1
पौ फट रही,
गुलाबी होते जाते
उषा के गाल।
सरका मुख-पट
झाँकने लगा सूर्य।
2
दूब नटनी
शीश पर सँभाले
ओस की बूँद।
मचल उठी हवा,
बिखर गया मोती।
3
साँझ हो रही,
समाता जाता सूर्य
सिन्धु के अंक।
घुल रही वारुणी
सागर के जल में।
4
कूप-तड़ाग
खिसियाते बेचारे,
जीव बेहाल।
पोखर-दिल फटा,
कहाँ हो तुम, मेघ!
5
कब बीतेंगे
ये लपट के दिन,
छायेंगे मेघ?
पहनेगी धरती
बूँदों की पैजनिया!
6
बादल घिरे
झूम उठा मयूर
लगा नाचने।
खोज रही मयूरी
कहाँ है रे, तू पिउ!
7
भरा
हुआ था
कितने
ही भावों से
मेघों
का मन।
डोल
गयी पुरवा
छलक
पड़े नैन।
8
आषाढ़ लगा,
गिर पड़ा दौंगड़ा
थैंक्स राजेन्द्र!
प्यास बुझने लगी,
जिउ जुड़ाने लगा।
9
घन
बरसे
तन-मन
सरसे
पेड़
नहाये,
छके
पोखर-ताल
धरा
हुई निहाल।
10
मेघ
झरते
रिमझिम-रिमझिम्
एक
लय में।
बज
रहा सितार,
मुग्ध
रविशंकर।
11
छायी
बदली
भर
लायी गगरी
पनिहारिन।
लगी
बाँटने हवा
बरखा
की पातियाँ ।
12
काले बादल
आँज रहे काजल
नभ-नैनों में।
सजने लगी देखो,
बरखा की पालकी!
13
बादल
कवि
आकाश
काव्यमंच
गर्जन
काव्य,
पावस
संयोजक
धरती
रसस्नात।
14
बारिस
थमी,
बूँदें
टँगी नभ में
चमका
सूर्य।
धरा
निहारे नभ
इन्द्रधनु
लेकर।
15
खिला
आकाश,
खिल
उठा चन्द्रमा
खिले
तारे भी।
खिल
उठी धरती
नहा
के चाँदनी में।
16
नक्षत्र
खिले,
विस्फारित
आंखों से
देखे
आकाश-
कैसी
शस्य-श्यामला
सुप्त
सुन्दरी धरा।
17
किसने छापे
धरती के पृष्ठों पे
तांके-ही-तांके!
पढ़ने बैठी ऋतु
पृष्ठ पलटे हवा।
18
खिला
कमल,
अँगड़ाता
भँवरा
छेड़े
ग़ज़ल।
चलो,
यार! फिर से
हो
जाएं एकमेक।
19
ताल किनारे
फुदक रहा मेढक
मगन मन।
देख रहा बगुलाः
साँप लगाये घात।
20
चकित
घाटी,
पर्वत
से झरना
फूट
ही पड़ा।
झर-झर
झरने,
शीतलता
भरने ।
21
सरिता चली
सागर से मिलने
छूटा मायका,
दुखी पिता पर्वत
रोता भ्रात झरना।
22
हवा ठिठकी,
थपकी देती मौज
सोये समुद्र।
छुई-मुई हो रही
गजगामिनी नदी।
23
समुद्र
चौंका:
पानी
की एक बूँद
पत्थर
पर!
खिंचवा
ली वापस
भेजी
बड़ी लहर।
24
काहे का बड़ा,
बुझा न पाता प्यास
सागर खारा!
ऊपर से खींचता
नदी का मीठा पानी।
25
पवन
नाचा,
गा
उठा नरकुल
बँसवार
भी।
बज
रही बाँसुरी,
तुम
भी सुनो,
कृष्ण !
26
हवा ने छेड़ा,
कसमसाने लगा
हरसिंगार।
भू पे झरने लगी
चाँदनी-ही-चाँदनी!
27
लुटाता
रहा
रात
भर चाँदनी
हरसिंगार।
सोयी
जो अमावस,
न
जगी,
तो न जगी।
28
बाज़
न आती
लगाती
रहती है
यहाँ-की-वहाँ
!
ये
आखि़र हवा है
या
चुगलखोरिनी!
29
बरसे नहीं
घुमड़ते ही रहे
मेघ-सांसद,
कहने को जलद,
पर पूरे चुगद।
30
जाड़े की भोर,
टहल रही धूप
मुंडेर पर।
आँगन जो उतरे,
सेंक लूँ मैं भी देह!
31
नयी कोंपलें
एक-एक फुनगी
कल्पद्रुम-सी !
नवल हुई काया,
प्रिय! वसन्त आया।
32
क्यों बे बसन्त!
कहाँ रह गया था
अब तलक?
कित्ते दिन हो गये
पतझर को आये!
33
फूल मगन
रस चूसे तितली
मुस्काये डाली,
बिगड़ गया स्वाद
गुर्रायी मधुमक्खी!
34
महक
रहा
डाली
से लगा फूल
हँस-हँस
के!
सहम
गयी डाली,
बढ़ा
निर्दय हाथ।
35
महकता था
बगीची में गुलाब
कि बढ़ा हाथ!
बन गयी दुश्मन
अपनी ही ख़ुशबू।
36
टूट के गिरी
एक और पंखुरी
फूल बेबस।
भौंरा भी लौट गया
गुनगुन करता।
37
पथ सुरम्य
द्रुमों ने सजाये हैं
वन्दनवार!
पथिक! ठहर जा,
तनिक देख तो ले!
38
छोटा है अभी,
पर बड़ा व्याकुल
आम का पेड़,
जल्दी-से आये बौर,
महके पोर-पोर!
39
प्रेम-बन्धन
देखे न लोकलाज
कसता जाता!
पेड़ से लिपटी है
लता मुस्कुराती है।
40
काट
रही है
सूरज
का चक्कर
कब
से धरा!
लेकिन
सूरज है
कि
लिफ़्ट न मारता।
41
चोंच मारती
दर्पण पे चिड़ियाः
टुक-टुक टुक्!
उत्तर भी टुक-टुक्
उड़ी घबराकर!
42
कभी
द्रुत में,
कभी
विलम्बित में
गाये
चिड़िया।
कभी
तो एकल ही,
कभी
जुगलबन्दी!
43
कोयल कूकी
गा उठा पात-पात
अमराई का।
कौआ भी झूम उठा
भूला है काँव-काँव !
44
कुचली
गयी,
पर
लिपट गयी
पैरों
से दूब!
चला
जा रहा राही
अपनी
ही धुन में।
45
अकेला
ही था,
झूमता
रहता था
नन्हा
पादप।
किसकी
नज़र लगी,
खड़े-ही
सूख गया!
46
वृक्ष
देवता!
तुम
कितने दानी?
सर्वस
देतेः
फूल-फल-टहनी,
पत्रों
की छाँह घनी।
47
‘‘दुनियावालो!
मुझको
भी जीने दो,’’
पेड़
ने कहा।
सुनता
नहीं कोई,
सभी
हुए बहरे!
48
कब
चेतोगे?
कटते
जाते पेड़
दिन-पे-दिन!
बनती
जाती पृथ्वी
पुनः
आग का गोला!
49
पंछी
चहके
महकी
अमराई
बौराये
आम।
मास
भी न बीता था
कटने
लगे पेड़।
50
उगने
लगे
कंक्रीट
के जंगल,
धरा
चिन्तितः
उगी
है बोनसाई
कहां
जाए चिड़िया!
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