गुरुवार, 19 मार्च 2015

राजेन्द्र वर्मा के हाइकु

कुछ हाइकु

प्राची की लाली
उषा ने सजायी है
पूजा की थाली।

**
कमल खिला
जल पर उतरी
ताज़ा ग़ज़ल।

**
बरखा आती
हंसती-लहराती
धरा नहाती।

**
बया की झोंझ
झूल रही हिंडोला
हवा की पेंग.

**
गौरय्या उड़ी
हिल उठी फुनगी
टा-टा करती.

**
हवा ने भेजी
खुशबूवाली पाती
पके हैं आम.

**
कभी आम को
कभी चौकीदार को
देखे चिडिया.

**
क़लम लगी
खा गई दशहरी
टुइया आम.

**
अखाडा सजा
लड़े पहलवान
हारी जनता.


पौ फट रही-
सुर पाखी ने छेड़ी
राग भैरवी

रवि-रश्मियाँ
उतरीं द्वार-द्वार--
खुले कपाट

खुलने लगे
सरसिज के पट-
उड़ा भ्रमर

सूर्यागमन-
नभलीन हो रहा
भोर का तारा

सूर्य काँधे पे--
दिहाड़ी मज़दूर
चला काम पे 

नभ में लाली-
उड़े जा रहे पंछी
पी.टी. करते!

समुद्र में से
निकल रहा सूर्य-
तट पे भीड़!

भोर हो गयी-
खूँटे से बँधी गाय
काटे चक्कर

चाय का पानी
खौल रहा चूल्हे पे-
ऊँघती बहू

कमल खिले-
 खिलखिलाने लगे
 उदास बच्चे

दूब नटनी-
शीश पर सँभाले
ओस की बूँद

लुढ़क रही
पुरइन पे बूँद-
हाथ पे मोती

आषाढ़ लगा-
टर्रा रहे दादुर
ताल किनारे

चमकी आँखें-
नभ-कैनवस पे
मेघाकृतियाँ!

छा रहे मेघ-
खोल रहा मयूर
अपने पंख

पहली बूँद-
माटी से आने लगी
सोंधी महक

मेघ झरते-
बज रहा सितार
एक लय में

वर्षा की झड़ी-
भरने लगे खेत,
ख़ुश किसान!

शावर खुले-
नहाने लगे पौधे
झूम-झूम के !

आ गयीं बूँदें-
खुलने लगे छाते
रंग-बिरंगे!

पेड़ भीगता-
कोटर में दुबकी
झाँके गौरैया!

बारिस थमी-
चलता बना राही,
टपके पेड़

वर्षा की भोर-
बरामदे में बैठी
भीगी गौरया

मयूर नाचे-
कोई देखे, न देखे,
क्या परवाह!

एक हो रहे
बिखरे हुए मेघ-
छुपता सूर्य

वर्षा की झड़ी-
श्वेत-श्याम हो रहीं

गंगा-जमुना
००

तट छूकर
लौट रही लहर-
मैं ही तटस्थ!

गौरय्या उड़ी-
हिल उठी फुनगी
‘टा-टा’ करती!

हवा की पेंग-
झूल रही हिंडोला
बया की झोंझ!

पीपल कटा-
उगा रहा बोनसाई
फ्लावर-पॉट ।

सूरज डूबा-
अन्धकार से मिली 
परछाई भी!

डार से टूटी
उड़ी जा रही पत्ती
हवा के संग।

तंत्री के तार
टूटे, टूटते गये-
पसरा मौन।

हाँ, कोई था तो
ठीक से देखा नहीं,
ओह! तुम थे।

तुम भी हँसो-
बन गयी जि़न्दगी
चकरघिन्नी।

चहक उठा
सूना-सूना आँगन-
आयी है बहू

गौने की शाम-
बहू से ज़्यादा बेटा
शरमा रहा

बिके सपूत-
कैंपस सेलेक्शन
हुआ सफल

गाय बुढ़ायी-
होगी नहीं गाभिन,
हो गयी छुट्टी।

बैल बुढ़ाया-
मेटाडोर में लदा
बहाये आँसू!

रौशनी गयी-
बेटे से बड़ा हुआ
मोतियाबिन्द!

इकट्ठे हुए
पार्क में बूढ़े लोग-
छलकी आँखें!

बल्ब पुराना
दप्प से हुआ, बस-
हाई वोल्टेज़!

स्मृति में तुम-
डोल गयी पुरवा
मेरे भीतर

ग़ुस्सा ठंडाया-
झरने लगे आँसू
धुला अंतस

विवाह तय-
तुलसीचौरे पर
घी का दीपक

शुभ विवाह-
बुआजी लगा रहीं
हल्दी की छापी।

हल्दी का रंग
देह के पृष्ठों पर,
मन तो श्वेत!

तन ब्याहोगे,
मन कैसे ब्याहोगे?
प्रेम के बिना!

बहू आ गयी
बिटिया बनकर,
जिउ जुड़ाया!

गौना होने को-
लजा रही बिटिया
अम्मा उदास

बेला महकी-
तुम्हारी सान्ध्र गन्ध
रोम-रोम में

पति शराबी-
गुंथी ही रह गयी
जूड़े में बेला

गौने से लौटी
बेटी है गुमसुम-
अम्मा को चिंता।

भेंट हुई है
बहुत दिनों पर-
मान-मनौव्वल!

भाई के हाथों
पिट रही बहन-
हँस रही माँ।
जूठन खाये,
उतरन पहने,
फिर भी ख़ुश !

चाय बना दे,
दवा भी दे दे बेटी!
फिर जा स्कूल।

तीस की हुई
कुँवारी  बैठी बेटी ,
जुटी न दैजी !

माँ भी न रोयी-
फसरी लगा मरी
जवान बेटी।

मनौती व्यर्थ,
झाड़-फूँक भी व्यर्थ,
पति में कमी।

नियोग किया
फिर भी गोद खाली-
हाय क़िस्मत!

छः-छः बेटियाँ-
सपने में दिखता
पेटपोछना!

भारी हैं पैर-
खिला रही कन्याएँ
बेटे की आस!

बेटी या बेटा?
भ्रूण-परीक्षण में
माँ भी उत्सुक।

वो ऐसा ही है,
कुटम्मस भी करे
और प्यार भी।

पति लापता,
जेठा है तो क्या हुआ?
पेट तो पाले ।

अच्छी नहीं है
ससुर की नज़र,
बहू अकेली!

करवा चौथ-
मुँह ढापे रो रही
उजड़ी माँग।

दूध उबला-
‘तू-तू मैं-मैं’ हो रही
सास-बहू में।

बहू कर्कशा-
सास-ससुर सीधे,
घर नरक!

ज़ुबान खोली-
चाँटा पड़ा तड़ाक
सन्न है बहू

ग़ुस्से की मार-
ले, तलाक़, तलाक
और तलाक़! 

ग़ुस्सा ठंडाया-
इद्दत की मियाद
काटे न कटे।

(इस्लाम में तलाक़ के बाद शौहर अगर बीवी से शादी करना चाहे, तो बीवी को किसी और से शादी कर तलाक़ लेना पड़ता है। इस (दूसरे)             तलाक़ के 3 महीने 13 दिनों बाद ही पहले वाले शौहर से शादी हो सकती है। इस अवधि को ‘इद्दत’ कहते हैं।)
सीता का त्याग-
राम की शक्ति-पूजा,
मिली मिट्टी में।

घर-घर में
विषपायिनी मीरा,
एक न कृष्ण!

आर्ट की कॉपी-
फूल के चित्र पर
बैठी तितली

इंटरवल-
बातों के बीच खुले
टिफ़िन–बॉक्स

एक-दो-तीन--
टनटनाया घंटा,
भागो रे घर !

वक़्त पढ़ाता-
सोलह-दूनी आठ,
हम पढ़ते।

दीपक सूना-
अमावस की रात
कैसे कटेगी?

माचिस गीली-
घिस गयीं तीलियाँ,
जला न दीप।

निगल गया-
अँगनाई की धूप
ऊँचा पड़ोस!

पाती लिखना
भूल गये हम भी-
मोबाइल है!

प्रेशर हॉर्न-
अंकुश से आहत
चिंघाड़ा हाथी !

जीतेगा नहीं,
जानता है कछुआ-
फिर भी दौड़ा।

सच तो बोलो-
जीभ न जल जाए,
तो ही कहना!

शहर आके
भौंचक आदिवासी-
कैमरे ऑन!

‘हो-हो’ करता
जारवा-निकोबारी-
हँसें सैलानी।

आखि़र हारा
माइकल जैक्सन
रंगभेद से!

गले तो लगीं,
पर एक न हुईं
गंगा-जमुना।

चटोरी जीभ-
देवता पे चढ़ाती
पशु की बलि।

आदमी भूखा-
मूर्ति के मुख लगा
अभागा अन्न।

रास रचाता
परस्त्रियों के संग
है भगवान!

दाँव लगाता
पत्नी को भी जुए में-
है धर्मराज!

रोटी का सच
खोजने न निकला
कोई ‘सिद्धार्थ’

आया है कुंभ
बारह सालों बाद,
धो डालो पाप

पत्थर बनो,
फिर लगेगा तुम्हें
छप्पन भोग

क्यों बे बकरे!
आ गयी बकरीद,
ख़ुश तो है न!

बकरा कटा—
रक्त की धार बही,
छलके आँसू !

दीनी ज़ुनून-
बन गया आखि़र
मानव-बम!

चाहे गोल हो,
या कि अष्टकोणीय,
गुम्बद एक।

कोई हिन्दू है,
कोई मुसलमान,
इन्सान  कहाँ?

मन्दिर बना,
मस्जिद बन रही,
बना न स्कूल।

सजा अखाड़ा-
लड़े पहलवान,
हारी जनता!

चुनाव आया-
फिर चढ़ने लगी
काठ की हांडी ।

चुनाव बीता,
धूम मचाता आया
जंगल-राज।

नमक-रोटी
मिल जाए साहब!
मैं,  हिन्दुस्तान।

नींद तो आये,
देख लूँगा हुजूर!
रोटी का ख़्वाब।

अमीर लदा
ग़रीब की पीठ पे-
पैसे की मार!

देश ग़रीब,
तब कैसे हो गये
नेता अमीर?

तय हो गयी
लूट में हिस्सेदारी-
बजट पास!

हँसते रहे
नक़ली नोटों पे भी
महात्मा गांधी!

भत्ते की भिक्षा-
सिर के बल खड़ा
बेरोज़गार।

अपनी हाँके,
न देखे छोटा-बड़ा,
ज़ाहिल टी.वी.।

फैसला हुआ-
केस ला ‘कोट’ हुए,
न्याय न हुआ।

गश्त लगाते
ज़ेड सिक्योरिटी में
विक्रमादित्य।

हाँ, अंधेरा हूँ,
बैठा हूँ दीप-तले,
क्या कर लोगे?

भूमि-अर्जन--
कॉर्पोरेट की चाँदी
मरे किसान।

ख़ुश्बू न भाये-
खंड-खंड हो गयी
इत्र की शीशी

छप रही है
कविता की किताब,
पढ़ेगा कौन?

भू के भीतर
टकरायीं परतें-
आया भूकंप

धरती माता!
कैसी ली करवट?
बच्चे ही दबे!

दाना चुगती
जल्दी-जल्दी चिडि़या-
हो रही साँझ

चिडि़या लौटी-
चोंच से गिरा दाना
सूने नीड़ में !

कहाँ से लाते
चौबीसों-घंटे पानी?
तुम निर्झर!

छप्पर-छानी
हल-माची-कुदाल-
वाह रे बाँस!

धरा में धँसा
नाप रहा आकाश
बाँसों का वन

बाँसुरी मौन-
मची हुई है धूम
पिपिहड़ी की!

कभी सूप में
 कभी टिकठी पर-
बाँस के साथ


टका जवाब-
दरवाजे पे टँगी
बाँस की चिक

बाँसुरी बने,
कपाल क्रिया करे-
तटस्थ बाँस!

रस चूसती
छाती पर सवार
अमरबेल!

नेवला भिड़ा-
फुफकारता साँप
हो रहा ठंडा!
शान्ति के दूत
नभ नापते लौटे
पस्त होकर ।

कहाँ जाना था,
कहाँ पहुँच गये-
लौटना होगा!

नाल निकली-
रफ़्तार पड़ी धीमी
पड़ा चाबुक!

भोज होने को-
फटा था, बच गया
केले का पत्ता!

गुलाब खिला-
पंडित जी ने खोंटा
पूजा के लिए

ओवरऐज-
लौट गये देखुआ
हुआ न ब्याह

बेरोज़गारी-
झुक गयी कमर
चालीस में ही

जग से जीता,
अपनों से भी जीता,
स्वयं से हारा!

जीत, न हार- 
क्रीडा का आनंद ही 
जीवन-सार।

कल आया था
और कल जाना भी-
आज जीना है!

रोते आया था
मुस्कुराते जाऊँगा-
तुम देखना!

नयन गले
प्रिय की प्रतीक्षा में-
कोटर बचे।

मोम पिघला
जब भी जली बाती-
दर्द का रिश्ता।

प्रेमबंधन-
लिपटती जाती है
लता पेड़ से।

स्वातंत्र्य-पर्व--
सीमा पर तिरंगा
फहर रहा।

सीमा से लौटा
तिरंगे में लिपटा
माँ का सपूत

वार्ता हो रही-
अन्धा पिता टटोले
फ़ौज़ी की लोथ ।

मातमी धुन-
मुखाग्नि देता पिता
हुआ मूर्छित!

छलनी शव-
रो रही रुदाली भी
खून के आँसू!

बाल नौकर
बाँट रहा जलेबी-
आज़ादी-पर्व।

झंडा बदला
शासक भी बदले
ग़ुलामी वही!

मंत्री की कार-
फड़फड़ाता झंडा-
भीड़ हैं ख़ुश

बच्चा बीनता
प्लास्टिक के तिरंगे
कूड़ेदान से!

मैच फिक्सिंग-
टीम को हराकर
जीता खिलाड़ी।

लहरा गिरा
लोकार्पण का फीता-
बजी तालियाँ

कूड़ा बीनता
चुप देखता बच्चा-
स्कूली बच्चे को

ट्रैक्टर आया-
हल-माची-पगहा
पड़े कोने में!

कटी ‘आर.सी.’—
नीलामी पे ट्रैक्टर,
बिकी पगड़ी।

बँटा आँगन-
फिसलती जा रही
मुट्ठी की रेत।

रक्षाबंधन-
बहन है आने को,
जेब है ख़ाली!

निकले आँसू-
बँध न पायी राखी
कटे हैं हाथ !

सफ़ेद बाल
कनपटी के पास-
पहली घंटी!

डॉक्टर को भी
मिल न रही पल्स-
हो गयी साँझ!

आँचल हटा-
स्तन से लगा शिशु
मुस्कुरा उठा!

भालू का नाच-
अम्मा की गोद बैठा
हँसता बच्चा

छुट्टी का दिन-
छत पे माँ देखती
पार्क में बच्चे

मेस का खाना-
माँ के हाथ की रोटी
याद आ गयी

संडे की शाम-
कल जायेंगे बच्चे
माँ है उदास !

बच्चा शैतान-
परेशान मम्मा ने
जड़ा थप्पड़!

सो गया बेबी
इंतज़ार करके-
मम्मी क्लब में!

बछड़ा भूखा—
पन्हाने लगी गाय,
दुधे दूधिया।

प्यास खरायी-
नल पड़े हैं टूटे,
ज़ेब भी ख़ाली !

श्वान जो भौंका—
ऊँघते सिपाही ने
फटका डंडा।

बच्चा रुआँसा—
आज भी छूट गयी
स्कूल की बस।

साँप, साँप है
चन्दन, चन्दन है
तुम क्या हो ?

ईमान बिका-
भुगतान हो रहा
वाशरूम में!

सुनायी सज़ा
खाप पंचायत ने,
लटकी लाशें !

ज़ेब है ख़ाली-
ड्राइंग रूम सजे
लाफिंग बुद्धा ।

स्वर्ण तपता
आभूषणों के लिए-
देश है भूखा !

अकाल पड़ा—
हरक़त में आयीं
जीवित लाशें !

००

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें