणी छंद बन जाता है। उर्दू में इसे बहरे-मुतदारिक) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, फ़िल्म हकीक़त के एक गाने का मुखड़ा—
SIS  SIS  SIS  SIS                    
राजभा-राजभा-राजभा-राजभा
                                    अथवा,
                        फ़ाइलुन्-फ़ाइलुन्-फ़ाइलुन्-फ़ाइलुन्
                        कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो!
                        अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो!                (क़ैफ़ी आज़मी)
१.५       अब अगर इस फ़ाइलुन यानी, दीर्घ-लघु-दीर्घ, में एक गुरु वर्ण और जोड़ दें, तो हिन्दी छन्दविधान  के अनुसार इसे रगण और एक दीर्घ कहेंगे, लेकिन उर्दू छंदविधान में इसे फ़ाइलातुन कहेंगे। उर्दू में वर्ण-युग्म को ‘अरकान’ कहते हैं। अब अगर इस फाइलातुन को अगर हम तीन बार दुहराये और उसके बाद एक फ़ाइलुन (अर्थात रगण) रख दें, तो उससे हिन्दी कविता का प्रसिद्ध छन्द, गीतिका बन जायेगा। जैसे-
                        SISS SISS SISS SIS                 
                        फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन-फ़ाइलुन
                        हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिए,
                        शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।         (मैथिलीशरण गुप्त)

१.६       गीतिका छन्द में से यदि हम एक फाइलातुन निकाल दें, तो पीयूषवर्ष छन्द बन जाएगा, जैसे—
                        SISS SISS SIS             
                        फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन 
                        अंक में आकाश भरने के लिए,
                        उड़ चले हैं हम बिखरने के लिए ।                (स्वरचित)

१.७       पीयूषवर्ष छन्द में अगर एक फ़ाइलुन (दीर्घ-लघु-दीर्घ) जोड़ दें, तो वह राधा छन्द बन जायेगा, जैसे—
                        SISS SISS SIS SS
                        फ़ाइलातुन-फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन-फेलुन              
                        बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ,
                        कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ।                        (महादेवी)

१.८       इस क्रम में, अनेक छन्द बनेंगे, लेकिन हरगीतिका छन्द की चर्चा यहाँ आवश्यक प्रतीत होती है। यह ‘तगण’ और गुरु (यानी, दीर्घ-दीर्घ-लघु-दीर्घ वर्णों की चार आवृत्तियों से बनता है ।  ‘हरगीतिका’ शब्द की चार आवृत्तियों से भी यह छन्द बन जाता है । तुलसी का प्रसिद्ध राम-स्तवन इसी छन्द में है:
                        SSIS SSIS SSIS SSIS   
                        हरगीतिका-हरगीतिका-हरगीतिका-हरगीतिका
                        श्रीराम चन्द्र कृपाल भज मन हरण भव भय दारुणम् ।
                        नव कंज लोचन, कंज मुख कर, कंज पद कंजारुणम् ।।                        (तुलसी)
[पहली पंक्ति में ‘हरण’ (IS) आया है, जिसके कारण छन्द-दोष उत्पन्न हो गया है। यहाँ दीर्घ-लघु (SI) आना चाहिए था,    न कि लघु-दीर्घ (IS), लेकिन ‘हरण’ का कोई अच्छा विकल्प न होने के कारण इसे इसी रूप में ग्रहण करना श्रेयस्कर है।]

(2)    अभी तक एक गण के मूल रूप अथवा उसमें एक वर्ण बढाकर बने वर्णयुग्म की आवृत्ति से बने छन्द प्रस्तुत किये गये हैं। अब मिश्रित गणों अथवा वर्ण-समूहों से निर्मित कुछ छन्दों के बारे में  
२ .१                  ISIS  IISS    ISIS  IIS
जगण-भगण-तगण-रगण-सगण
                                         अथवा,
                        मफ़ाइलुन्-फ़इलातुन्, मफ़ाइलुन्-फ़इलुन्
                        कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए,
                        कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।                    (दुष्यन्त कुमार)
                                   
२.२                   SSI  SIS  IIS  SIS  IS
तगण-रगण- सगण-रगण, लघु-गुरु
                                       अथवा, 
                        फ़ेलुन्-मफ़ाइलात, मफ़ेलुन्-मफ़ाइलुन्
                        दिल चीज़ क्या है, आप मेरी जान लीजिए,
                        बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए।                                    (शहरयार)
                                                           
२.३                   SIS   SIS    ISI   IS
रगण-रगण-जगण, लघु-गुरु
                                    अथवा,
                        फ़ाइलातुन्-मफ़ाइलुन्-फ़इलुन्
                        ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
                        और क्या जुर्म है, पता ही नहीं।                                (नूर लखनवी)

मुक्तछन्द कविता का उद्भव और विकास
मुक्तछन्द काव्य कोई नया नहीं है। वह तो संस्कृत और वैदिक साहित्य में मिलता है। कविता किसी नदी की भाँति अनवरत बहती रहती है। जिस प्रकार बड़ी नदी छोटी-छोटी नदियाँ मिलती रहती हैं, उसी प्रकार कविता की मुख्य धारा में छोटी-छोटी काव्य-धाराएँ मिलती रहती हैं और उसका कथ्य और शिल्प बदलता और समृद्ध होता रहता है। कबीर के यहाँ यदि सधुक्कड़ी भाषा है, तो सूरदास के यहाँ ब्रज और तुलसी के यहाँ अवधी । रीतिकाल की ब्रज भाषा थोड़े-बहुत परिवर्तन के बाद भारतेंदु युग में खड़ी बोली बनी। वस्तु की दृष्टि से भक्ति, अध्यात्म, और राष्ट्रीय चेतना, छायावाद, मानव की मुक्ति-चेतना और फिर जनचेतना— कितने ही रूप दिखायी पड़ते हैं।... अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का ‘प्रियप्रवास’ 1914 में रचा गया। यह खड़ी बोली का पहला महाकाव्य माना जाता है, जिसमें अतुकांत छन्दों का प्रयोग हुआ है:
                      
                       अधिक और हुई  नभ-लालिमा,     
                       दश दिशा अनुरंजित हो गयी;         
                       सकल पादप-पुंज-हरीतिमा                       
                       अरुणिमा-विनिमज्जित-सी हुई।                                                                  
           उक्त कविता की पंक्तियाँ बारह वर्णीय ‘द्रुत बिलम्बित (जगती)’ छन्द में हैं । छन्द हेतु निर्धारित गणों का पालन भी हुआ है, क्योंकि सभी चारों पंक्तियों में क्रमशः ‘नगण, भगण, भगण’ और ‘रगण’ (III, SII, SII, SIS) आये हैं; केवल तुकान्त की छूट ली गयी है। तुकान्त का आग्रह न तो संस्कृत काव्य (श्लोक, अनुष्टप आदि) में  है और न ही वैदिक छंदों (ऋचाओं) में। इस प्रसंग में एक श्लोक देखिए, जो तुलसी के  रामचरितमानस के प्रारंभ में दिया गया है । श्लोक चार चरणों का छंद होता है, जिसके प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं:-
                        1  2  3  4 5 6 7 8  / 9 10 11   12 13 14 15 16
                       वर्णानामर्थसंघानां, रसानां    छन्दसामपि।
                       मंगलानां च कर्त्तारौ,  वन्दे वाणीविनायकौ।।
           जयशंकर ‘प्रसाद’ ने भी 1918 में ‘झरना’ नामक रचना में खड़ी बोली में तुकान्त से मुक्ति पा ली, यद्यपि छन्द का पालन उन्होंने अवश्य किया। प्रस्तुत है झरना के प्रथम प्रभात का एक अंश:
                       वर्षा होने लगी कुसुम मकरंद की,
                       प्राण पपीहा बोल उठा आनंद में,
                         कैसी छवि ने बाल अरुण-सी प्रकट हो
                       शून्य हृदय को नवल राग रंजित किया।
                                   सद्यस्नात हुआ मैं प्रेम सुतीर्थ में,
                                   मन पवित्र उत्साहपूर्ण-सा हो गया,
                                   विश्व, विमल आनंदभवन-सा हो गया,
                                   मेरे जीवन का वह प्रथम प्रभात था। 
                          
           ‘परिमल’ की भूमिका में निराला कहते हैं, “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा है, और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह भी दूसरे के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं—फिर भी स्वतन्त्र, इसी तरह कविता का भी हाल है। जैसे बाग़ की बँधी और वन की खुली हुई प्रकृति- दोनों ही सुन्दर हैं, पर दोनों के आनंद तथा दृश्य दूसरे-दूसरे हैं।” अपनी बात के समर्थन में वे ऋग्वेद और यजुर्वेद की ऋचाओं का उल्लेख करते हैं, जो मुक्त छन्द में हैं और उनकी पंक्तियों में न तो वर्ण समान हैं और न ही उनका क्रम !  उनके अनुसार, “मुक्तछन्द तो वह है, जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है।” उनके ‘परिमल’ के तीसरे खंड में इसी प्रकार की कविताएँ हैं। उसकी भूमिका में वे स्वयं कहते हैं, “...मुक्तछन्द का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छन्द-सिद्ध करता है, और उसका नियम-राहित्य उसकी मुक्ति।” समर्थन में वे अपनी कविता, ‘जुही की कली’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं। उद्धरण को उर्दू के अरकान के ज़रिये आसानी से समझा जा सकता है—
       
        विजन-वन-वल्लरी पर                                   (ISS  SISS - फ़ऊलन्   फ़ाइलातुन् )
        सोती थी सुहाग-भरी                                     (SS SIS IIS -  फेलुन  फ़ाइलुन्  फ़इलुन्)
        स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तन-तरुणी        (SISI SII SSSS SS -  
                                                                              फ़ाइलात  फ़ाइल  मफ़ईलातुन्  फेलुन्)
        जुही की कली                                                (ISS IS -  फ़ऊलुन्   फ़ऊ )
        दृग बन्द किये- शिथिल पत्रांक में।  (SSI  ISIS  ISIS -  मफ़ऊल मफ़ाइलुन्  मफ़ाइलुन्)

मुक्तछन्द क्यों?
कभी-कभी वेदना, विसंगति या त्रासदी की अभिव्यक्ति में पारम्परिक छन्द का बन्धन आड़े आने लगता है, तो कवि उससे मुक्ति चाहता है। वह स्वच्छंद होकर कुछ रचना चाहता है। इसलिए पारंपरिक छन्दों को तोड़ने में कुछ बुराई नहीं। लेकिन छंद से कविता का नाता नहीं टूट सकता। उसका स्वरुप कुछ भी हो सकता है।  कल्पना कीजिए कि निराला, ‘तोड़ती पत्थर’ या ‘कुकुरमुत्ता’ को यदि दोहा, चौपाई, सवैया-कवित्त जैसे छन्द में रचते, तो क्या उसमें वही आस्वाद होता, जो उनके मुक्तछन्द रूप में है!  मुक्तछन्द होने के बावज़ूद ये कविताएँ कतिपय वर्ण-युग्मों पर आधारित हैं और यति-गति  से बद्ध हैं।
तोड़ती पत्थर      
वह तोड़ती पत्थर।                                  SSIS SS                        मुस्तफ्-इलुन, फ़ेलुन 
देखा उसे मैंने/ इलाहाबाद के पथ पर      SSIS SS/ ISSS ISSS      मुस्तफ्-इलुन, फ़ेलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन
                     वह तोड़ती पत्थर ।            SSIS SS                        मुस्तफ्-इलुन, फ़ेलुन 
कोई न छायादार                                   SSIS SSI                       मुस्तफ्-इलुन, मफ़ऊल
पेड़ वह जिसके तले/ बैठी हुई स्वीकार,   SISS SISS SIS SSI        फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन, मफ़ऊल
श्याम तन, भर बँधा यौवन,                    SISS ISSS                     फ़ाइलातुन, मफ़ाईलुन                      
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,                SISS SISS                     फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन,
गुरु हथौड़ा हाथ,                                 SISS SI                          फ़ाइलातुन, फ़ात  
करती बार-बार प्रहार :--                     SS SIS IISI                    फेलुन, फ़ाइलुन, फ़इलात
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकार। SISS SISS SISS SI      फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ात           
            इसी क्रम में एक रचना और देखिए, जो नयी कविता के प्रसिद्ध कवि, शमशेर बहादुर सिंह की है
            बात बोलेगी
बात बोलेगी, हम नहीं                      SISS SSIS         फ़ाइलातुन, मुस्तफ्-इलुन
भेद खोलेगी, बात ही।                      SISS SSIS              -वही-           
सत्य का मुख                                  SISS                 फ़ाइलातुन
            झूठ की आँखें                    SIS SS              फ़ाइलुन,  फ़ेलुन
            क्या देखें!                          SSS                  मफ़ऊलुन्
सत्य का रुख़                                 SISS                 फ़ाइलातुन
            समय का रुख़ है :              ISS SS              फ़ऊलुन,  फ़ेलुन
अभय जनता को                            ISS SS              वही
            सत्य ही सुख है,                 SIS SS              फ़ाइलुन,  फ़ेलुन
            सत्य ही सुख।                    SISS                 फ़ाइलातुन
            *   *   *                                    
गद्य कविता में भी लय अनिवार्य तत्त्व
हिन्दी के आन्दोलनकारी कवि, अज्ञेय के अनुसार, “गद्य की एक लय होती है, यह मान लेने में तो मुझे कठिनाई नहीं है, लेकिन गद्य का एक छन्द होता है, यह मैं बिना पारिभाषिक व्याख्या के स्वीकार नहीं करूँगा।... छन्द की चर्चा में प्रायः उन चीज़ों का उल्लेख होता है जिन्हें हमने अर्थात् समकालीन कवियों ने छोड़ दिया। ये चीज़ें पहले छन्द का अंग मानी जाती थीं, एक-एक करके हम पहचानते गये कि इनके बिना भी हमारा काम चलता है, लेकिन लय पर आकर हम लोग अटक गये : हमने माना कि लय के बिना काम नहीं चलता— अर्थात् कविता है, तो लय है; अगर लय नहीं है तो काव्य और गद्य में भेद का आधार नहीं रहता।” यहाँ अज्ञेय की एक प्रसिद्ध कविता प्रासंगिक है। शीर्षक है : साँप। कविता छोटी है—          
साँप/ तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी/ तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूँ, दोगे उत्तर-
फिर कहाँ सीखा/ डसना
यह विष कहाँ पाया?
इस कविता का विधान गद्य का है। सभी वाक्य गद्य जैसे हैं, उनमें कविता की लय उत्पन्न करने के लिए शब्दों को इधर-उधर कर दिया गया है। कहीं कर्ता को उसके स्थान से हटा दिया गया है, तो कहीं क्रियापद को ।
      प्रसिद्ध जनकवि नागार्जुन की एक कविता है- पैने दाँतों वाली। यह कविता एक सूअर पर है जो धूप में लेटी अपने छौनों को दूध पिला रही है।  कवि ने मादा सूअर को मादरे हिन्द की बेटी बताया है।  कविता, ग्राम्य संस्कृति की पालनहार माँ की ओर संकेत करती है और पाठक को सूअर से उत्पन्न होने वाली वितृष्णा से बचाती है। प्राणिमात्र के प्रति प्रेम भाव का प्रसार करती यह कविता गद्य के ठाठ में भी पाठकों को आनन्द और संवेदना से भर देती है—
         
         पैने दाँतों वाली
           
            धूप में पसरकर लेटी है 
            मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...      
            जमना-किनारे मखमली दूबों पर
            पूस की गुनगुनी धूप में
            पसरकर लेटी है
            यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है
            भरे-पूरे बारह थनोंवाली!
            लेकिन अभी इस वक़्त
            छौनों को पिला रही है दूध
            मन-मिजाज ठीक है      
            कर रही है आराम
            अखरती नहीं है
            भरे-पूरे थनों की खींच-तान
            दुधमुँहे छौनों की रग-रग में
            मचल रही है
            आख़िर माँ की ही तो जान!
            जमना-किनारे
            मखमली दूबों पर पसरकर लेटी है
            यह भी तो मादरे-हिन्द की बेटी है!
            पैने दाँतों वाली....। 
-          3/29 विकास नगर, लखनऊ 226 022  (मो.80096 60096)


2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय राजेंद्र वर्मा जी
    क्या छंद शास्त्र मे भी मात्रा गिराने के नियम है जैसे अरूज़ मे होते है? कृपया मार्गदर्शन करे। छंद शास्त्र पर संपूर्ण और संग्राह्य पुस्तकोंके बारे मे बताए। धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. वर्णिक छंदों में जैसे सवैया छंद में मात्राएँ गिरने का प्रचलन रहा है, जो ब्रजभाषा से अब तक चला आ रहा है। हिंदी का काव्यशास्त्र पिंगल पर आधारित है जिसमें संस्कृत काव्य के उदाहरण है। इस दृष्टि से तो खड़ी बोली में मात्रा गिराने का कोई विधान नहीं है। मैंने उक्त आलेख आजकल प्रचलित विधान जो उर्दू काव्यविधान से प्रेरित है, विशेषतः ग़ज़ल, को ध्यान में रखकर लिखा है। सधन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं